Arya kon the | आर्य कौन थे 

आर्य कौन थे -Arya kon the

आर्य का  शाब्दिक अर्थ है — ‘ श्रेष्ठ ‘ । वास्तव में आर्य विश्व की एक सभ्य तथा गुणी जाति थी । आर्य लोग स्वस्थ , साहसी तथा सुन्दर होते थे । उनका कद लम्बा , रंग गोरा , बाल काले तथा आकृति आकर्षक थी । हज़ारों वर्ष पूर्व वे अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर विश्व के दूसरे भागो  में जा बसे । उन्होंने इन सभी क्षेत्रों में सभ्यता का प्रकाश फैलाया । उन्होंने वहां कृषि तथा पशु – पालन का प्रसार किया , सामाजिक ढांचे में परिवर्तन किये तथा एक नवीन शासन – प्रणाली का श्रीगणेश किया । भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति की महानता का श्रेय भी आर्यों को ही प्राप्त है । यही नहीं ईरानी , यूनानी , जर्मन आदि लोग भी अपने आपको आर्य कहलाने में अधिक गर्व अनुभव करते हैं । आर्यों के मूल निवास सम्बन्धी सिद्धान्तों का वर्णन अग्रलिखित अनुसार है

Arya kon the

I. आर्यों (Arya)का मूल निवास स्थान-Original Home of the Aryans

र्यों (Arya)के मूल निवास स्थान के विषय में अनेक मतभेद हैं । एक इतिहासकार उन्हें मध्य एशिया का निवासी बताता है , तो दूसरा उन्हें उत्तरी ध्रुव का रहने वाला सिद्ध करता है । कुछ इतिहासकार यूरोप के ही किसी क्षेत्र को आर्यों का आदि देश मानते हैं । इसके विपरीत कुछ ऐसे भी विद्वान् हैं जो समझते हैं कि आर्य भारत में कहीं बाहर से नहीं आए , बल्कि वे भारत से ही अन्य देशों में गए । इस प्रकार आर्यों के आदि देश के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं । परन्तु हम केवल उन्हीं विचारों पर प्रकाश डालेंगे जो अधिक लोकप्रिय हैं

आर्य कौन थे 

श्री दास ने अपने मत की पुष्टि ऋग्वेद में वर्णित निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर की है ।

( i ) ऋग्वेद में केवल सप्त – सिन्धु प्रदेश का ही वर्णन है । यदि आर्य लोगों का मूल निवास स्थान सप्त – सिन्धु की बजाये कोई और प्रदेश होता तो ऋग्वेद में उसकी महिमा अवश्य गाई जाती ।

( ii ) ऋग्वेद में जिन सात नदियों के नाम आते हैं वे सप्त – सिन्धु प्रदेश में युग – युगान्तरों से बहती चली आ रही हैं ।

( iii ) ऋग्वेद में आर्यों (Arya)के पूर्वजों के बारे में कोई वर्णन नहीं है ।

( iv ) ऋग्वेद में जिन पेड़ – पौधों या पशु – पक्षियों का वर्णन किया गया है , वे सभी सप्त – सिन्धु प्रदेश से सम्बन्धित हैं ।

श्री दास के इस मत से बहुत से विद्वान् सहमत नहीं हैं । इसका प्रथम कारण यह है कि सप्त – सिन्धु प्रदेश को आर्यों (Arya) का मूल निवास सिद्ध करने के लिए केवल ऋग्वेद का ही सहारा लिया गया है । दूसरा , इस सिद्धान्त को स्वीकार करने वालों ने भाषा – विज्ञान की अवहेलना की है । ऋग्वेद में कुछ ऐसे भौगोलिक तथ्यों का उल्लेख हैं जो सप्त – सिन्धु प्रदेश में कहीं दिखाई नहीं देते । अत : इन सब बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्य लोग सप्त सिन्धु के नहीं , बल्कि किसी अन्य प्रदेश के रहने वाले थे । अब तो यह भी सिद्ध हो चुका है कि आर्यों के आगमन से पहले इस प्रदेश में सिन्धु घाटी की सभ्यता अपनी चरम सीमा पर पहुंची हुई थी । परिणामस्वरूप हम आर्यों को सप्त – सिन्धु प्रदेश के मूल निवासी स्वीकार नहीं कर सकते ।

2. बाल गंगाधर तिलक का उत्तरी ध्रुव प्रदेश सम्बन्धी सिद्धान्त ( The Arctic Theory of Bal Gangadhar Tilak ) — बाल गंगाधर तिलक ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ आर्कटिक होम इन दी वेदाज ‘ में उत्तरी ध्रुव प्रदेश को आर्यों (Arya) का मूल निवास स्थान माना है । उनके अनुसार उत्तरी ध्रुवीय प्रदेश आरम्भ में ठण्डा नहीं था । ज्यों – ज्यों वहां ठण्ड का प्रकोप बढ़ता गया , आर्यों ने इस प्रदेश को छोड़ना शुरू कर दिया । धीरे – धीरे वे ईरान , भारत तथा अन्य देशों में जाकर बसने लगे । इस मत के पक्ष में उन्होंने निम्नलिखित तर्क दिए हैं

( i ) ऋग्वेद में जिन छः- छः मास के दिन – रात का वर्णन मिलता है , वह केवल उत्तरी ध्रुवीय प्रदेश में ही सम्भव हो सकते हैं ।

( ii ) ऋग्वेद में वर्णित दीर्घ उषा भी केवल उत्तरी ध्रुवीय प्रदेश में देखने को मिल सकती है ।

( iii ) वैज्ञानिकों ने भी आज इस बात को सिद्ध कर दिया है कि कभी ऐसा भी समय था जब उत्तरी ध्रुव प्रदेश मनुष्यों के निवास के योग्य था ।

बहुत से विद्वानों ने तिलक के इस सिद्धान्त को गलत सिद्ध करने का प्रयत्न किया है । उनके अनुसार ऋग्वेद में उषा का मुंह पश्चिम में बताया गया है । यह उत्तरी ध्रुव प्रदेश की उषा नहीं हो सकती , क्योंकि ध्रुवीय प्रदेश में उषा दक्षिण में होती है । उनका मत है कि ऋग्वेद में कहीं भी इस बात का वर्णन नहीं आता कि आर्य लोग किस प्रकार उत्तरी से भारत पहुंचे । विद्वानों का यह भी मत है कि आर्यों (Arya)का ज्ञान अत्यधिक विस्तृत था । इसलिए यदि  ऋग्वेद में छ : मास के दिन या रात का वर्णन मिलता है , तो इसका यह अर्थ भी तो लिया जा सकता है कि वे अपने प्रदेश के अतिरिक्त दूसरे प्रदेशों की जानकारी रखते थे ।

3. स्वामी दयानन्द का तिब्बत सम्बन्धी सिद्धान्त ( The Tibetan Theory of Swami Daya Nand ) — आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द ने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में तिब्बत को आर्यों (Arya) का मूल निवास स्थान माना है । उन्होंने अपने इस मत को तिब्बत में पड़ने वाली कठोर शीत पर आधारित किया है । उनका कहना है कि आर्य लोग सूर्य तथा अग्नि की पूजा इसलिए करते थे क्योंकि उनके प्रदेश में शीत का अधिक प्रकोप था । इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में वर्णित वृक्ष तथा पक्षी भी उन दिनों तिब्बत में पाए जाते थे । परन्तु अधिकांश विद्वान् इस सिद्धान्त से सहमत नहीं हैं । उनके अनुसार सूर्य और अग्नि की पूजा से यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि आर्यों का देश शीत प्रधान होगा । संसार के बहुत से ऐसे शीत प्रधान देश हैं , जहां न तो अग्नि की पूजा होती है 7 और न ही सूर्य की । दूसरी ओर पीरू में यद्यपि ठण्ड नहीं होती फिर भी वहां के निवासी सूर्य की उपासना करते हैं । इसके अतिरिक्त विद्वानों के अनुसार तिब्बत की जनता मंगोल जाति के साथ सम्बन्ध रखती है न कि आर्य जाति के साथ |

4. डॉ ० पी ० गाईल्स का डैन्यूब नदी घाटी का सिद्धान्त ( Danube River Valley Theory of Dr. P. Giles ) – डॉ ० पी ० गाईल्स के अनुसार आर्य लोग डैन्यूब नदी घाटी में स्थित ऑस्ट्रिया और हंगरी के रहने वाले थे । इसका प्रमाण यह है कि इन प्रदेशों की भाषाएं आर्यों (Arya) की भाषा संस्कृत से काफ़ी मेल खाती हैं । इसके अतिरिक्त गाय , घोड़ा आदि पशु जो आर्यों के महत्त्वपूर्ण पशु थे , इन प्रदेशों में पाए जाते हैं । परन्तु आज विद्वान् इस सिद्धान्त को विशेष महत्त्व प्रदान नहीं करते ।

5. प्रो ० मैक्स मूलर का मध्य एशिया सम्बन्धी सिद्धान्त ( Central Asian Theory of Prof. Max Muller ) — जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान् प्रो ० मैक्स मूलर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ” भाषा विज्ञान पर भाषण ” में मध्य एशिया को आर्यों (Arya) का मूल निवास स्थान बताया है । उनके अनुसार ईरानी , लातीनी , यूनानी , रोमन तथा जर्मन लोगों के पूर्वज कभी मध्य एशिया में एक साथ रहते थे । परन्तु कुछ समय पश्चात् खाद्यान्न के अभाव तथा जनसंख्या की वृद्धि के कारण उनका वहां रहना कठिन हो गया । अतः आर्य लोगों ने मध्य एशिया को छोड़कर संसार के अन्य भागों में जाना शुरू कर दिया । आर्यों की जिस शाखा ने भारत में प्रवेश किया उनकी सन्तान ही भारतीय आर्य कहलाई ।

 ( i ) प्रो ० मैक्स मूलर ने भारतीय आर्यों  (Arya)के धार्मिक ग्रन्थ वेद तथा ईरानियों की पुस्तक ‘ जेन्द आवेस्ता ‘ ( Zend Avesta ) का तुलनात्मक अध्ययन किया है । अतः आर्यों का आदि देश वह स्थान होना चाहिए जहां घोड़ा , गाय , पीपल आदि चीज़ों के लिए अनुकूल वातावरण हो । ऐसा स्थान केवल मध्य एशिया का ही कोई प्रदेश हो सकता

( ii ) वेदों में वर्णित आर्य लोग रंग के गोरे , कद के लम्बे तथा अच्छे डील – डौल वाले थे । आर्यों (Arya) का इस प्रकार का शारीरिक वर्णन जर्मनी , इंग्लैंड तथा ईरान के निवासियों से मेल खाता है ।

इस सिद्धान्त को कई विद्वान् स्वीकार नहीं करते । उनका कहना है कि कुछ शब्दों के आपसी मेल से जातियों का आपसी सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता । जैसे कि सभी अंग्रेज़ी या फ्रांसीसी बोलने वाले अंग्रेज़ अथवा फ्रांसीसी नहीं कहला सकते । इसके अतिरिक्त बड़े आश्चर्य की बात है कि सभी आर्य लोग खाद्यान्न के अभाव के कारण विदेशों में गये ।

II . निष्कर्ष ( Conclusion )

ऊपर दिये गए सिद्धान्तों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी सिद्धान्तों में कुछ – न – कुछ त्रुटियां हैं । फिर भी मैक्स मूलर का मध्य एशिया का सिद्धान्त अधिक तर्कसंगत जान पड़ता है । यह ठीक है कि इस सिद्धान्त में भी कुछ त्रुटियां हैं , परन्तु निम्नलिखित बातों के आधार पर यह मत अधिक विश्वसनीय प्रतीत होता है

( 1 ) इस मत की मान्यता का सबसे बड़ा कारण मध्य एशिया की भौगोलिक स्थिति है । मध्य एशिया भारत , ईरान तथा यूरोप के मध्य में स्थित है । इस कारण यह माना जा सकता है कि आर्यों  (Arya) के पूर्वज यहां से पूर्व में भारत और ईरान की ओर तथा पश्चिम में यूरोप की ओर निकल गए । होंगे ।

( 2 ) मैसोपोटामिया में मिले बोगज – कोई ( Boghaj – koi ) शिलालेख से यह बात सिद्ध होती है कि प्राचीन काल में वहां के निवासी ‘ इन्द्र ‘ और ‘ वरुण ‘ आदि देवताओं की उपासना करते थे । ये देवता भारतीय आर्यों (Arya) के भी पूज्यनीय थे । अतः स्पष्ट है कि आर्य लोग भारत में आने से पहले मध्य एशिया में ही निवास करते रहे होंगे ।

( 3 ) आर्यों (Arya) का मुख्य व्यवसाय पशु – पालन था । सम्भवतः आर्य लोग भारत में आने से पहले भी पशु – पालन • व्यवसाय में ही लगे हुए होंगे ।। पशु चराने के लिए उपयुक्त स्थान मध्य एशिया की विशाल चरागाहें ही हो सकती हैं । इससे स्पष्ट हो जाता है कि आर्य लोग आरम्भ में मध्य एशिया में रहते होंगे ।

( 4 ) ऋग्वेद में वर्णित पशु – पक्षियों तथा वृक्षों का सम्बन्ध भी मध्य एशिया से ही है ।

( 5 ) ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में आर्यों (Arya) को समुद्र का ज्ञान नहीं था । ऐसा स्थान भी मध्य एशिया ही हो सकता

( 6 ) मध्य एशिया के सिद्धान्त को इसलिए भी मान्यता दी जाती है क्योंकि अधिकतर विद्वान् इसी सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं । अतः भाषा , धार्मिक ग्रन्थ तथा मध्य एशिया की स्थिति को देखते हुए यही कहना उचित है कि आर्य लोग मध्य एशिया के रहने वाले थे ।

वैदिक काल में लोगों की सामाजिक स्थिति 

  आर्यों (Arya) द्वारा रचित महान् ग्रन्थ ऋग्वेद से हमें तत्कालीन आर्यों के राजनीतिक , सामाजिक , धार्मिक तथा आर्थिक जीवन की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है । ऋग्वेद से हमें पता चलता है कि आरम्भिक भारतीय – आर्यों ने एक अत्यन्त ही उच्चकोटि की सभ्यता स्थापित की हुई थी । संक्षेप में , ऋग्वैदिक आर्यों की सभ्यता की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार से हैं I.

  1. राजनीतिक जीवन ( Political Life )

ऋग्वैदिक आर्यों (Arya) ने अपनी सुविधा के लिए प्रशासनिक ढांचे को कई छोटी – छोटी इकाइयों में विभक्त किया हुआ था । शासन प्रबन्ध की सबसे छोटी इकाई परिवार थी । इसके मुखिया को गृहपति अथवा कुलपति कहते थे । कुछ परिवारों से मिल कर एक गांव बनता था । इसका मुखिया ग्रामिणी होता था । कई गांवों को मिलाकर एक विष बनता था । इसके मुखिया को विषपति कहा जाता था । कई विषों को मिलाकर एक जन बनता था । जन के मुखिया को राजन अथवा राजा कहा जाता था । ऋग्वेद में राजा को ‘ गोप जनस्य ‘ ( प्रजा का रक्षक ) और के ‘ पुरामभेत्ता ‘ ( नगरों पर विजय पाने वाला ) कहा गया है । राजा का पद वंशानुगत होता था अर्थात् उसकी मृत्यु बाद उसका बड़ा पुत्र गद्दी पर बैठता था ।

राजा का शासन में हाथ बंटाने के लिए कई मन्त्री होते थे । योग्य तथा उच्च चरित्र के व्यक्तियों को ही मन्त्री बनाया जाता था । उस समय के प्रसिद्ध मन्त्री पुरोहित , सेनानी तथा ग्रामिणी थे । ऋग्वेद में ‘ सभा ‘ और ‘ समिति ‘ नामक शक्तिशाली संस्थाओं का उल्लेख बार – बार आता है । इतिहासकारों का विचार है कि सभा में वयोवृद्ध व्यक्ति सम्मिलित होते थे जबकि समिति में बहुत से कबीलों के सदस्य । इन संस्थाओं को असीमित अधिकार प्राप्त थे । वे शासन प्रबन्ध चलाने में राजा की सहायता करती थीं । इन दोनों संस्थाओं की कार्य पद्धति लोकतन्त्रीय थी । उस समय दण्ड व्यवस्था कठोर थी । गांव में फैसला करने वाले पंच को ‘ ग्राम्यवादिन ‘ कहते थे । आर्य युद्ध – कला में बहुत निपुण थे । उनकी सेना में मुख्य रूप से घुड़सवार तथा पैदल सेना होती थी । राज्य के उच्चाधिकारी मुख्यतः रथों पर चढ़कर लड़ते थे । तीर कमान उनका मुख्य शस्त्र था । इसके अतिरिक्त वे युद्ध में तलवारों , भालों , कुल्हाड़ों तथा गंडासों का प्रयोग भी करते थे ।

2. सामाजिक जीवन ( Social Life )

आर्य समाज की सबसे छोटी परन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई परिवार थी । आर्यों (Arya) का पारिवारिक जीवन बहुत समृद्ध था । उस समय संयुक्त परिवार प्रणाली प्रचलित थी । परिवार पितृ – प्रधान होते थे । परिवार का सबसे वयोवृद्ध व्यक्ति उसका मुखिया होता था । उसे गृहपति अथवा कलपति कहा जाता था । पिता की मृत्यु के बाद उसका सबसे बड़ा पुत्र गृहपति बनता था । ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों को समाज में उच्च तथा आदरपूर्ण स्थान प्राप्त था । उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे । महिलाओं को विवाह के सम्बन्ध में पूर्ण स्वतन्त्रता थी । वे अपनी इच्छा से 3 अपना पति चुन सकती थीं । स्त्रियों के सहयोग के बिना कोई भी धार्मिक कार्य अधूरा समझा जाता था । बाल विवाह , सती प्रथा तथा पर्दा प्रथा जैसी कोई बुराई व्याप्त न थी । आर्य समाज में आज के जैसी जाति – प्रथा भी विद्यमान नहीं थी । समाज विभिन्न व्यवसायों के आधार पर चार वर्गों में विभाजित था- ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य तथा शूद्र अपना काम बदलने से व्यक्ति की जाति भी बदल जाती थी । आर्यों के वस्त्र ऊनी , सूती , रेशमी तथा मृग चर्म के होते थे । उनके वस्त्रों को नीवी , वास तथा अधिवास में बांटा जा सकता है । आर्य सादा और सन्तुलित भोजन करते थे । वे बहुधा गेहूं , चावल , जौ , दूध तथा घी से बनी वस्तुओं का उपयोग करते थे । कुछ विशेष अवसरों पर वे भेड़ , बकरी आदि का मांस भी खाते थे । ऋग्वैदिक काल में शिक्षा निजी रूप से दी जाती थी । विद्यार्थी शिक्षा प्राप्ति के लिए गुरुकुलों में जाते थे । शिक्षा का मुख्य उद्देश्य छात्रों में उच्च आदर्श उत्पन्न करना और उन्हें भावी जीवन के योग्य बनाना होता था । शिक्षा का मुख्य विषय वैदिक साहित्य होता था । शिक्षा सम्पूर्ण होने पर विद्यार्थी अपने गुरु को दक्षिणा देते थे । ऋग्वैदिक काल में आर्य लोग अपना मनोरंजन कई प्रकार से करते थे । उनके मनोरंजन का मुख्य साधन रथ दौड़ था । सामवेद से आर्यों की संगीत में रुचि का भी पता चलता है । वे शिकार , घुड़ दौड़ तथा कुश्ती से भी अपना मनोरंजन करते थे 

III . आर्थिक जीवन ( Economic Life ) ऋग्वैदिक आर्यों (Arya) का मुख्य व्यवसाय पशुपालन था । ऋग्वेद में गोपों ( ग्वालों ) का उल्लेख बार – बार आता है । जो पशुओं को चराने के लिए चरागाहों में ले जाते थे । आर्य लोग गाय , बैल , भैंस , भेड़ , कुत्ते , घोड़े , गधे , ऊंट तथा हाथी पालते थे । इन पशुओं से दूध , मांस तथा ऊन प्राप्त की जाती थी । आर्यों द्वारा पाले जाने वाले पशुओं में गायों को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता था । गाय उनके आर्थिक जीवन का भी आधार थी । ऋग्वैदिक आर्यों का दूसरा मुख्य व्यवसाय कृषि था । भूमि को लोहे के हलों द्वारा जोता जाता था । फसलों की भरपूर उपज के लिए खाद का भी प्रयोग किया जाता था । सिंचाई का मुख्य साधन वर्षा थी । उस समय की प्रमुख फसलें गेहूं , जौ , चावल , दालें , सब्जियां , फल , कपास तथा गन्ना थीं । ऋग्वैदिक काल में आर्यों का एक अन्य मुख्य व्यवसाय व्यापार था । व्यापार देशी और विदेशी दोनों प्रकार का था । यह जल तथा थल दोनों मार्गों द्वारा होता था । अधिकांश व्यापार वस्तु विनिमय आधार पर होता था । व्यापार के अतिरिक्त आर्य कई अन्य प्रकार के धन्धे भी करते थे । बढ़ई , लौहार , जुलाहे , सुनार , चर्मकार तथा कुम्हार वर्ग अपने – अपने उत्पादों के लिए प्रसिद्ध थे । परिणामस्वरूप लोग आर्थिक रूप से खुशहाल थे ।

IV . धार्मिक जीवन ( Religious Life )

ऋग्वेद के अध्ययन से पता चलता है कि आर्य लोग प्रकृति के उपासक थे । वे सूर्य , वर्षा , पृथ्वी आदि प्राकृतिक शक्तियों की उपासना करते थे । वे अग्नि , आंधी , तूफान आदि की भी स्तुति करते थे ताकि इनके प्रकोपों से बचे रहें । कालान्तर में आर्य प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवता मानकर पूजने लगे । आर्यों का प्रमुख देवता वरुण था । उसे आकाश का देवता माना जाता था । आर्यों (Arya) के अनुसार वरुण समस्त जगत् का पथ – प्रदर्शन करता है । उनका विश्वास था कि वरुण विश्व में घटित होने वाली सभी घटनाओं का ज्ञाता है । आर्यों का दूसरा मुख्य देवता इन्द्र था । वह युद्ध तथा ऋतुओं का देवता था । आर्यों का विश्वास था कि इन्द्र को प्रसन्न करके शत्रुओं पर आसानी से विजय प्राप्त की जा सकती है । ऋग्वेद के एक मन्त्र के अर्थ से यह बात स्पष्ट हो जाती है , ” हे इन्द्र ! हमारे पास लड़ने की पर्याप्त शक्ति है , क्योंकि तुम हमारे रक्षक हो । हम तुम्हारी रक्षा से विजय पाएंगे । ” विपत्तियों को टालने के लिए प्राय : रुद्र की पूजा की जाती थी । ऋग्वैदिक काल में अग्नि को मनुष्य तथा देवताओं के बीच दूत माना जाता था । आर्यों का विश्वास था कि यज्ञ में अर्पित वस्तुएं अग्नि द्वारा देवताओं तक पहुंचती हैं । सूर्य भी आर्यों का प्रमुख देवता था । उसे मित्र , सावितृ आदि अनेक नामों से भी पुकारा जाता था । ऊषा आर्यों की प्रमुख देवी थी । उसे सूर्य की पत्नी समझा जाता था । इसके अतिरिक्त आर्य धरती की देवी पृथ्वी , वन की देवी अरण्यी तथा रात की देवी रात्रि आदि की भी उपासना करते थे । परन्तु आर्य लोग अनेक देवी – देवताओं में विश्वास रखते हुए भी एक ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते थे । वे मानते थे कि ब्रह्माण्ड को चलाने वाला वास्तव में एक ही है । आर्य लोगों ने अपने देवताओं के सम्मान में मन्दिरों तथा मूर्तियों की स्थापना नहीं की हुई थी । वे तो खुली हवा में ही वेद – मन्त्र गाकर देवताओं को प्रसन्न करते थे । मन्त्रों के गायन के लिए पुरोहितों की सहायता भी नहीं ली जाती थी । परिवार के सदस्य ही आपस में मिलकर पूजा – पाठ कर लिया करते थे ।

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