अभित्याग का अर्थ | Abhityag Ka Arth Hindi
अभित्याग ( Descrtion in Hindi )
अभित्याग ( Descrtion ) – अभित्याग की सबसे संक्षिप्त परिभाषा इस प्रकार है “ जब एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को अकारण ही बिना दूसरे की सहमति से स्थायी रूप से त्याग या परित्याग कर देता है तो यह अभित्याग कहलाता है । लाभ कौर बनाम नारायण सिंह के बाद में न्यायालय द्वारा यह निर्णीत किया गया है कि ” अभित्याग का अर्थ विवाह के दूसरे पक्षकार का आशय स्थायी रूप से त्याग देना तथा उसके साथ निवास छोड़ देने का है जो कि बिना उसकी स्वीकृति तथा युक्तियुक्त कारण के होता है । यह वैवाहिक आधारों का पूर्णरूपेण खण्डन है । जहाँ कोई पक्षकार भावावेश अथवा क्रोध में किसी स्थायी भाव के अभाव दूसरे पक्षकार को त्याग देता है वहाँ अभित्याग नहीं माना जायेगा ।
अभित्याग के लिये निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक है
( 1 ) बिना युक्तियुक्त कारण के अभित्याग ।
( 2 ) बिना सहमति के अभित्याग ।
( 3 ) याची ( Petitioner ) की इच्छा के विरुद्ध ।
( 4 ) याची की स्वेच्छापूर्वक उपेक्षा के बिना ।
( 5 ) याचिका देने के समय से पूर्व शीघ्र व्यतीत होने वाले दो वर्ष से होना चाहिए ।
जहाँ पत्नी ने पति की सहमति के बिना घर छोड़ दिया और पति दो वर्ष पूरा होने के पूर्व ही विवाह भंग करने की डिक्री प्राप्त करने के लिए याचिका दायर करता है वहाँ याचिका इस आधार पर खारिज कर दी गई कि पति ने दो वर्ष के भीतर घर लौटने का इन्तजार किए बिना तो याचिका दायर कर दी ? जहाँ अपीलार्थी ने स्वयं एक ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जिसमें प्रत्युत्तरदाता घर छोड़ कर अलग रहने को बाध्य हो गई । वहाँ अपीलार्थी प्रत्युत्तरदाता के विरुद्ध अभित्याग की दलील देकर न्यायिक पृथक्करण का दावा नहीं कर सकता |
अभित्याग आन्वयिक ( Constructive ) भी हो सकता है । आन्वयिक अभित्याग का उस अर्थ में प्रयोग होता है जब विवाह का कोई प्रक्ष दूसरे पक्षकार को घर छोड़ने के लिए बाध्य कर दे तो घर छोड़ने वाला पक्षकार अभित्याग के लिए अपराधी नहीं माना जाता वरन् वह • पक्षकार जिसमें व्यवहार से ऐसा घटित हुआ है , अभित्याग के लिए अपराधी है ।
अभित्याग की समाप्ति — अभित्याग का अपराध निम्न प्रकार से समाप्त किया जा सकता है –
( 1 ) दाम्पत्य जीवन पुनः प्रारम्भ करके ।
( 2 ) मैथुन पुनः आरम्भ करके ।
( 3 ) घर वापस आने की इच्छा व्यक्त करके ।
( 4 ) पुनः मिलन का प्रस्ताव करके ।
( 4 ) शून्य विवाह ( Void Marriage ) – शून्य विवाह , विवाह नहीं है । यह एक ऐसा सम्बन्ध है जो विधि के समक्ष विद्यमान है— इसे विवाह केवल इस कारण से कहते हैं कि दो व्यक्तियों ने विवाह के वे सभी अनुष्ठान पूरे कर लिये हैं जो कि किये जाने चाहिए परन्तु कोई भी व्यक्ति पूर्णतया सामर्थ्यहीन के कारण पति – पत्नी की स्थिति केवल विवाह का अनुष्ठान करके प्राप्त नहीं कर सकता । हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 11 शून्य अथवा प्रभावहीन विवाह के सम्बन्ध में उपबन्धित है । इसमें यह विहित है कि ” यदि धारा 5 के उपखण्ड में 1 , 4 और 5 की शर्तों के प्रतिकूल कोई विवाह हो जो इस अधिनियम के लागू होने के बाद सम्पन्न किया गया हो तो वह विवाह शून्य तथा प्रभावहीन समझा जायेगा और किसी पक्ष के याचिका देने से प्रभावहीन घोषित कर दिया जायेगा । इस प्रकार निम्न विवाह प्रारम्भ से ही निष्प्रभावी समझे जायेंगे –
( i ) यदि किसी भी पक्षकार के विवाह के समय दूसरा पक्षकार जीवित है । [ धारा 5 ( i ) ]
( ii ) यदि पक्षकार वर्जित आस्पद सम्बन्ध के अन्तर्गत आते हैं । किन्तु यदि प्रथा ऐसा करने की अनुमति प्रदान करती है तो यह नियम लागू नहीं होगा । [ धारा 5 ( iv ) ]
( iii ) यदि पक्षकार एक – दूसरे के सपिण्ड हैं परन्तु यदि प्रथा ऐसा करने की अनुमति प्रदान करती है तो यह नियम लागू नहीं होगा । यह धारा तभी लागू होगी जबकि विवाह , अधिनियम 1976 के लागू होने के बाद किया ग़या है । विवाह इस धारा के अन्तर्गत प्रारम्भ से ही शून्य होगा । शून्य विवाह को शून्य करार देने के लिए शून्य घोषित करने की डिक्री की आवश्यकता नहीं है ।
शून्यकरणीय विवाह ( Voidable Marriage ) – शून्यकरणीय विवाह विधि मान्य विवाह है जब तक कि उसके शून्यकरणीय होने की डिक्री न्यायालय द्वारा पारित न कर दी जाये वह वैध और मान्य विवाह रहता है । शून्यकरणीय विवाह , विवाह के पक्षकारों में से किसी भी एक पक्षकार की याचिका द्वारा निर्धारित हो सकती है । यदि उनमें से एक पक्षकार की मृत्यु हो जाये तो उस विवाह की शून्यकरणीय की डिक्री पारित नहीं की जा सकती । यदि विवाह के · दोनों पक्षकार जीवित हैं और वे विवाह के शून्यकरणीय धोषित कराने की कार्यवाही नहीं करते तो विवाह विधि मान्य होगा । शून्यकरणीय विवाह जब तक शून्यकरणीय घोषित नहीं हो जाता तब उसके अन्तर्गत विधिमान्य विवाह की सब संस्थितियाँ और सभी अधिकार और कर्तव्य तथा दायित्व यथावत् रहते हैं । ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्तान वैध होती हैं ।
” कोई भी विवाह चाहे वह अधिनियम के लागू होने के पूर्व या बाद में सम्पन्न किया गया हो
धारा 12 शून्यकरणीय विवाह के सम्बन्ध में उपबन्धित करती है । इस धारा के अनुसार कोई भी विवाह चाहे वह अधिनियम के लागू होने के पूर्व या बाद में सम्पन्न किया गया हो निम्नलिखित आधारों पर शून्यकरणीय समझा जायेगा
( 1 ) यह कि विवाह के समय और उसके बाद भी कार्यवाही प्रारम्भ करने के समय तक प्रत्युत्तरदाता नपुंसक था । विवाह विधि ( संशोधन ) अधिनियम , 1976 के अनुसार शून्यकरणीय विवाह के लिए नपुंसकता को आधार बनाया गया है , किन्तु उसे और भी सरल कर दिया गया है । संशोधन के बाद यदि प्रत्युत्तरदाता की नपुंसकता के कारण विवाह को पूर्णता नहीं दी जा सकी है तो याची विवाह को शून्य घोषित करा सकता है
( 2 ) प्रत्युत्तरदाता का अस्वस्थ मस्तिष्क का होना ।
( 3 ) विवाह के लिए सम्मति प्राप्त करने के लिए बल प्रयोग अथवा वैवाहिक संस्कार के सम्बन्ध में कपट का प्रयोग करके प्रार्थी की सम्पत्ति प्राप्त करना ।
( 4 ) यह कि विवाह के समय प्रत्युत्तरदाता याची के अन्य किसी व्यक्ति के सम्भोग से गर्भवती थी ।
( 5 ) क्रूरता ( Cruelity ) – अभित्याग की भाँति क्रूरता की भी कोई सुव्यवस्थित व्याख्या देना कठिन है । न्यायालयों ने बार – बार कहा है कि क्रूरता का कृत्य और आचरण इतने विभिन्न और अनेक हो सकते हैं कि उन्हें परिभाषा की सीमा परिधि में बाँध पाना असम्भव होगा । रसल बनाम रसल ‘ के बाद में यह कहा गया है कि “ क्रूरता ऐसा आचरण है जिसके द्वारा जीवन , अंग या स्वास्थ्य को शारीरिक या मानसिक चोट पहुँचे या किसी को चोट पहुँचने की सम्भावना हो , इवान्स बनाम इवान्स ‘ के वाद में यह कहा गया है कि क्रूरता का अर्थ है ” जीवन , अंग और । स्वास्थ्य के प्रति खतरा । ” ( C 1963 ) 3 ओल इंग्लैण्ड रिपोर्टस 991 ) तद्नुसार कोई व्यवहार तथा क्रूर कहा जा सकता है जब वह क्षुब्ध पक्षकार के स्वास्थ्य को चोट पहुँचाये और यह चोट गम्भीर हो । भारतीय विधि में क्रूरता स्थापित करने के लिए याचिकाकार को यह सिद्ध करना होगा कि प्रतिपक्षी ने उसके साथ ऐसी क्रूरता का व्यवहार या आचरण किया है कि जिसके कारण उसके मस्तिष्क में यह औचित्यपूर्ण आशंका घर कर गई है कि उसके साथ रहना अपहानिकर या क्षतिकर होगा ।
हिन्दू विधि के अन्तर्गत क्रूरता के संप्रत्यय में सब भाँति की क्रूरता , शारीरिक और मानसिक दोनों ही आ जाती हैं । शारीरिक क्रूरता से आशय ऐसे हिंसापूर्ण कृत्य से है जो विधिक क्रूरता के लिए पर्याप्त हो तथा जो प्रत्येक दशा में पक्षकार की प्रस्थिति के अनुसार बदलती रहती है । जहाँ शारीरिक प्रताड़ना दी गई है अथवा जीवन , स्वास्थ्य अथवा किसी अंग के ख़तरे की युक्तियुक्त आशंका हो , वहाँ क्रूरता का निर्धारण किया जा सकता है । क्रूरता के लिए आवश्यक नहीं है कि वह स्वेच्छा से की गई हो तथा उसके पीछे कोई कारण हो । विलियम्स विलियम्स के वाद में अंग्रेजी न्यायालय ने कहा कि ” करता के आचरण या कृत्य किस हेतु ( कारण ) से किये गये हैं ,
यह जानना आवश्यक नहीं है , हो सकता है वे प्रक्षुब्ध आवेश के कारण किये गये हैं , कभी – कभी उन कारणों से जो प्रेम और स्नेह की रिक्तता को इंगित करता है , कभी – कभी अगाध प्रेम और स्नेह उसका कारण होती है , यदि कटुता का वातावरण हो , तो यह जानना आवश्यक नहीं है कि कटुता का स्रोत क्या है । इस मुकदमे में स्वेच्छा की आवश्यकता को अस्वीकार करते हुए न्यायाधीश रोड ने कहा कि ” उस असामान्य व्यक्ति के विरुद्ध डिक्री पास करना ही औचित्य होगा , इसलिए नहीं कि जो क्षति उसने पहुँचाई है उसका ज्ञान उसे होना चाहिए था , बल्कि इसलिए कि उसका आचरण और कृत्य उसकी असामान्यता को देखते हुए भी , ऐसे थे कि उन्हें क्रूरता की संज्ञा देना ही होगा ।
यह मत हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत आने वाले वादों में व्यक्त किया गया है । भगवन्त विरुद्ध भगवन्त के मामले में एक बार पति ने पत्नी के भाई को गला दबाकर मार डालने का प्रयोग किया तथा दूसरे मौके पर अपने छोटे पुत्र को उसी प्रकार मार डालने क की । न्यायालय के समक्ष यह साबित किया गया कि पति ने यह कार्य पागलपन में किया है । न्यायालय ने कहा कि इस मामले में पति का आचरण ऐसा है कि स्वेच्छा के अभाव में भी वह क्रूरता की संज्ञा में आता है ।
किसी भी व्यक्ति के निम्नलिखित कृत्य क्रूरता की श्रेणी में आते हैं
( 1 ) ऐसा कृत्य जिससे वादी को वास्तविक अथवा आशंकित शारीरिक चोट पहुँचे ।
( 2 ) गाली देना तथा अपमानित करना ।
( 3 ) अतिशय रति संभोग ।
अतिशय रति सम्भोग भी क्रूरता की श्रेणी में आता है क्योंकि इससे मनुष्य के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है ।
( 4 ) उपेक्षा करना ; यदि विवाह के पक्षकारों में से एक दूसरे की उपेक्षा करता है तो यह क्रूरता की श्रेणी में आयेगा ।
( 5 ) रति – जन्य रोग का सन्दर्भ । यदि विवाह के पक्षाकरों में से एक भयंकर रतिजन्य रोग से पीड़ित है तो यह दूसरे पक्ष के प्रति क्रूरता होगी क्योंकि वह सहवास से वंचित हो जायेगा । • यदि सहवास करेगा तो उसे भी बीमारी लगने का भय रहेगा
( 6 ) रति संभोग से अस्वीकृति ।
( 7 ) अति मद्यपान जिससे दूसरे पक्षकार के स्वास्थ्य पर मद्य सेवन के दुष्कृत्यों का प्रभाव पड़ सकता है ।
( 8 ) किसी नैतिक व्यक्ति को साहचर्य के लिए विवश करना ।
( 9 ) पत्नी पर अनैतिकता का निराधार आरोप लगाना । जब पति अपनी पत्नी को अनैतिकता तथा व्यभिचार जैसे गलत दोषों से आरोपित करता है और इन दोषारोपों को जारी रखा है जिससे पत्नी दुखी रहती है तो निश्चित है कि इससे उसके स्वास्थ्य पर बहुत कुछ बुरा प्रभाव पड़ता है और यह बात पत्नी के न्यायिक पृथक्करण की याचिका के लिए पर्याप्त होगी
( 10 ) बच्चों को गम्भीर ताड़ना देना ।
यदि पत्नी किसी भयानक अथवा गम्भीर बीमारी से पीड़ित है और पति उसके साथ संभोग करने से वंचित हो जाता है तो विधि की दृष्टि में यह पति के प्रति विधिक क्रूरता होगी ।