शून्यकरणीय विवाह

शून्यकरणीय विवाह पर एक निबन्ध लिखिए । Write an essay on voidable marriage.

शून्यकरणीय विवाह विधि मान्य विवाह है । जब तक कि उसके शून्यकरणीय होने की डिक्री पारित न कर दी जाये वह वैध और अमान्य रहता है । शून्यकरणीय विवाह जब तक शून्यकरणीय घोषित नहीं हो जाता तब तक उसके अन्तर्गत विधि मान्य विवाह की सब परिस्थितियाँ और सब अधिकार , कर्त्तव्य और दायित्वं जन्म लेते हैं । ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्तान धर्मज होती है ।

हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 12 शून्यकरणीय विवाह के सम्बन्ध में उपबन्धित है । इस धारा के अनुसार , ” कोई भी विवाह चाहे वह अधिनियम में लागू होने से पूर्व या बाद में सम्पन्न किया गया हो , निम्नलिखित आधारों पर शून्यकरणीय समझा जायेगा

( 1 ) नपुंसकता ( Impotency ) – सर्वप्रथम विवाह नपुंसकता के आधार पर शून्यकरणीय करार दिया जा सकता है । विवाह का प्रमुख उद्देश्य सन्तान उत्पन्न करना है जिसके लिए पुंसत्व आवश्यक है । इसलिए हिन्दू विधि में एक नपुंसक का विवाह चाहे वह पुरुष हो या स्त्री पूर्णतया शून्यमाना गया है । से तात्पर्य लैंगिक सम्भोग की अक्षमता से है । यह अक्षमता  शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार की हो सकती है। नपुंसकता स्थायी तथा असाध्य होनी चाहिए। यदि पति-पत्नी के साथ मानसिक कारणों से सम्भोग करना अस्वीकार कर देता है तो वह नपुंसकता माना जायेगा

विवाह के प्रमुख उद्देश्यों में एक उद्देश्य मैथुन द्वारा सुख प्राप्त करना है । यदि एक पक्षकार अपनी नपुंसकता के कारण इसमें असमर्थ है तो दूसरे पक्षकार को इस विवाह बन्धन से मुक्त होने की व्यवस्था होनी चाहिए। इसलिए धारा 12 (1) (क) में यह व्यवस्था दी गई है कि यदि विवाह का पक्षकार नपुंसक है तो दूसरे पक्षकार को यह अधिकार है कि वह न्यायालय में प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत कर विवाह की अकृतता की डिक्री प्राप्त कर ले।” जहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि पति को पत्नी द्वारा पूर्ण अवसर दिये जाने के बाद भी यदि वह सम्भोग के लिए अक्षमता प्रकट करता है तो यह स्थापित होता है कि पति धारा 12 (1) (क) के अर्थ में नपुंसक है।

लैंगिक सम्भोग भी पूर्णतया विवाह का आवश्यक तत्व है। पूर्ण सम्भोग के लिए विवाह के पक्षकारों का सन्तुष्ट होना आवश्यक है। यह बात भिन्न है कि वह सम्भोग से किस सीमा तक सन्तुष्ट होता है। जहाँ जननेन्द्रियाँ दोषयुक्त थीं और उसके साथ सन्तोषजनक रूप से सम्भोग नहीं हो सकता था, न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि याची ऐसी स्थिति में धारा 12 (1) (क) के अधीन डिक्री पाने का अधिकारी था ।

शून्यकरणीय विवाह पर एक निबन्ध लिखिए
शून्यकरणीय विवाह पर एक निबन्ध लिखिए

 

‘ब्रजवल्लभ बनाम सुमित्रा’ में पति ने अपनी पत्नी की नपुंसकता के आधार पर विवाह की अकृतता के लिए याचिक प्रस्तुत किया। साक्ष्य यह था कि विवाह के पश्चात् केवल एक रात्रि भी जिसमें पति ने पत्नी के साथ समागम करने का प्रयत्न किया था किन्तु पत्नी ने जानबूझकर आत्मसमर्पण नहीं किया क्योंकि उसकी इच्छा के विरुद्ध उससे बलपूर्वक विवाह कराया गया था । विवाह होने के शीघ्र पश्चात् वह अपने माता-पिता के घर गई और पति ने समागम करने का दूसरा प्रयत्न नहीं किया था। न्यायालय ने यह विनिश्चय किया कि यह कल्पना नहीं की. जा सकती थी कि पत्नी लैंगिक समागम करने में असमर्थ थी। यह मामला नपुंसकता के स्थान पर अभित्याग का था। अतः पति की याचिका असफल हो गयी ।

(2) विकृत मस्तिष्क (Unsound Mind) – विधि मान्य विवाह की दूसरी शर्त यह है कि विवाह के समय पक्षकार में से कोई चित्त विकृत के परिणामस्वरूप विधि मान्य सम्मति देने ‘में असमर्थ न हो, विधि मान्य सम्मति देने पर भी इस प्रकार के या हद तक मानसिक विकार से ग्रस्त हो कि विवाह और सन्तानोत्पत्ति के अयोग्य हो, अथवा उसे उन्मत्तता तथा मिरगी का दौरा बार-बार पड़ता हो ।

अल्का शर्मा बनाम अभिनेश चन्द्र शर्मा में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह विनिश्चय किया है कि चित्त विकृतता के आरम्भ की दशा में जिसमें व्यक्ति को कुछ भी स्मरण नहीं रहता ऐसी प्रकृति को मानसिक विशृंखलता के आधार का गठन करेगी जो इस धारा के अन्तर्गत अकृतता की अज्ञप्ति स्वीकार करने के लिए पर्याप्त होगी। इस प्रकरण में पत्नी विवाह की प्रथम रात्रि में इतनी ठण्डी अतिशीतल तथा अधीर थी कि वैवाहिक समागम न हो सका। वह घर के उपकरणों का चालन करने में असमर्थ थी तथा परिवार के सभी सदस्यों के सामने पेशाब भी किया था । यह विनिश्चय किया गया कि पत्नी ( Schizobhrenia ) चित्तविकृति के प्रारम्भिक रूप से पीड़ित थी तथा पति विवाह की अकृतता की डिक्री प्राप्त करने का अधिकारी था ।

( 3 ) बल अथवा कपट द्वारा अनुमति ( Consent Ostamed by force or by fraud ) – विवाह को शून्यकरणीय करार देने के लिए तीसरी शर्त विवाह के पक्षकार की सम्मति बल प्रयोग अथवा कपट द्वारा प्राप्त करना है । जहाँ कि सम्मति बल अथवा कपट द्वारा प्राप्त की जाती है वहाँ भी विवाह शून्य करणीय होगा । धारा 12 में सामान्य नियम इस प्रकार दिया गया है कि , “ कोई विवाह डिक्री द्वारा भंग किया जा सकता है यदि विवाह दो दशाओं को छोड़कर बल या कपट द्वारा सम्पन्न किया गया है । ” सामान्य नियम इस प्रकार है

( i ) याची के ऊपर बल का प्रयोग किया गया है या उसके साथ कपटपूर्ण व्यवहार किया गया है ।

( ii ) जहाँ धारा 5 के अन्तर्गत विवाह से संरक्षक की स्वीकृति आवश्यक है तथा इस प्रकार की स्वीकृति बल अथवा कपट द्वारा प्राप्त की गई है । बाल – विवाह निरोधक संशोधन अधिनियम संख्या ( 2 ) 1978 द्वारा यह धारा बदल दी गई है ।

अपवाद – किन्तु कोई भी याचिका विवाह को भंग करने के लिए बल अथवा कपट द्वारा सम्पत्ति प्रदान करने के आधार पर मंजूर नहीं की जायेगी यदि –

( i ) यथास्थित बल प्रयोग समाप्त हो जाने अथवा कपट का पता चल जाने के एक वर्ष की अवधि के बाद याचिका प्रस्तुत की गई है । धारा 12 ( 2 ) ( क ) ( i ) |

( ii ) यथास्थित बल प्रयोग समाप्त हो जाने अथवा कपट का पता चल जाने के पश्चात् याची पति अथवा पत्नी के रूप में अपनी पूर्ण सहमति के साथ रह रहा हो । ( धारा 12 ( 2 ) ( क ) ( 2 ) |

बाल – विवाह ( संशोधन ) अधिनियम , 1978 के बाद कन्या के वैध विवाह के लिए उसकी आयु 18 वर्ष होनी चाहिए । धारा 12 ( क ) के अन्तर्गत अब विवाह बल प्रयोग अथवा कपटपूर्ण सहमति के आधार पर तभी शून्य घोषित करवाया जा सकता है जब इस प्रकार की सहमति उपयुक्त 1978 के अधिनियम के पूर्व ली गई हो ।

कपटपूर्ण सहमति प्राप्त करने का तात्पर्य यह है कि प्रत्युत्तर दाता के सम्बन्ध में गलत बातें कहकर अथवा आवश्यक बातों को गोपनीय रखकर अथवा याची को अन्य किसी प्रकार : से धोखा देकर सम्मति प्राप्त की गई है । राजिन्दर सिंह बनाम श्रीमती प्रमिला के मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पति ने पहले सम्पन्न हुए अपने विवाह की बात छिपाई है और पत्नी के पिता द्वारा विवाह में किये गये विज्ञापन के उत्तर में अपनी वैवाहिक स्थिति अथवा अपने पूर्व विवाह के तलाक की बात छिपाई हो वहाँ पत्नी इस बात पर धारा 12 ( 1 ) ( सी ) के अन्तर्गत विवाह की अकृत डिक्री प्राप्त कर सकती है क्योंकि वैवाहिक स्थिति का छिपाया जाना दूसरे पक्षकार को विवाह के लिए निर्णय लेने में एक महत्वपूर्ण विचरण हो सकता है ।

किसी बीमारी को छिपाने मात्र से विवाह को रद्द कराने का अधिकार उत्पन्न नहीं हो पाता , जब तक बीमारी इस प्रकार की न हो जो धारा 13 के अन्तर्गत आती हो । जहाँ यह तथ्य छिपाया गया हो कि लघु यक्षमा की व्याधि से पीड़ित रही है , वह विवाह को रद्द करने के लिए पर्याप्त न होगा |

पत्नी का अन्य व्यक्ति के सम्भोग से गर्भवती होना ( Pregnancy of wife by another person ) – धारा 12 ( 1 – d ) के अनुसार यदि कोई पत्नी किसी अन्य व्यक्ति के सम्भोग से गर्भवती है तो विवाह को अकृत घोषित करवाया जा सकता है । पत्नी के गर्भवती होने के आधार पर विवाह की अकृतता की डिक्री प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित शर्तों का पूरा किया जाना चाहिए । –

( 1 ) प्रत्यर्थी विवाह के समय गर्भवती थी ।

( 2 ) प्रत्यर्थी याची से भिन्न किसी अन्य व्यक्ति से गर्भवती थी ।

( 3 ) याची विवाह के समय प्रत्यर्थी के गर्भवती होने के तथ्य से अनभिज्ञ था ।

( 4 ) यदि अकृतता ( समाप्ति ) के लिए आवेदन हिन्दू विवाह अधिनियम प्रारम्भ होने के पूर्व अनुष्ठापित ( Solmendsed ) विवाह के लिए है तो अधिनियम के प्रारम्भ 1 वर्ष के भीतर और अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात अनुष्ठापित विवाहों की दशा में विवाह की तारीख से 1 वर्ष के भीतर कार्यवाही संस्थित की जानी चाहिए ।

( 5 ) प्रत्यर्थी के गर्भवती होने का ज्ञान याची को हो जाने के पश्चात् उसकी सम्मति से वैवाहिक सम्भोग नहीं हुआ है । यदि याची ने प्रत्युत्तरदाता को क्षमा कर दिया है और उसे पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया हो तो विवाह की अकृतता का प्रार्थना पत्र स्वीकार नहीं किया जायेगा ।

यदि पाँच में से एक शर्त स्वीकार नहीं हो पाती तो विवाह को शून्यीकरणीयता के पर भंग नहीं किया जा सकता और विवाह सदैव के लिए विधिमान्य बना रहेगा ।.

हिन्दू – विवाह अधिनियम, 1955 में शून्य और शून्यकरणीय विवाहों से उत्पन्न सन्तानों की वैधता के सम्बन्ध में क्या प्रावधान उत्पन्न किये गये हैं ।

शून्य और शून्यकरणीय विवाहों से उत्पन्न सन्तानों की वैधता ( Legitimacy of children begotten of void and voidable Marriages ) – विधि की प्रवृत्ति वैधता के पक्ष में होती है अर्थात् विधि यथासम्मत वैधता प्रदान करने की ओर उन्मुख होती है कि कारण यह है कि समाज में जारजा को बहुत बड़ा कलंक माना गया है । इससे उत्पन्न सन्तान अर्धमज होती है तथा इसको वे सभी अधिकार प्राप्त नहीं होते जो सन्तान को होते हैं ।

जारज सन्तान को बिना किसी दोष के कष्ट सहने पड़ते हैं । इसलिए विधि की उपधारणा वैधता के सम्बन्ध में होती है । अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति जब तक वह जारज निषिद्ध कर दिया जाए औरस माना जाता है । विधि के इस सामान्य सिद्धान्त को ध्यान में रख कर धारा 16 के अन्तर्गत शून्य करणीय विवाहों से उत्पन्न सन्तानों की औरसता के सम्बन्ध में प्रावधान उपबन्धित किये गये हैं ।

( 1 ) हिन्दू विवाह कि विवाह धारा 16  ( 1 ) के अनुसार , ऐसे विवाहों “ इस बात के होते हुए  भी  विवहा की धारा 11  के अधीन  अकृत और शून्य हैसे उत्पन्न सन्तान भी वैध होगी , यदि वह उस समय पैदा होती जब विवाह वैध हुआ होता , चाहे वह सन्तान विवाह विधियाँ ( संशोधन ) अधिनियम , 1976 के लागू होने से पूर्व या बाद में उत्पन्न होती है और चाहे उस विवाह के सम्बन्ध में अकृतता की डिक्री इस अधिनियम के अधीन मंजूर की गई हो या नहीं और चाहे वह विवाह इस अधिनियम के अधीन याचिका से भिन्न आधार पर शून्य अभिनिर्धारित किया गया है या नहीं ।

” इस धारा में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि चाहे उस विवाह के सम्बन्ध में अकृतता की डिक्री इस अधिनियम के अधीन अथवा अन्य प्रकार से मंजूर की गई हो या नहीं , सन्तान वैध मानी जाती है ।

उपधारा 2- शून्यकरणीय विवाह की सन्तान की वैधता के सम्बन्ध में धारा 16 ( 2 ) में उपबन्ध किया गया है । इसके अनुसार , “ जहाँ धारा 12 के अधीन शून्यकरणीय विवाह के सम्बन्ध में अकृतता की डिक्री मंजूर की जाती है , वहाँ यदि कोई सन्तान डिक्री पारित किये जाने के पहले ही उत्पन्न हो जाती हैं या गर्भ में आ जाती है , जो दिवाह के पक्षकारों की वैध सन्तान उस समय हुई होती जब डिक्री की तारीख पर वह विवाह अकृत किये जाने के बजाए विघटित किया गया होता  तो वह अकृतता की डिक्की के होते हुए भी वैध मानी जायेगी । ” शून्यकरणीय विवाह के सम्बन्ध में सन्तानों की वैधता का प्रश्न विवाह को अकृत घोषित किये जाने के पश्चात् ही उठता है । औरसता किसे कहते हैं , यह अधनियम में कहीं भी नहीं दिया गया है । इसलिए इस सम्बन्ध में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 में दिया गया नियम लागू होगा जो इस प्रकार है

“ विवाहित स्थिति के दौरान में जन्म होना औरसता का निश्चयात्मक सबूत है यह तथ्य कि किसी व्यक्ति का जन्म उसकी माता और किसी पुरुष के बीच एक मान्य विवाह के कायम रहते हुए उसके विघटन होने के उपरान्त माता के विवाहित रहते हुए दो सौ अस्सी ( 280 ) दिनों के भीतर हुआ था इस बात का निश्चयात्मक सबूत होगा कि वह उस पुरुष का धर्मज पुत्र है , जब तक कि यह दर्शित न किया जा सके कि पक्षकारों का परस्पर सम्पर्क ऐसे किसी समय नहीं हुआ जब उसका गर्भाधान किया जा सकता था ।

” संसद में उपर्युक्त उपबन्ध कहता है कि , “ विवाह- काल तथा पति की मृत्यु के दो सौं अस्सी दिनों के भीतर ( यदि माता इस बीच दूसरा विवाह नहीं करती ) पैदा हुई सन्तान वैध मानी • जायेगी किन्तु यदि यह साबित कर दिया जाए कि उस समय जबकि सन्तान उसके गर्भ में आयी होगी पति का पत्नी के पास अधिगमन नहीं था , वह सन्तान वैध नहीं होगी

धारा 16 की उपधारा ( 3 ) उपबन्धित करता है कि , “ उपधारा ( 1 ) या उपधारा ( 2 ) की किसी बात को यह अर्थ नहीं लगाया जायेगा कि वह उस विवाह में अकृत और शून्य है या जिसमें धारा 12 के अन्तर्गत अकृतता की आज्ञप्ति द्वारा कृत कर दिया जाता है , उत्पन्न किसी सन्तान को अपने माता – पिता ने अन्य किसी और व्यक्ति की सम्पत्ति में कोई अधिकार किसी ऐसे मामले में प्रदान करती है , जिसमें इस अधिनियम के पारित होने के सिवाय , यह सन्तान अपने माता – पिता की वैध सन्तान न होने के कारण वैध कोई अधिकार प्राप्त करने के अयोग्य हुई होती । ”

इस प्रावधान का तात्पर्य यह है कि शून्य तथा शून्यकरणीय विवाहों से उत्पन्न सन्तान केवल अपने माता – पिता की सम्पत्ति में ही हिस्सा प्राप्त करेगी । किसी अन्य व्यक्ति की सम्पत्ति में हिस्सा प्राप्त नहीं करेगी ।

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