अवयस्क, संरक्षक तथा एक हिन्दू अवयस्क के प्राकृतिक संरक्षक की परिभाषा बताइए
अवयस्क , संरक्षक तथा एक हिन्दू अवयस्क के प्राकृतिक संरक्षक की परिभाषा बताइए | Define the terms Minor , Guardian and Natural Guardian.
अवयस्क ( Minor ) – हिन्दू अवयस्क एवं संरक्षक अधिनियम 1956 की धारा 4 के अन्तर्गत अवयस्क की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है — “ अवयस्क का तात्पर्य उन व्यक्तियों से होगा जिन्होंने 18 वर्ष की आयु पूरी नहीं की है । अतः इस अधिनियम के अन्तर्गत वे सभी व्यक्ति जिन्होंने 18 वर्ष की आयु पूर्ण नहीं की है , अवयस्क कहलायेंगे । अधिनियम के द्वारा उल्लिखित नियम विवाह को छोड़कर अवयस्कता तथा संरक्षकता सम्बन्धी सभी मामलों में अनुवर्तनीय होगा ।
अधिनियम की धारा 4 के अनुसार “ अवयस्कता 18 वर्ष की आयु में समाप्त हो जायेगी , का नियम सभी दशाओं में लागू होगा ।
संरक्षक ( Guardian ) – संरक्षक से तात्पर्य है , ” उन व्यक्तियों से जो दूसरों के शरीर या सम्पत्ति की या शरीर और सम्पत्ति दोनों की देखभाल का दायित्व रखते हैं । हिन्दू विधि के अनुसार सिद्धान्ततः एवं मूलतः राजा समस्त अवयस्कों का संरक्षक होता है किन्तु वह स्वयं इस कार्य को सम्पादित नहीं कर सकता है । अतएव वह इसे अवयस्क के हित में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को सौंपता है जो प्रतिनिधि के रूप में इस कार्य को करते हैं । उनके द्वारा कार्य सुचारु रूप से न किये जाने पर राजा ( राज्य ) कभी भी हस्तक्षेप कर सकता है हिन्दू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम , 1956 की धारा 4 के अन्तर्गत संरक्षक की परिभाषा इस प्रकार दी ।
संरक्षक से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जो अवयस्क के शरीर की या उसकी सम्पत्ति की या उसके शरीर एवं सम्पत्ति दोनों की देखभाल करता है । ” इसमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं
( 1 ) प्राकृतिक संरक्षक ।
( 2 ) अवयस्क के पिता और पिता के इच्छा – पत्र द्वारा नियुक्त संरक्षक ।
( 3 ) न्यायालय द्वारा घोषित या नियुक्त संरक्षक ।
( 4 ) कोर्ट ऑफ बार्ड्स से सम्बद्ध किसी अधिनियम के द्वारा या अन्तर्गत इस रूप में कार्य करने के लिए अधिकृत व्यक्ति ।
इस प्रकार हिन्दू अवयस्कता एवं संरक्षकता अधिनियम , 1956 की धारा 5 निम्नलिखित तीन प्रकार के संरक्षक कहलाती है
( i ) प्राकृतिक संरक्षक ,
( ii ) वसीयती संरक्षक और
( iii ) न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक ।
( i ) प्राकृतिक संरक्षक ( Natural Guardian ) – प्राकृतिक संरक्षक वह है जो अवयस्क से प्राकृतिक रूप से सम्बन्धित होने के कारण संरक्षक बन जाता है । दूसरे शब्दों में , हम कह सकते हैं कि “प्राकृतिक संरक्षक वह व्यक्ति होता हैं जो अवयस्क से प्राकृतिक या अन्य किसी रूप से सम्बन्धित होने के कारण उसके शरीर या सम्पत्ति या दोनों की देखभाल का दायित्व अपने ऊपर लेता है ।” विधि के अन्तर्गत केवल निम्नलिखित को प्राकृतिक संरक्षक माना गया है-
(1) पिता, (2) माता, (3) पति ।
(1) पिता – पिता को अपने अवयस्क पुत्र के संरक्षक होने का सर्वप्रथम अधिकार प्राप्त है। पिता के संरक्षक का कार्य करने में सक्षम और समर्थ रहने पर कोई पिता केवल इस आधार पर कि उसका जाति से बहिष्कार कर सकता है, कोई भी उसने धर्म परिवर्तन कर लिया है अथवा उसने पुनर्विचार कर लिया है या वह अनैतिक जीवन बिता रहा है, स्वतः से अपने संरक्षकता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। वह अपने इस स्थान से तभी च्युत किया जा सकता है जब यह स्पष्टतः सिद्ध कर दिया जाये कि उसका संरक्षक बना रहना अवयस्क के हित नहीं है।
पिता तथा माता के संरक्षक की पृष्ठभूमि में यह प्रश्न उठा कि क्या एक पिता जो सब भाँति से पुत्र का पालन करने के योग्य है, पुत्र का पालन-पोषण नहीं करता, उसका अभिरक्षण नहीं करता तथा नितान्त अक्रियाशील है, अपने अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक कहलायेगा जबकि इसके विपरीत माता उसकी देखभाल तथा लालन-पालन भली-भाँति कर रही है, उनकी प्राकृतिक संरक्षक होगी । इसका उत्तर जीजाबाई बनाम पठान’ के वाद में न्यायाधीश वैद्यलिंगम ने दिया है कि मामले के विशेष तथ्यों को देखते हुए माता को अपने अवयस्कों का प्राकृतिक संरक्षक माना जा सकता है। इस वाद के तथ्य इस प्रकार थे – एक अवयस्क के माता-पिता आपसी मनमुटाव के कारण 20 वर्ष से अलग रह रहे थे ।
इस काल में माता ही पुत्री की देखभाल तथा लालन-पालन कर रही थी और वही पुत्री की सम्पत्ति की वस्तुतः प्रबन्धक थी । पुत्री रहती थी माता के पास । पिता पुत्री की देखभाल से बिल्कुल उदासीन था। न्यायालय ने निर्णय में कहा कि “ऐसी स्थिति में प्राकृतिक संरक्षक की समस्त शक्तियाँ और अधिकारों का प्रयोग माता प्राकृतिक संरक्षक की तरह कर सकती है ।’
श्रीमती मंजू तिवारी बनाम डॉ. राजेन्द्र तिवारी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निरूपित किया है कि साधारणतया पाँच वर्ष की कन्या का संरक्षक उसकी माता होगी। इस प्रकार पाँच वर्ष तक की संतान अपनी माता की अभिरक्षा में रहेगी यदि माता के साथ रहना उसके हित में न हो ।
मद्रास उच्च न्यायालय ने एन. पलानी स्वामी बनाम ए. पलानी स्वामी के वाद में यह संप्रेषित किया कि पिता का नैसर्गिक संरक्षक का अधिकार पितामह एवं नाना से कहीं अधिक श्रेष्ठकर है । माता पिता के अभाव में हिन्दू पाठ्यग्रन्थों में अनेक संरक्षकों की सूची क्रम से दी गई थी। जैसे ज्येष्ठ भाई, ज्येष्ठ चचेरा भाई, व्यक्तिगत सम्बन्धी, इन सबके अभाव में मातृपक्ष के सम्बन्धी | किन्तु इन सब सम्बन्धियों के संरक्षकता सम्बन्धी अधिकार माता-पिता की तरह असीम नहीं थे, क्योंकि इस कोटि के समस्त संरक्षकों को न्यायालय से अनुमति लेनी पड़ती थी ।
डी. राजैयाट बनाम धनपाल के प्रकरण में मद्रास उच्च न्यायालय ने यह विनिश्चय किया. है कि हिन्दू विधि का यह नियम है कि पिता के अतिरिक्त कोई नहीं और उसके अतरिक्त न रहने पर माता एक अवयस्क हिन्दू पुत्री के ऊपर संरक्षकता और अभिरक्षा का पूर्ण अधिकार रखती है । हिन्दू विधि सर्वप्रथम पिता को अपनी अवयस्क पुत्री के विधिक संरक्षक तथा अभिरक्षक के रूप में स्वीकृति देती है जबकि वह जीवित है । पिता के न होने पर माता प्रकट होती है और केवल ऐसी आकस्मिकता की अवस्था में ही उसे ऐसी संरक्षकता तथा अभिरक्षा ग्रहण करनी चाहिए ।
( 2 ) माता – अवयस्क की संरक्षकता के लिए पिता के पश्चात् माता का स्थान हिन्दू अवयस्कता की संरक्षकता अधिनियम की धारा 6 ( क ) के अनुसार सामान्यतः पाँच वर्ष तक की आयु के अवयस्क की अभिरक्षा माता में निहित रहती है । माता अपने अवयस्क सन्तान की संरक्षक पिता के न रहने पर अथवा उसके अक्षम या असमर्थ रहने पर ही हो सकती थी । अवैध सन्तानों की संरक्षकता पिता की अपेक्षा माता में रहती है किन्तु यदि न्यायालय ऐसे अवयस्क पुत्रों के हित की दृष्टि से यह उचित समझता है कि वे माता की संरक्षकता में न रखे जाएँ तो उस दशा में माता की संरक्षकता से हटा लिये जायेंगे । माता का अवयस्क सन्तान का संरक्षक होने के अधिकार पिता की ही भाँति है । उसका पुनर्विवाह अथवा धर्म परिवर्तन हो जाना स्वतः से • ही उसे संरक्षक के अधिकार से च्युत नहीं कर सकता है , किन्तु यदि विधवा माता ने किसी अन्य धर्मावलम्बी से विवाह कर लिया है तो वह अपने हिन्दू पति सन्तानों की संरक्षक नहीं रह सकती है क्योंकि वहाँ वे हिन्दू धर्म की परम्परा के अनुसार उसका लालन – पालन नहीं कर सकते हैं ।
सौतेले माता पिता न ही प्राकृतिक संरक्षक हैं और न ही वे अन्य किसी भाँति से संरक्षक हो सकते हैं जब तक कि न्यायालय उन्हें विधि संरक्षक न नियुक्त कर दे । उस स्थिति में वे न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक रह जायेंगे ।
( 3 ) पति – पति अपनी अवयस्क पत्नी के शरीर तथा सम्पत्ति का संरक्षक होता है । विवाह के पश्चात् पत्नी की संरक्षकता चाहे वह कितनी ही आयु की क्यों न हो माता – पिता के हट कर पति के पास चली जाती है । अवयस्क पति संरक्षकता विधि के अन्तर्गत पत्नी का प्राकृतिक संरक्षक है , परन्तु उसकी संरक्षकता धारा 13 के अन्तर्गत पत्नी के कल्याण के अधीनस्थ है । जहाँ अवयस्क पत्नी के पति की मृत्यु हो जाये वहाँ पति के परिवार वालों को . पत्नी के पिता के परिवार के सम्बन्धियों के समक्ष प्राथमिकता मिलती है , किन्तु अवयस्क विधवा पुत्री के हितों को ध्यान में रखते हुए पिता को उस विधवा पुत्री का संरक्षक नियुक्त किया जा सकता है ।
अधिनियम के अन्तर्गत प्राकृतिक संरक्षक – हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम , 1956 की धारा 6 के अन्तर्गत संरक्षकों की सूची दी गई है जिन्हें अवयस्क की सम्पत्ति तथा शरीर के सम्बन्ध में प्राकृतिक संरक्षक माना जाता है । धारा 6 उपस्थित करती है कि हिन्दू अवयस्क के शरीर के बारे में और ( अविभक्त परिवार की सम्पत्ति में उसके अविभक्त हित से छोड़कर ) उसकी सम्पत्ति के बारे में निम्नलिखित प्राकृतिक संरक्षक है
( क ) किसी लड़के या अविवाहित लड़की की दशा में पिता और उसके पश्चात् माता , परन्तु जिस अवयस्क ने पाँच वर्ष की आयु पूरी न कर ली हो उसकी अभिरक्षा कानूनी तौर पर माता के हाथ में होगी
( ख ) अधर्मज लड़के या अधर्मज अविवाहित लड़की की दशा में माता और उसके पश्चात् पिता , तथा
( ग ) विवाहित लड़की की दशा में पति ।
परन्तु कोई भी व्यक्ति यदि—
( i ) वह हिन्दू न रह गया है या
( ख ) वह वानप्रस्थ या पति संन्यासी होकर संसार को पूर्णत : और अन्तिम रूप से त्याग चुका है |
तो इस धारा के अन्तर्गत अवयस्क के प्राकृतिक संरक्षक के रूप में कार्य करने का हकदार न होगा ।
स्पष्टीकरण – इस धारा में ‘ पिता ‘ और ‘ माता ‘ पक्षों के अन्तर्गत सौतेले पिता और सौतेली . माता नहीं आते ।
सोमादेई बनाम भीमा तथा अन्य के वाद में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने यह कहा है कि अवयस्क का पिता उसका स्वाभाविक संरक्षक है । अवयस्क जो पाँच वर्ष से अधिक उम्र का रहा है और माता के साथ रहा है , पिता की संरक्षकता में माना जायेगा । उसकी माता अनन्य मित्र ( Next friend ) के रूप में प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती । केवल उसके पिता को ही उसके विरुद्ध किसी वाद में प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है । संरक्षण का प्रथम अधिकार पिता को दिया गया है ।
जब तक पिता जीवित रहता है , माता अवयस्क की प्राकृतिक संरक्षिका नहीं हो सकती और यदि पिता संरक्षक होने से अस्वीकार करता है अथवा प्राकृतिक संरक्षक के रूप में दायित्वों के निर्वाह में असावधानी करता है तब उस दशा में माता अवयस्क के संरक्षक होने की शक्तियों को प्राप्त करने के लिए विधिक कार्यवाहियाँ अपना सकती है ।
इस बात का समर्थन केरल उच्च न्यायालय ने पी . टी . चाचू चेत्तिदार बनाम करियत कुन्नूमल कानारन के वाद में किया । न्यायालय के अनुसार अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक उसका पिता होगा , यदि वह जीवित है । यदि पिता निर्योग्य हो गया है अथवा मर चुका है तभी माता प्राकृतिक संरक्षकता का अधिकार प्राप्त करती है । पिता के जीवन काल में यदि वह किसी प्रकार के निर्योग्यता का शिकर नहीं है तो माता को पिता के अधिकार में हस्तक्षेप करने की क्षमता नहीं होती । पिता के जीवन – काल में अवयस्क की सम्पत्ति का माता द्वारा अन्य संक्रमित किया जाना अनाधिकृत एवं शून्य होता है ।