मौर्य शासन प्रबन्ध -Administration of the Mauryas

 मौर्यकालीन शासन प्रबन्ध – मौर्य शासक न केवल महान् विजेता थे अपितु उच्चकोटि के शासन प्रबन्धक भी थे । उनके प्रशासन का मुख्य उद्देश्य प्रजा की भलाई था । उनका शासन प्रबन्ध इतना अच्छा था कि यह आने वाली कई शताब्दियों तक थोड़े – बहुत परिवर्तनों से जारी रहा । संक्षेप में मौर्य शासन प्रबन्ध की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित थीं I.

केन्द्रीय प्रशासन-Central Administration

1. राजा-King– राजा केन्द्रीय शासन का मुखिया था । उसकी शक्तियां असीम थीं । वह राज्य का सबसे बड़ा सैनिक अधिकारी , प्रमुख न्यायाधीश तथा सर्वोच्च कानून – निर्माता था । राज्य के सभी विषयों में उसका निर्णय अन्तिम माना जाता था । वह स्वयं कानून बनाता था और सभी कानून उसी के नाम पर ही लागू होते थे । कोई भी व्यक्ति उसके कानूनों का उल्लंघन नहीं कर सकता था । राज्य के सभी उच्च अधिकारियों तथा कर्मचारियों की नियुक्ति वह स्वयं करता था । वह जब चाहे उन्हें हटा भी सकता था । वह विदेशों में अपने राजदूत भेजता था और अपने दरबार में आने वाले विदेशी राजदूतों से भेंट करता था । वह युद्ध के समय अपनी सेना का नेतृत्व करता था ।

मौर्य शासन प्रबन्ध

वह राज दरबार में बैठकर बड़े – बड़े मुकद्दमे सुनता था और उनके विषय में अपना निर्णय सुनाता था । वह पूरे राजकोष का स्वामी था । राज्य की सारी आय – व्यय का ब्यौरा उसके सामने पेश किया जाता था । परन्तु इन असीम अधिकारों के होते हुए भी राजा सदा प्रजा की भलाई के लिए तैयार रहता था । उसका एकमात्र उद्देश्य प्रजा की भलाई करना था । मैगस्थनीज के अनुसार , “ राजा दिन को नहीं सोता और सारा दिन दरबार में प्रजा के कार्य में लगा रहता है । यहां तक कि शरीर पर मालिश करवाते समय भी वह कार्य में जुटा रहता है । उसके महल के द्वार प्रजा के लिए सदा खुले रहते हैं , चाहे वह उस समय बालों में कंघी ही क्यों न करवा रहा हो । 

2. उच्च अधिकारी- High Officials— मन्त्रियों के अतिरिक्त मौर्य साम्राज्य में कई अन्य उच्च अधिकारी भी होते थे । इन्हें तीर्थ अथवा आमात्य अथवा अध्यक्ष कहा जाता था । इनमें कोषाध्यक्ष खजाने का प्रधान था । खानाध्यक्ष खानों का प्रधान होता था । सुवर्णाध्यक्ष आभूषणों के निर्माण का अध्यक्ष था । गणिकाध्यक्ष वेश्याओं पर नियन्त्रण रखता था । देवताध्यक्ष मन्दिरों का अध्यक्ष था ।

3. मन्त्रिपरिषद्-Council of Ministers– कौटिल्य के अनुसार अकेला राजा एक पहिए वाले रथ के समान है । जिस प्रकार रथ चलाने के लिए दूसरे पहिए की आवश्यकता होती है , उसी प्रकार राज्य कार्यों को चलाने के लिए मन्त्रिपरिषद् बहुत आवश्यक है । इसी बात को ध्यान में रखते हुए चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था की जो शासन कार्यों में उसे सलाह देती थी । मन्त्रियों की संख्या 12 से 20 तक थी । प्रत्येक मन्त्री को 12,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था । राजा के लिए उनके निर्णयों को मानना अनिवार्य नहीं था । मौर्यकालीन प्रसिद्ध केन्द्रीय मन्त्री निम्नलिखित थे

  1.  प्रधानमन्त्री – राजा के पश्चात् प्रधानमन्त्री का स्थान था । वह शासन के सभी कार्यों में राजा को सलाह देता था । वह प्रत्येक विभाग के कार्यों का निरीक्षण भी करता था ।
  2. पुरोहित – पुरोहित धार्मिक कार्यों का मन्त्री था । राज दरबार में उसका बड़ा मान था । इसका प्रमाण हमें कौटिल्य के इन शब्दों में मिलता है , “ राजा को पुरोहित का वैसे ही अनुकरण करना चाहिए , जैसे पुत्र पिता का , शिष्य गुरु का तथा दास स्वामी का करता है ।
  3. सेनापति – सेनापति साम्राज्य की सेना का मुखिया होता था । वह राजा को सैनिक संगठन , युद्ध तथा सन्धि आदि विषयों पर परामर्श देता था ।
  4. समाहर्ता– समाहर्ता आर्थिक विषयों का मन्त्री होता था । वह राज्य के सभी करों को एकत्रित करता था और राज्य की आय – व्यय का ब्यौरा रखता था ।
  5. सन्निधाता – सन्निधाता राज्य का कोष मन्त्री होता था । आय – व्यय का हिसाब – किताब रखना तथा शाही गोदामों , जेलों आदि का निरीक्षण करना उसके मुख्य कर्त्तव्य थे ।
  6. दौवारिक – दौवारिक राजमहल के कार्यों का मन्त्री था ।
  7. कार्मान्तिक – कार्मान्तिक कारखानों का निरीक्षण तथा संचालन करता था ।
  8. अन्तपाल – अन्तपाल सीमान्त प्रदेशों में बने दुर्गों तथा छावनियों की देखभाल करता था ।
  9. दुर्गपाल – दुर्गपाल राज्य के भीतरी भागों में बने दुर्गों तथा शाही महलों की देखभाल करता था ।
  10. दण्डपाल– दण्डपाल पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी था ।
  11. प्रशास्ता – प्रशास्ता रिकार्ड विभाग का मन्त्री था ।

II . प्रान्तीय शासन ( Provincial Administration )

शासन कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए साम्राज्य को चार प्रान्तों में विभक्त किया हुआ था- मगध प्रान्त , उत्तर – पश्चिमी प्रान्त , पश्चिमी प्रान्त तथा दक्षिणी प्रान्त चन्द्रगुप्त के बाद सम्राट् अशोक ने कलिंग विजय के पश्चात् उसे मौर्य साम्राज्य का पांचवां प्रान्त बनाया । इस प्रकार उसके समय में प्रान्तों की संख्या पांच हो गई । इन प्रान्तों का संक्षिप्त वर्णन अग्रलिखित है

मौर्य शासन प्रबन्ध

  1.  मगध प्रान्त – इस प्रान्त का शासन सीधा राजा के अधीन था । इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी जो केन्द्रीय राजधानी भी थी । इसमें आधुनिक उत्तर प्रदेश , बंगाल , बिहार तथा उड़ीसा के प्रदेश सम्मिलित थे ।
  2. उत्तरी – पश्चिमी प्रान्त – इस प्रान्त में आधुनिक अफ़गानिस्तान , बिलोचिस्तान , पंजाब , सिन्ध आदि प्रदेश सम्मिलित थे । इसकी राजधानी तक्षशिला थी ।
  3. पश्चिमी प्रान्त – इस प्रान्त में आधुनिक गुजरात तथा मालवा के प्रदेश सम्मिलित थे । इस प्रान्त की राजधानी उज्जैन थी ।
  4. दक्षिणी प्रान्त – दक्षिणी प्रान्त में विन्ध्याचल पर्वत से उत्तरी मैसूर तक का प्रदेश शामिल था । इसकी राजधानी सुवर्णगिरी थी ।

प्रान्त का शासक किसी राजकुमार को बनाया जाता था । उसे कुमार कहते थे । अपने प्रान्त में राजा के आदेशों को मनवाना , शान्ति की व्यवस्था बनाए रखना , युद्ध के समय राजा को सैनिक सहायता प्रदान करना , कर वसूल करना , न्याय सम्बन्धी कार्य करना तथा प्रजा के हितों की ओर ध्यान देना उसके मुख्य कर्त्तव्य थे । उसकी सहायता के लिए कई अन्य अधिकारी भी होते थे । प्रान्तीय कर्मचारियों की गतिविधियों की निगरानी के लिए सम्राट् ने प्रत्येक प्रान्त में गुप्तचरों की व्यवस्था भी की हुई थी । इस प्रकार प्रान्तीय प्रशासन केन्द्रीय शासन का ही प्रतिरूप था । डॉक्टर जी ० एम ० बोनगार्ड लेविन के अनुसार , ” प्रान्तीय प्रशासन इस ढंग से चलाया जाता था ताकि पुरानी परम्पराओं तथा संस्थाओं का सम्मान किया जा सके ।

III . नगर प्रशासन ( Municipal Administration )

मौर्य काल में नगरों के प्रशासन का विशेष प्रबन्ध किया गया था । नगर का प्रबन्ध नगर अध्यक्ष करता था । उसके मुख्य कार्य नगर में शान्ति व्यवस्था बनाये रखना तथा शिक्षा का प्रबन्ध करना था । नगर अध्यक्ष की सहायता के लिए ‘ स्थानिक ‘ तथा ‘ गोप ‘ नामक दो कर्मचारी होते थे । कौटिल्य के अनुसार ‘ स्थानिक ‘ नगर के एक – चौथाई भाग की देख – रेख करता था , जबकि ‘ गोप ‘ के अधीन केवल 80 घर ही होते थे । पाटलिपुत्र , तक्षशिला तथा उज्जैन जैसे बड़े – बड़े नगरों के प्रबन्ध के लिए परिषदें स्थापित की गई थीं । ये परिषदें आज को नगरपालिका को भान्ति होती थीं । प्रत्येक परिषद् में 30 सदस्य होते थे । परिषद् आगे 6 समितियों में विभाजित थी । प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे । इन समितियों का वर्णन इस प्रकार है –

  1. शिल्प कला समिति – यह समिति नगर के विभिन्न उद्योगों तथा शिल्पकलाओं की देख – रेख करती थी । यह शिल्पकारों के वेतन निश्चित करती और उन्हें क्षति पहुंचाने वालों को दण्ड देती थी । यह समिति इस बात का भी ध्यान रखती थी कि वस्तुओं के निर्माण में उचित सामग्री का प्रयोग हो ।
  2. विदेशी यात्री समिति — यह समिति विदेशियों के हितों और उनकी गतिविधियों पर नज़र रखती थी । यह उनके आवास , भोजन तथा चिकित्सा का भी प्रवन्ध करती थी । विदेशियों के जीवन तथा सम्पत्ति की रक्षा करना भी इस समिति का कार्य था । यदि किसी विदेशी की मृत्यु हो जाती , तो यह समिति उसकी अन्त्येष्टि करती थी और उसकी सम्पत्ति उसके उत्तराधिकारी को सौंप देती थी ।
  3. जन्म – मरण समिति – तीसरी समिति जन्म – मरण का ब्यौरा रखती थी । इससे राज्य में लोगों की जनसंख्या का भी पता चलता था और कर वसूल करने में आसानी रहती थी । उन दिनों में जन्म – मरण का ब्यौरा रखा जाना बड़े आश्चर्य की बात थी ।
  4. वाणिज्य व्यापार समिति – यह समिति व्यापार पर व्यापारियों के लिए नियम बनाती थी । इसका मुख्य कर्त्तव्य माप – तोल के बाटों का निरीक्षण करना था । यह समिति व्यापारियों को विभिन्न वस्तुओं के व्यापार के लिए आज्ञा पत्र देती और वस्तुओं के मूल्य भी निश्चित करती थी ।
  5. वस्तु निर्माण समिति – यह समिति घरों तथा कारखानों में तैयार किये हुए माल का निरीक्षण करती थी । वस्तुओं में मिलावट करने वालों को जुर्माना किया जाता था । यह समिति इस बात का विशेष ध्यान रखती थी कि बढ़िया कच्चा माल प्रयोग किया जाए ताकि तैयार माल उच्चकोटि का हो ।
  6. कर समिति – यह समिति बिक्री कर एकत्रित करती थी । यह कर प्रायः विक्रय मूल्य का 10 प्रतिशत होता था । कर चोरी करने वाले को दण्ड दिया जाता था ।  इसके अतिरिक्त नगर की शिक्षा , अस्पतालों , मन्दिरों तथा जन कल्याण संस्थाओं का कार्य परिषद् के 30 सदस्य मिल कर करते थे ।

IV. न्याय व्यवस्था-Judicial Administration

मौर्यकालीन न्याय व्यवस्था में न्याय का मुख्य स्रोत स्वयं राजा था । वह जनता को निष्पक्ष न्याय प्रदान करने का विशेष प्रयत्न करता था । उसने सारे राज्य में न्यायालय भी स्थापित किए हुए थे । कौटिल्य के अनुसार एक गांव के न्यायालयों से लेकर आठ सौ गांव तक के न्यायालय थे । दो ग्रामों के न्यायालय को जनपद सन्धि , 10 ग्रामों के न्यायालय को संग्रहण , 400 ग्रामों के न्यायालय को द्रोणमुख तथा 800 ग्रामों के न्यायालय को स्थानीय कहा जाता था ।मौर्य शासन प्रबन्ध

प्रत्येक न्यायालय में तीन ‘ आमात्य ‘ तथा तीन ‘ धर्मस्थ ‘ नामक अधिकारी होते थे । आजकल की भान्ति उस समय भी दीवानी तथा फौजदारी दो प्रकार के न्यायालय होते थे । दीवानी न्यायालय को धर्मस्थीय तथा फौजदारी न्यायालय को कंटकशोधन कहा जाता था । अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील भी की जा सकती थी । अपील सम्राट् के न्यायालय में पेश की जाती थी । ग्रामीणों के झगड़े प्रायः पंचायतें ही निपटा देती थीं । निर्णय गवाही के आधार पर किये जाते थे ।

मैगस्थनीज़ तथा कौटिल्य के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य के समय दण्ड – विधान काफ़ी कठोर थे । छोटे – छोटे अपराधों के लिए एक हज़ार पण तक जुर्माना कर दिया जाता था । चोरी , डाके , कर न देने , शिल्पकार को अंगहीन करने तथा किसी की हत्या के अपराध में मृत्यु दण्ड दिया जाता था । ब्राह्मणों को मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था । उनको भारी जुर्माना कर दिया जाता था । अपराधी से अपराध मनवाने लिए उसे कई प्रकार के कष्ट दिए जाते थे । इस कठोर दण्ड व्यवस्था के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त मौर्य देश में शान्ति स्थापित करने में सफल हुआ । मैगस्थनीज़ लिखता है कि पाटलिपुत्र की जनसंख्या 6 लाख होते हुए भी वहां बहुत कम चोरियां होती थीं ।

V . ग्राम का प्रशासन-Village Administration

प्रत्येक ग्राम का शासन ग्राम पंचायत करती थी । पंचायत का मुखिया ही ग्राम का मुखिया होता था । वह ग्रामिणी कहलाता था । ग्राम के प्रबन्ध में यह पंचायत के सदस्यों की सहायता लेता था । उनका चुनाव ग्राम के ही लोग करते थे । उनका पद अवैतनिक होता था । केन्द्रीय सरकार पंचायत के कार्यों में किसी प्रकार का कोई हस्तक्षेप नहीं करती थी ।

मौर्य शासन प्रबन्ध परन्तु चन्द्रगुप्त मौर्य ने ग्राम के शासन – प्रबन्ध का आयोजन इस प्रकार से किया था कि सभी अधिकारियों पर उसका नियन्त्रण बना रहे । यदि ग्रामिक पर गोप का नियन्त्रण था , तो गोप पर स्थानिक का । इसी प्रकार स्थानिक के कार्य की देखभाल गवर्नर करता था तो गवर्नर के काम की देखभाल स्वयं राजा तथा उसकी परिषद् करती थी ।

VI . वित्त तथा भूमि कर-Finance and Land Revenue

कौटिल्य का विश्वास था कि सभी कार्य वित्त पर निर्भर हैं । चन्द्रगुप्त ने अपने योग्य मन्त्री की बात पर आचरण करते उच्चकोटि का आर्थिक प्रबन्ध किया । अर्थ – विभाग नामक एक अलग विभाग की स्थापना की गई जिसके मन्त्री को समाहर्त्ता कहा जाता था । वह सभी प्रकार के कर एकत्रित करता था । उसकी सहायता के लिए कई अन्य अधिकारी भी होते थे । संक्षेप में , मौर्य अर्थव्यवस्था इस प्रकार थी

  1. भूमि कर-Land Revenue — भूमि कर मौर्य राज्य की आय का प्रमुख साधन था । अर्थशास्त्र के अनुसार सरकार उपज का 1/4 अथवा 1/6 भाग भूमि कर के रूप में लेती थी । मैगस्थनीज़ के अनुसार कृषक वर्ग का समाज में काफ़ी मान था । युद्ध के समय भी इस बात का ध्यान रखा जाता था कि किसानों की फसलों आदि को किसी प्रकार की हानि न पहुंचे । कृषकों के हितों को ध्यान में रखते हुए चन्द्रगुप्त ने सिंचाई के लिए कई नहरें खुदवाई तथा पश्चिमी प्रान्त में सुदर्शन नामक झील का निर्माण करवाया ।
  2. आय के अन्य साधन-Other Sources of Income — भूमि कर के अतिरिक्त राज्य की आय के अन्य साधन थ
  1.   सब्जियों फलों आदि पर लगाया गया कर
  2. वनों पर लगाया गया कर
  3. चुंगी कर
  4. नमक बनाने वालों पर कर
  5. जुर्मानों से प्राप्त आय
  6. खानों से प्राप्त आय
  7. राजा को मिले उपहार आदि ।

iii  व्यय-Expenses

मौर्य काल में निम्नलिखित कार्यों पर धन व्यय किया जाता था –

  1. कुछ धन दरबार की शोभा , राज परिवार की देख – रेख तथा मन्त्रियों के वेतन पर खर्च होता था ।
  2. सैनिकों के वेतन , शस्त्रों , दुर्गों तथा मृत सैनिकों के परिवारों की सहायता पर भी काफ़ी धन खर्च किया जाता था ।
  3. राजकीय कारखानों में काम करने वाले शिल्पकारों को वेतन तथा धार्मिक संस्थाओं को अनुदान भी राजकोष से ही दिया जाता था ।
  4. निर्धनों की सहायता तथा जन – हित कार्यों पर काफ़ी धन खर्च किया जाता था ।

VII. सैनिक प्रबन्ध-Military Administration

चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक विशाल सेना का गठन किया था । उसकी सेना में 6 लाख पैदल , 30 हज़ार घुड़सवार , 9 हज़ार हाथी तथा 8 हज़ार रथ सम्मिलित थे । इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना की कुल संख्या 6,90,000 थी । प्रत्येक रथ में तीन तथा प्रत्येक हाथी पर चार सैनिक होते थे । कृषक वर्ग को छोड़कर सैनिकों की संख्या राज्य के अन्य सभी वर्गों में सबसे अधिक थी । उनका काम केवल लड़ाई करना था । शान्ति के समय भी उन्हें नियमित रूप से नकद वेतन दिया जाता था । मौर्य सैनिक संगठन की रूप रेखा इस प्रकार थी

i. युद्ध विभाग-Army Department

कौटिल्य के अनुसार , सेना प्रबन्ध के लिए तीस सदस्यों की एक परिषद् बनाई गई थी । इस परिषद् को आगे 6 समितियों में बांटा गया था । प्रत्येक समिति में पांच सदस्य होते थे । इन समितियों के अलग – अलग कार्यों का वर्णन इस प्रकार है-

  1. पहली समिति का कार्य उन जहाज़ों की  देखभाल करना था जो समुद्री लुटेरों को दण्ड देने के लिए होते थे । वह व्यापारियों से कर भी वसूल करती थी । इसके अध्यक्ष को ‘ नावाध्यक्ष ‘ कहते थे ।
  2. दूसरी समिति का कार्य सेना को माल पहुंचाने वाली बैलगाड़ियों की देख – रेख करना था । इसके अध्यक्ष को ‘ गो – अध्यक्ष ‘ कहते थे ।
  3. तीसरी समिति पैदल सैनिकों के हितों A की रक्षा करती थी ।
  4. चौथी समिति का कार्य घुड़सवार सैनिकों की देखभाल करना था । इसके अध्यक्ष को ‘ अश्वाध्यक्ष ‘ कहते थे ।
  5. पांचवीं समिति हाथियों का प्रबन्ध करती थी तथा उनकी देख – भाल करती थी । इसके अध्यक्ष को ‘ हस्ताध्यक्ष ‘ कहते थे ।
  6. छठी समिति का काम युद्ध में प्रयोग किये जाने वाले रथों का प्रबन्ध करना था । इसके अध्यक्ष को ‘ रथाध्यक्ष ‘ कहते थे ।

ii अस्त्र – शस्त्र- Weapons 

यूनानी लेखकों के अनुसार , प्रत्येक पैदल सैनिक के पास एक धनुष होता था । धनुष की लम्बाई लगभग सैनिक के अपने कद के बराबर होती थी । इसे धरती पर रखकर बायें पांव से दबाकर 1 तीर छोड़ा जाता था । यह तीर बहुत तीव्र गति से जाता था । इसे न तो कवच रोक सकता था और न ही ढाल । कई सैनिकों के पास धनुष के स्थान पर नेज़ा होता था । इसके अतिरिक्त प्रत्येक पैदल सैनिक के पास एक बड़ी तलवार होती थी । इसे पेटी की सहायता से कमर में लटकाया जाता था । प्रत्येक पैदल सैनिक के बायें हाथ में अपनी रक्षा के लिए एक ढाल भी होती थी । प्रत्येक घुड़सवार सैनिक के पास दो भाले तथा एक ढाल होती थी । कौटिल्य के अनुसार , उस समय त्रिशूल , गदा , मुग़दर आदि शस्त्र भी युद्ध में प्रयुक्त होते थे ।

iii  पुरस्कार-Prizes

 सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें कई प्रकार के पुरस्कार दिये जाते थे । इन पुरस्कारों का वितरण इस प्रकार किया जाता था –

  1. शत्रु राजा का वध करने पर एक लाख पण का पुरस्कार दिया जाता था ।
  2. शत्रु सेनापति का वध करने पर 50 हजार पण पुरस्कार स्वरूप दिए जाते थे ।
  3. शत्रु के अश्वाध्यक्ष के वध के लिए 1 हज़ार पण तथा पैदल सेना के अध्यक्ष का वध करने पर 100 पण का इनाम दिया जाता था ।

iv दुर्गों का निर्माण-Fortification

मौर्य शासकों ने दुर्गों के निर्माण में विशेष रुचि ली । उस समय दुर्ग निर्माण की कला उन्नत थी । ये दुर्ग बड़े मजबूत थे । उनका निर्माण विधिवत् रूप से खाइयों , ऊंची – ऊंची दीवारों और फाटकों सहित किया जाता था । इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि मौर्यों का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन अत्यन्त श्रेष्ठ था । 

VIII. गुप्तचर व्यवस्था-Spy System

मौर्यों का गुप्तचर प्रबन्ध श्रेष्ठ था । उन्होंने शासन को सुदृढ़ बनाने के लिए गुप्तचर विभाग की व्यवस्था को हुई थी । कुछ गुप्तचर स्थायी रूप से विभिन्न स्थानों पर नियुक्त किये गये थे जिन्हें संस्था कहा जाता था । इसके विपरीत कुछ गुप्तचर वेष बदल कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते थे । ये संचार कहलाते थे । स्त्रियां भी गुप्तचरों के रूप में कार्य करती थीं । गुप्तचर अपराधियों , शत्रुओं तथा देश – द्रोहियों का पता लगाते थे ।

मौर्य शासन प्रबन्ध

वे सरकारी कर्मचारियों की गतिविधियों की सूचना भी सम्राट् तक पहुंचाते थे । उन दिनों छापेखाने का अभाव होने के कारण गुप्तचर ही राजा को प्रजा की भावनाओं से अवगत कराते थे । राजा तक समाचार पहुंचाने के लिए सिखाए हुए सन्देशवाहक कबूतरों की सहायता ली जाती थी । गुप्तचरों पर भी कड़ी निगरानी रखी जाती थी । अपने कर्त्तव्य का पूरा पालन न करने वाले गुप्तचरों को कठोर दण्ड दिया जाता था । मैगस्थनीज़ तथा एरियन के अनुसार चन्द्रगुप्त के गुप्तचरों ने जनता के मन में राजा के प्रति श्रद्धा के भाव उत्पन्न कर दिए थे । वास्तव में मौर्य शासन की सफलता में गुप्तचर विभाग का बहुत बड़ा हाथ था ।

Ads Blocker Image Powered by Code Help Pro

Ads Blocker Detected!!!

We have detected that you are using extensions to block ads. Please support us by disabling these ads blocker.

Powered By
100% Free SEO Tools - Tool Kits PRO