मिताक्षरा विधि के अनुसार उत्तराधिकार का मूल सिद्धान्त क्या है ?

मिताक्षरा विधि के अनुसार उत्तराधिकार का मूल सिद्धान्त क्या है ? मिताक्षरा के अनुसार उत्तराधिकार की कितनी श्रेणी मान्य हैं , जिनमें उत्तराधिकार के हेतु एक दूसरे को प्राथमिकता दी जाती है ? मिताक्षरा तथा दायभाग में उत्तराधिकार के अन्तर को स्पष्ट कीजिए ।

What is the govening factor inheritance according to Mitakashra Law ? How many clauses of heirs are recognise according to Mitakshara in order of preference to each other ? Point out the distinction between M Mitakashara and Dayabhage Law of inheritance .

मिताक्षरा विधि के अनुसार , उत्तराधिकार का मूल सिद्धान्त संगोत्रता है । मनु ने भी कहा है कि मनु के अनुसार , “ किसी विशेष मूल की अनुपस्थिति में केवल संगोत्रता ही उत्तराधिकार का प्रमाण है । ” सर्वप्रथम पुत्र पिता के धन का उत्तराधिकारी होता है । उत्तम पुत्र के अभाव में हीन पुत्र के धन का भागी होता है और सबके समान गुणी होने पर समान धन पाने के अधिकारी होते हैं । इस नियम का आधार यह है कि समीपीय उत्तराधिकार दूरस्थ उत्तराधिकार ‘ को अपवर्जित कर देता है । दाय की प्राचीन विधि का आधार मनु का पाठ है । इसके अनुसार पुत्र के पश्चात् सपिण्डों के निकट सम्बन्धी मृत व्यक्ति के धन का अधिकारी होता है ।

मिताक्षरा विधि

सगोत्रता मुख्य विषय – मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत सगोत्रता उत्तराधिकार का मुख्य विषय है । सम्पत्ति के न्यागमन के समय निर्वसीयती के सम्बन्धी की निकटता को प्राथमिकता दी जाती है । सगोत्र हमेशा सपिण्ड ही हुआ करते हैं । मनु के पाठ के अनुसार पुत्र के होने पर सपिण्ड ही दायद होता है । इस ‘ सपिण्ड ‘ शब्द को दो भिन्न अर्थ देकर विज्ञानेश्वर और जीमूतवाहन के दाय के दो भिन्न प्रणालियों को जन्म दिया है । सपिण्ड से तात्पर्य शरीर से सम्बन्धित व्यक्तियों अर्थात् रक्त सम्बन्धियों से होता है । विज्ञानेश्वर ने पिण्ड को शरीर का अर्थ देकर दाय की विधि में एक नवीनता को उत्पन्न किया है और उसी आधार पर दायदों में नवीन क्रम की आलोचना की किन्तु विज्ञानेश्वर द्वारा पिण्ड को शरीर का अर्थ देने से यह तात्पर्य नहीं निकालना चाहिए कि दाय का एकमात्र आधार रक्त सम्बन्ध ही है और इस सम्बन्ध में श्राद कर्म पूर्णतया अप्रासंगति है ।

दो समानाधिकारी गोत्रज सपिण्ड दायदों में प्राथमिकता तय करने में पिण्डदान देने का ही अधिकार निर्णायक होता है । मिताक्षरा की परिभाषा के अन्तर्गत कुछ स्त्रियाँ जैसे वंशज की पुत्रियाँ और संपार्श्विक ( जैसे बहिन , भतीजी ) सपिण्ड हैं तथा वे रक्त से सम्बन्धित हैं फिर भी इन्हें दाय से पुरानी विधि के अन्तर्गत अपवर्जित कर दिया गया था । यद्यपि मिताक्षरा पद्धति में उत्तराधिकार निश्चित करने के लिए संगोत्रता या रक्त सम्बन्ध को प्राथमिकता दी जाती है तथापि यह कोई व्यक्ति निर्वसीयत से रक्त सम्बन्ध से जुड़े होते हैं तो उत्तराधिकार की अधिमान्यता के लिए आध्यात्मिक लाभ पहुँचने की बात को ध्यान में रखा जाता है अर्थात् ऐसे दायदों में वही दायर उत्तराधिकारी होगा जो मृतक को आध्यात्मिक लाभ पहुँचा सकता है , दूसरे शब्दों में जो मृतक का श्राद्ध कर्म तथा पिण्डदान कर सकता है ।

जितेन्द्रनाथ राय बनाम नगेन्द्रनाथ के बाद में प्रिवी कौंसिल ने भी यह मत व्यक्त किया है । प्रिवी कौंसिल के मतानुसार , ” यह कल्पना करना असत्य है कि मिताक्षरा में दाय की व्यवस्था में आध्यात्मिक लाभ के सिद्धान्त को स्थान नहीं दिया गया है । निःसन्देह इस सम्बन्ध का प्रथम परीक्षण सगोत्रता है । लेकिन मनु और वीर मित्रोदय की बहुत सी मूल व्यवस्थाओं में दाय और अन्त्येष्टि संस्कार का कई स्थानों पर सम्बन्ध दिखाया गया है और यह सम्बन्ध आध्यात्मिक लाभ पहुँचाने को संगोत्रता की माप मानता है , जहाँ पर सम्बन्ध का पीढ़ी ( Degree of relationship ) कोई निर्देशन नहीं करती । ” अतः मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत उत्तराधिकार का मूल आधार सगोत्रता है जो कि आध्यात्मिक लाभ पहुँचने के सिद्धान्त पर आधारित है ।

उत्तराधिकारियों के वर्ग – मिताक्षरा पद्धति के अनुसार उत्तराधिकारियों को दो भागों में बाँटा गया है –

( 1 ) “ सगोत्र सपिण्ड ”

( 2 ) भिन्न गोत्रज सपिण्ड ।

“ सभी गोत्रज सपिण्ड ” सपिण्ड ( Agnates ) होते हैं जो मृतक से एक अविच्छिन्न पुरुष शृंखला से सम्बन्धित होते हैं , जैसे पुत्र , पौत्र , प्रपौत्र , भतीजी इत्यादि । भिन्न गोत्रज सपिण्ड मृतक के वे रक्त सम्बन्धी हैं जो मृतक से भिन्न गोत्र के होते हैं । इन्हें बन्धु कहा जाता है ।

इस प्रकार उत्तराधिकारियों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है |

( 1 ) सपिण्ड , ( 2 ) समानोदक तथा ( 3 ) बन्धु । 

मिताक्षरा तथा दायभाग की उत्तराधिकार विधि में अन्तर — मिताक्षरा तथा दायभाग विधि के अन्तर को अग्र प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

( 1 ) मिताक्षरा विधि में सम्पत्ति के न्यागमन की दो रीतियाँ हैं— उत्तरजीविता तथा उत्तराधिकार । उत्तरजीविता का नियम सहदायिका की सम्पत्ति पर लागू होता है तथा उत्तराधिकार का नियम गत् स्वामी की पृथक् सम्पत्ति पर , जबकि दायभाग में सम्पत्ति के न्यागमन की केवल एक ही रीति है— उत्तराधिकार ।

( 2 ) मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत पिण्ड का सम्बन्ध रक्त में होता है जबकि दाय भाग विधि के अधीन पिण्ड से तात्पर्य पिण्डदान द्वारा सम्बन्धित व्यक्तियों से होता है , दूसरे शब्दों से वह व्यक्ति जो ” प्रवण श्राद्ध ” संस्कार के समय पूर्वज को दिये गये पिण्डों से सम्बन्धित होता है । 

( 3 ) मिताक्षरा विधि के सह – सम्बन्ध अथवा सन्निकटता दाय प्राप्त करने का आधार मानी गयी है जबकि दायभाग विधि में दाय प्राप्त करने का मुख्य आधार पारलौकिक हित अथवा आध्यात्मिक प्रलाभ ही है 1

( 4 ) मिताक्षरा विधि में दो या दो से अधिक व्यक्तियों को एक साथ दायद होने पर सम्पत्यों को कुछ दशाओं में छोड़कर संयुक्त आभोगी के रूप में प्राप्त करते थे जबकि दाय भाग में ऐसे व्यक्ति सह – आभोगी रूप में दाय ग्रहण करते थे । किन्तु विधवा ( पत्नी ) तथा सत्री सह – आभोगी के रूप में ग्रहण नहीं करती थी ।

( 5 ) मिताक्षरा विधि के अधीन दायदों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है— ( 1 ) सपिण्ड , साकुल्य , ( 2 ) समानोदर , ( 3 ) बन्धु ।

दायभाग विधि में भी दायदों को तीन वर्गों में रखा गया है— ( 1 ) सपिण्ड , ( 2 ) साकुल्य , ( 3 ) समानोदर । दायभाग के सपिण्ड मिताक्षरा के 4 पीढ़ी के भीतर तक सपिण्ड हैं ( 6 ) मिताक्षरा की तुलना में दायभाग के बन्धु सीमित हैं । प्रत्येक सम्बन्धी जो मिताक्षरा में में बन्धु है दायभाग में भी बन्धु होता है तथापि बहुत से ऐसे भी सम्बन्धी हैं जो मिताक्षरा में तो बन्धु हैं परन्तु दायभाग में बन्धु नहीं है ।

( 7 ) मिताक्षरा विधि में गोत्रज सपिण्डों तथा समानोदरों के रहते हुए कोई बन्धु संपार्श्विक दायभाग नहीं कर सकता । दायभाग के बन्धु संपार्श्विक के साथ दाय प्राप्त करते हैं और वे साकुल्य तथा समानोदक के पूर्व आते हैं ।

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