छठी शताब्दी ई ० पू ० में भारत की धार्मिक अवस्था
छठी शताब्दी ई ० पू ० में भारत की धार्मिक अवस्था क्या है ?
भारत की धार्मिक अवस्था छठी शताब्दी ईसा पूर्व का युग उथल – पुथल का युग था । राजनीतिक , सामाजिक तथा आध्यात्मिक हर क्षेत्र में असन्तोष फैला हुआ था । इसी असन्तोष के विरुद्ध भारत में एक महान धार्मिक क्रान्ति हुई जिसके मुख्य नेता वर्द्धमान महावीर तथा गौतम बुद्ध थे । इनका प्रचार दुःखी मानवता के लिए वरदान सिद्ध हुआ । कालान्तर में इनके सिद्धान्तों ने क्रमश : जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का रूप धारण कर लिया । जैन धर्म और बौद्ध धर्म के उद्भव के लिए अनेक तत्कालीन राजनीतिक , सामाजिक एवं धार्मिक कारण उत्तरदायी थे । इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है
1. राजनीतिक स्थिति ( Political Condition ) –भारत की धार्मिक अवस्था छठी शताब्दी ई ० पू ० की राजनीतिक स्थिति जैन तथा बौद्ध धर्मों के उदय के लिए काफ़ी सहायक सिद्ध हुई । बौद्ध साहित्य के अनुसार उस समय उत्तरी भारत 16 महाजनपदों ( राज्यों ) में बंटा हुआ था । इन राज्यों में मगध सबसे शक्तिशाली राज्य था । इस राज्य के दो महान् सम्राटों बिम्बिसार और अजातशत्रु के शासनकाल के दौरान मगध ब्राह्मण धर्म के प्रभाव से मुक्त रहा । परिणामस्वरूप जैन तथा बौद्ध धर्म को अपना प्रचार तथा प्रसार करने के लिए उपयुक्त अवसर प्राप्त हो गया । बिम्बिसार तथा अजातशत्रु ने इन दोनों धर्मों को अपने शासनकाल के दौरान संरक्षण प्रदान किया । इससे जैन तथा बौद्ध धर्म में उल्लेखनीय प्रगति हुई । जैन तथा बौद्ध धार्मिक ग्रन्थ इन दोनों शासकों को अपने – अपने धर्म का अनुयायी बताते हैं । मगध की देखा – देखी अन्य राज्यों ने भी इन धर्मों को संरक्षण प्रदान करना आरम्भ कर दिया जिससे ये धर्म खूब फले – फूले ।
2. वैदिक धर्म में कठोरता ( Complexities ) — ऋग्वैदिक काल में आर्यों का धर्म बड़ा सादा था । लग का उच्चारण करके अपने देवताओं को प्रसन्न कर लिया करते थे । परन्तु ज्यों ज्यों समय बीतता गया उन जटिलता आती गई । कर्मकाण्ड तथा अनेक प्रकार के आडम्बर धर्म में प्रवेश कर गए । इस प्रकार धर्म भ प्रदर्शक बनने की बजाय एक समस्या बन गया । मुक्ति प्राप्त करना साधारण लोगों के वश की बात नहीं रहीं थी । अतः मुक्ति की अभिलाषा रखने वालों ने वैदिक धर्म का त्याग करके कोई अन्य धार्मिक मार्ग अपनाने का नि मन्त्रों धर्म में किया ।
3. ब्राह्मणों का नैतिक अंत ( Moral Degradation of the Brahmans ) — वैदिक धर्म में ब्राह्मणों की बड़ा सम्मान था । वे कानूनी नियमों से ऊपर थे । वे ही धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न किया करते थे । देश की राजनीति में भी उनका काफ़ी हाथ था । इस प्रकार उन्हें समाज में सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त था । परन्तु धीरे – धीरे उनका आचर गिर गया । धन की लालसा और विलासप्रियता ने उन्हें अन्धा कर दिया । वे अपने गौरवमयी पद की परछाई मात्र ही रह गए । अतः लोग उनके प्रभुत्व से छुटकारा पाना चाहते थे ।
4. जाति प्रथा एवं छुआछूत ( Caste System and Untouchability ) – भारत की धार्मिक अवस्था छठी शताब्दी ई ० पू ० तक जाति बन्धन बहुत कठोर हो चुके थे । इसका सबसे बुरा प्रभाव शूद्र जाति के लोगों पर पड़ा । उनकी स्थिति दयनीय हो चुको थो । वे समाज सेवा करते तो थे परन्तु समाज उन्हें किसी प्रकार का अधिकार देने को तैयार नहीं था । वे न तो धर्मशास्त्र पढ़ सकते थे और न ही शास्त्रों के विचार सुन सकते थे । उनके लिए मुक्ति के द्वार बन्द थे कितनी विचित्र बात थी कि जिन लोगों ने अपने आपको समाज सेवा के लिए अर्पित किया था , वही लोग समाज की घृणा के पात्र बन गए थे । अतः यह वर्ग बाध्य होकर किसी ऐसे धर्म की चाह करने लगा जिसमें वह उचित स्थान पा सकें ।
5. अत्ययधिक महंगे यज्ञ ( Costly Yajnas ) — आरम्भ में आर्य लोग बड़े सरल ढंग से यज्ञ किया करते थे । परन्तु भारत की धार्मिक अवस्था छठी शताब्दी में यज्ञ करवाना अनिवार्य कर दिए गए । इसके साथ ही यज्ञों की संख्या बढ़ गई तथा यज्ञ करने का विधान भी जटिल हो गया । अब यज्ञ करने के लिए अनेक ब्राह्मणों की आवश्यकता पड़ती थी । कई यज्ञ तो महीनों चलते रहते थे । यज्ञों में आहुति डालने के लिए घी , दूध , फल तथा अन्य कई वस्तुएं प्रयोग में लाई जाती थीं । अधिकतर अवसरों पर पशु बलि भी दी जाती थी । साधारण जनता इन सब बातों से तंग आ चुकी थी । फलस्वरूप लोग किसी सरल धर्म की खोज में थे ।
6. ब्राह्मणों का नैतिक अंत ( Moral Degradation of the Brahmans ) — वैदिक धर्म में ब्राह्मणों की बड़ा सम्मान था । वे कानूनी नियमों से ऊपर थे । वे ही धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न किया करते थे । देश की राजनीति में भी उनका काफ़ी हाथ था । इस प्रकार उन्हें समाज में सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त था । परन्तु धीरे – धीरे उनका आचर गिर गया । धन की लालसा और विलासप्रियता ने उन्हें अन्धा कर दिया । वे अपने गौरवमयी पद की परछाई मात्र ही रह गए । अतः लोग उनके प्रभुत्व से छुटकारा पाना चाहते थे ।
7. मुश्किल भाषा ( Difficult Language ) – सभी वैदिक ग्रन्थ गूढ़ संस्कृत भाषा में थे । परन्तु साधारण जनता संस्कृत नहीं समझ सकती थी । लोगों को धार्मिक रहस्यों को समझने के लिए ब्राह्मणों के कथनों पर आश्रित रहना पड़ता था । परन्तु ब्राह्मण धार्मिक विधान की व्याख्या अपने स्वार्थों को ध्यान में रखकर करते थे । जनता को उनकी व्याख्या स्वीकार करनी पड़ती थी । अतः जनता ऐसे धर्म की चाह कर रही थी जो उसे धार्मिक सिद्धान्त उसको आम बोलचाल की भाषा में समझा सके ।
8. आकर्षण और मंत्र में विश्वास ( Belief in Charms and Spells ) – भारत की धार्मिक अवस्था छठी शताब्दी ई ० पू ० में लोग अन्धविश्वासी हो चुके थे । वे वेद मन्त्रों की बजाय तन्त्र – मन्त्र में विश्वास रखने लगे थे । वे अपने दुःखों के निवारण के लिए जादू टोनों का आश्रय लेने लगे थे । उनका विश्वास इस बात में बढ़ता जा रहा था कि मन्त्रों द्वारा शत्रुओं तथा रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है । यह रोग दिन – प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था । जागरूक व्यक्ति इन अन्धविश्वासों से मुक्ति की राह देख रहे थे ।
9. धार्मिक ध्यान की स्वतंत्रता ( Freedom of Religious Meditation ) – प्राचीन काल में लोगों को धार्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त थी । प्रत्येक व्यक्ति अपने ढंग से पूजा – पाठ कर सकता था । गौतम बुद्ध तथा महावीर ने अपने – अपने ढंग से तपस्या की थी । महात्मा बुद्ध ने निश्चिन्त चिन्तन में मग्न रहकर ज्ञान प्राप्त किया । इसके विपरीत महावीर ने घोर तपस्या द्वारा ज्ञान प्राप्त किया । समाज में धार्मिक चिन्तन की इस स्वतन्त्रता ने भी इन धर्मों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । सच तो यह है कि तत्कालीन राजनीतिक दशा , धर्म की जटिलता , ब्राह्मणों का नैतिक पतन , छुआछूत , महंगे यज्ञ , कठिन भाषा तथा महापुरुषों के जन्म के कारण बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म का उदय हुआ ।
10. महान आत्माओं का जन्म ( Birth of Noble Souls ) –भारत की धार्मिक अवस्था छठी शताब्दी ई ० पू ० में अनेक महापुरुषों का जन्म हुआ । ये सभी अपने – अपने क्षेत्र में अलग – अलग ढंग से दुःखी जनता का उद्धार करते रहे । उन्होंने लोगों को जीने का सरल तथा सच्चा मार्ग दिखाया । इन महापुरुषों में महावीर तथा बुद्ध अधिक लोकप्रिय हुए । बाद में इन्हीं के सिद्धान्तों ने क्रमश : जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का रूप धारण कर लिया ।