विवाह की परिभाषा कीजिए । प्राचीनकाल में जो विभिन्न विवाह की पद्धतियाँ प्रचलित थीं , उनकी विवेचना कीजिए । Define Marriage . Discuss the various kinds of marriage that were previlent in ancient India.

विवाह की परिभाषा कीजिए –

विवाह की परिभाषा – रघुनन्दन ने विवाह की परिभाषा इस प्रकार दी है , ” वर के द्वारा कन्या को स्त्री रूप में ग्रहण करने की स्वीकृति विवाह है । ” वस्तु हिन्दू धर्म में कन्या विवाह की पक्षकार नहीं होती । पक्षकारं कन्या का पिता तथा वर होता है , जिसको दान में कन्या दी जाती है । हिन्दू विधि में कन्या के स्वामित्व का सम्पूर्ण अधिकार पिता या उसके संरक्षक को होता है । कन्या की स्वीकृति या अस्वीकृति कोई महत्व नहीं रखती ।

वेस्टरमार्क ( Westermark ) के अनुसार , “ विवाह एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों के साथ होने वाला सम्बन्ध है जिसे प्रथा या कानून स्वीकार करता है और जिसमें विवाह करने वाले व्यक्तियों के और उससे उत्पन्न हुए बच्चों के होने वाले अधिकारों और कर्तव्यों का समावेश होता है । ” इस प्रकार विवाह के अन्तर्गत वर कन्या को पत्नी रूप में स्वीकार करता है । यह सक्रिय पक्षकार होता है , जो विवाह करता है और कन्या निश्चेष्ट पक्षकार होती है जो विवाह में दान दी  जाती है ।

हिन्दू – विधि के अन्तर्गत विवाह चाहे संस्कार माना जाये या संविदा परन्तु यह सन्तान को जन्म देता है ।

विवाह के पक्षकार पति – पत्नी की संस्थित प्राप्त करते हैं । विवाह की सन्तान धर्म की संस्थित प्राप्त करती है । लगभग सभी विधि व्यवस्थाओं के वैध विवाह के लिये निम्नलिखित दो शर्तों का होना आवश्यक है

( क ) . वैवाहिक सामर्थ्य का होना और

( ख ) वैवाहिक अनुष्ठानों का सम्पन्न करना ।

हिन्दूशास्त्रों के अनुसार , विवाह संस्कार प्रथम दस संस्कारों में अन्तिम संस्कार है । विवाह – बन्धन एक ऐसा बन्धन है जिसे कभी तोड़ा नहीं जा सकता और प्राचीन हिन्दू विधि के अनुसार ऐसा सम्बन्ध है जो जन्म – जन्मान्तर होता है । स्त्री को पुरुष की अर्धांगिनी माना जाता है । उसके बिना कोई धार्मिक यज्ञ आदि पूर्ण नहीं माने जाते हैं । उसे गृहलक्ष्मी का सम्मान दिया जाता है । हिन्दू – विवाह के अन्तर्गत एक पिता अपनी कन्या को किसी सुयोग्य वर के हाथ सौंपना अपना पुनीत कर्तव्य समझता है ।  हिन्दू – विवाह की यह पद्धति वैदिककाल से प्रचलित है ।

 

विवाह की परिभाषा कीजिएविवाह की परिभाषा कीजिए

विवाह की पद्धतियाँ — हिन्दू विवाह की आठ पद्धतियाँ मानी गयी हैं । चार मान्य पद्धतियाँ तथा चार अमान्य पद्धतियाँ । मान्य तथा अमान्य विवाह पद्धतियों के परिणाम भिन्न-भिन्न थे । मान्य पद्धति में विवाहित स्त्री को पत्नी कहा जाता था तथा समाज में उसे आदर की दृष्टि से देखा जाता था,परन्तु अमान्य पद्धति में पत्नी को हेय दृष्टि से देखा जाता था। ये विवाह पद्धतियाँ निम्नलिखित हैं-

(1) ब्रह्म, (2) दैव, (3) आर्ष, (4) प्रजापत्य, (5) आसुर, (6) गान्धर्व, (7) राक्षस, (8) पैशाच विवाह ।

उपर्युक्त प्रथम चार विवाह पद्धतियाँ मान्य पद्धतियाँ हैं। बाद की चार पद्धतियाँ अमान्य पद्धतियाँ हैं—

मान्य पद्धति

(1) ब्रह्म विवाह – मनु के अनुसार, “जब पिता वेदों में पारंगत और सच्चरित्र वर को निमन्त्रित करके हीरे-जवाहरातों का दान देकर कन्या को अमूल्य आभूषणों से सजाकर वर को दान में दे देता है तो उसे ब्रह्म विवाह कहते हैं।” इस प्रकार ब्रह्म विवाह सबसे उच्च विवाह माना गया हैं । यह विवाह पूर्ण रूप से पिता द्वारा अपनी पुत्री का दान है जिससे पिता अपनी पुत्री पर अपने आधिपत्य का हस्तान्तरण वर को अपनी स्वेच्छा और बिना किसी अनुदान के करता है। प्रारम्भ में द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही) इस विवाह को करते थे ।

(2) दैव पद्धति – यज्ञ में विधिपूर्वक कर्म करते हुए ऋत्वक के लिए वस्त्राभूषण से अलंकृत कन्या का दान करने को ‘दैव’ विवाह कहते हैं ।

(3) आर्य विवाह- इस पद्धति में वर कन्या के पिता को दो जोड़ा गाय देता था तथा विवाह के समय कन्या का पिता कन्या के साथ इन गायों को भी लौटा देता था ।

(4) प्रजापत्य — इस प्रकार की पद्धति में कन्या के पिता द्वारा “तुम दोनों (वर-कन्या) साथ-साथ धर्माचरण करो” ऐसा कह कर वस्त्रालंकार आदि से उन्हें पूजित कर कन्यादान किया जाता है । यह विवाह ब्रह्म-विवाह जैसा ही है किन्तु इसमें यह आवश्यक नहीं कि वर कुँवारा हो ।

अमान्य पद्धति

(5) आसुर पद्धति- मनु के अनुसार जब वर अपनी इच्छा से वधू और वधू के नातेदारों को इतनी सम्पत्ति देकर, जितनी वह दे सकता है, वधू को प्राप्त करता है तो वह विवाह आसुर विवाह कहलाता है । यह प्रथा दक्षिणी भारत के शूद्रों में प्रचलित है। यह पद्धति एक प्रकार की क्रय-विक्रय की पद्धति है । इस प्रकार की विवाह पद्धति के बारे में यह मत है कि इसमें लड़की को बेच दिया जाता है। कन्या का पिता कन्या के विवाह में जो शुल्क पाता था वह उसका प्रतिफल था ।

(6) गान्धर्व विवाह — कन्या और पुरुष की इच्छानुसार परस्पर प्रेम से आलिंगनादि एवं. मैथुन होने को गान्धर्व विवाह कहा गया है। मित्र मिश्र के अनुसार, जब वर-वधू आपस में स्वेच्छा से विवाह बन्धन यह कह कर “तुम मेरे पति हो, बँध जाते हैं तो उसे गान्धर्व विवाह नाम से पुकारा जाता है।” इस विवाह में भी अन्य विवाहों की भाँति वैवाहिक अनुष्ठानों का सम्पन्न करना आवश्यक है। इस प्रकार का विवाह दुष्यन्त तथा शकुन्तला का हुआ था । क्षत्रियों में गान्धर्व विवाह का काफी प्रचलन था ।

( 7 ) राक्षस विवाह — इस विवाह पद्धति के अन्तर्गत कन्या के पक्ष वालों की हत्या करके या उनको अंगच्छेदनादि कर और गृह अथवा द्वार आदि को तोड़ कर सहायता के लिए चिल्लाती तथा रोती हुई कन्या का बलात् अपहरण करके विवाह किया जाता है ।

( 8 ) पैशाच विवाह – यह विवाह अति निन्दनीय माना है । इस विवाह के अन्तर्गत सोई हुई , मद आदि से मत्त अथवा विकृत मस्तिष्क वाली कन्या के साथ मैथुन करके विवाह किया जाता है । इस प्रकार प्राचीन हिन्दू विधि के अनुसार आठ पद्धतियाँ होती थीं ।

इन पद्धतियों में ब्रह्म तथा आसुर पद्धति को आदर की दृष्टि से देखा जाता था । बाकी सब पद्धतियाँ हेय दृष्टि से देखी जाती थीं तथा वे अप्रचलित हो चुकी हैं ।

हिन्दू विवाह की शर्तें –

प्राचीन हिन्दू विधि के अनुसार वैध विवाह के लिए तीन शर्ते विहित की गई हैं 

( 1 ) पक्षकार सजातीय हों ।

( 2 ) विवाह के पक्षकार प्रतिषिद्ध सम्बन्ध के अन्तर्गत न आते हों तथा वे एक – दूसरे के सपिण्ड न हों ।

( 3 ) विवाह धार्मिक रीति से सम्पन्न किया गया हो ।

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