चोल कला का विवरण
चोल कला का विवरण -Description of Chola Art
चोल शासक महान् कला प्रेमी थे । उन्होंने पल्लव शासकों की जिन कलात्मक परम्पराओं को उत्तराधिकार में प्राप्त किया था उन्हें विकास के चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया । अंतः चोल काल को दक्षिण भारत की कला का स्वर्ण युग कहा जाता है ।
क -मन्दिर निर्माण कला- Temple Building Art — इस काल में निर्माण किया गया । इस काल में मन्दिर निर्माण शैली जिसे द्रविड़ शैली कहा अनेकों विशाल एवं मन्दिरों जाता है अपने विकास की पराकाष्ठा पर पहुंच गई थी । इसे द्रविड़ शैली इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह विशेष रूप से दक्षिण भारत में सीमित थी । इसकी प्रमुख विशेषता यह थी कि गर्भगृह ( मुख्य प्रतिमा कक्ष ) के ऊपर पांच से सात मंजिलों का निर्माण एक विशेष शैली से किया जाता था । इसे विमान कहा जाता था । ऊंचाई साथ – साथ इनका आकार कम होता जाता था । विमान के ऊपर स्तूपिका स्थापित की जाती थी ।
चोल कला का विवरण चोल कला का विवरण
प्रायः चोल मन्दिरों के गर्भगृह के सामने एक विशाल हाल होता था जिसे मण्डप कहा जाता था । इसमें अनेक स्तम्भों का निर्माण किया जाता था जिन पर बारीक खुदाई की जाती थी । मण्डप में विशेष अवसरों पर सभाएं की जाती थीं । मन्दिर की परिक्रमा के लिए प्रदक्षिणापथ बनाया जाता था । इसमें चारों ओर अनेक देवी – देवताओं की प्रतिमाएं रखी जाती थीं । मन्दिर प्रायः एक खुले प्रांगण में होता था जो ऊंची दीवारों से घिरा होता था । इसमें प्रवेश के लिए ऊंचे प्रवेश द्वार बनाए जाते थे जिन्हें गोपुरम कहा जाता था । ये गोपुरम अलंकृत होते थे । इन मन्दिरों में पुजारियों , देवदासियों ( ऐसी स्त्रियां जो देवताओं की सेवा के लिए समर्पित थीं ) तथा अन्य लोगों के निवास के लिए कमरे बने होते थे । चोल शासकों ने मन्दिरों की दीवारों पर अपनी ऐतिहासिक विजयों के विवरणों को अभिलेखों में उत्कीर्ण करने की प्रथा आरम्भ की ।
1. कोरंगनाथ मन्दिर-The Korangnatha Temple — चोल काल के आरम्भिक मन्दिरों में कोरंगनाथ का मन्दिर उल्लेखनीय है । यह तिरुचिरापल्ली में स्थित है । इसका निर्माण परान्तक प्रथम ( 907-53 ई ० ) ने कराया था । इसका गर्भगृह वर्गाकार है तथा इसकी प्रत्येक भुजा की लम्बाई 7.50 मीटर है । इसका मण्डप आयताकार है तथा इसकी लम्बाई 7.50 मीटर तथा चौड़ाई 6 मीटर है । इसके गर्भगृह के ऊपर निर्मित विमान की ऊंचाई 15 मीटर है । इस मन्दिर की दीवारों पर जो मूर्तियां उत्कीर्ण की गई हैं वे कला की दृष्टि से अत्यन्त उत्कृष्ट हैं । इस मन्दिर के निर्माण से द्रविड़ मन्दिर शैली के एक नवीन युग का आरम्भ होता है ।
2. वृहदेश्वर मन्दिर -The Brihadeswara Temple — राजराज प्रथम में जिन मन्दिरों का निर्माण करवाया उसमें वृहदेश्वर मन्दिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है । इसे राजराजेश्वर मन्दिर के नाम से भी जाना जाता है । यह भारत के विशालतम , उच्चतम तथा श्रेष्ठतम मन्दिरों में से एक है । इसे 1000 ई ० में बनाया गया था तथा यह शिव देवता को समर्मित है । यह मन्दिर 152 मीटर लम्बी तथा 76 मीटर चौड़ी दीवार से घिरे अहाते में बना हुआ है । यह मन्दिर 7 मीटर ऊंचे तथा 55 मीटर चौड़े चबूतरे पर बना है । इस मन्दिर के चार प्रमुख भाग – गर्भगृह के ऊपर विमान , अर्द्धमण्डप ( गर्भगृह के सामने का कक्ष ) , महामण्डप ( मुख्य मन्दिर के सामने विशाल सभाभवन ) तथा नन्दी मण्डप थे । इस मन्दिर की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता इसका भव्य विमान है जो 58 मीटर ऊंचा है ।
इस विमान का आधार वर्गाकार है तथा यह ऊपर जाते हुए पतला होता चला जाता है । यह 13 मंजिलों में बंटा हुआ है । इसके ऊपर एक स्तूपिका है जो लगभग 8 मीटर ऊंची है । इसका वज़न 80 टन है तथा यह एक ही चट्टान से बनी हुई है । गर्भगृह में काली चट्टान से निर्मित 4 मीटर ऊंचा शिवलिंग है । समस्त मन्दिर तथा विमान पर अति सुन्दर मूर्तियां तथा चित्र निर्मित हैं । मन्दिर में प्रवेश करने के लिए दो विशाल तथा ऊंचे प्रवेश द्वार बनाए गए हैं जिन्हें गोपुरम कहा जाता है । इन पर अति सुन्दर नक्काशी की गई है । है निस्सन्देह इस मन्दिर को द्रविड़ शिल्पकारिता का सर्वोत्कृष्ट नमूना कहा जा सकता है ।
के ० आर ० श्रीनिवासन के शब्दों में , ” तन्जौर का महान् मन्दिर तमिल भवन निर्माण कला का सर्वाधिक महत्त्वशाली एवं सफलता का कार्य है । इसमें मन्दिर निर्माण की सभी अच्छी परम्पराओं– भवन निर्माण कला , मूर्तिकला , चित्रकला तथा अन्य सम्बन्धित कलाओं का मिश्रण है ।
3. गंगईकोण्ड चोलपुरम् मन्दिर- The Gangai Cholapuram Temple – राजेन्द्र प्रथम ने 1025 ई ० में अपनी नई राजधानी गंगईकोण्डचोलपुरम् में एक विशाल मन्दिर बनवाया । यह मन्दिर शिव देवता को समर्पित है । इसकी शैली तन्जौर के वृहदेश्वर मन्दिर जैसी है किन्तु दोनों के विस्तार तथा अलंकरण आदि में अन्तर है । यह मन्दिर तन्जौर मन्दिर से आकार में तो बड़ा है किन्तु इसकी ऊंचाई तन्जौर मन्दिर से कम है । यह मन्दिर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ है । इसकी लम्बाई 102 मीटर तथा चौड़ाई 50 मीटर है । यह मन्दिर एक चबूतरे का बना है तथा इस मन्दिर की कुल ऊंचाई 55.8 मीटर है ।
इस मन्दिर का विमान 8 मंजिला है । इस विमान को घुमावदार रेखाओं से अलंकृत किया गया है । इसके ऊपर अति सुन्दर स्तूपिका का निर्माण किया गया है । गर्भगृह के सम्मुख निर्मित महामण्डप लगभग 58 मीटर लम्बा तथा 33 मीटर चौड़ा है । मण्डप की छत सपाट है । इसके स्तम्भों की कुल संख्या 150 है । ये स्तम्भ यद्यपि अलंकरण रहित हैं किन्तु फिर भी आकर्षक हैं । इस मन्दिर के उत्तर तथा पश्चिम में दो गोपुरम् हैं । इस मन्दिर का मूर्तिशिल्प एवं अलंकरण तन्जौर के मन्दिर से अधिक उत्कृष्ठ तथा प्रभावोत्पादक है ।
ख -मूर्तिकला- Sculpture — चोल शासनकाल में दक्षिण भारत में मूर्तिकला के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय उन्नति हुई । मन्दिरों में देवी – देवताओं , राजा और रानियों की पत्थर और धातुओं की अति सुन्दर मूर्तियां बनाकर रखी गई थीं । नटराज की कांस्य की मूर्तियां इस काल की श्रेष्ठ कृति मानी जाती हैं । श्रवण बेलगोला स्थित जैन सन्त गोमतेश्वर की विशालकाय प्रतिमा को देखकर व्यक्ति आश्चर्यचकित रह जाता है । इनके अतिरिक्त इस काल में ऐतिहासिक पुरुषों , नर्तकों , पशु – पक्षियों तथा फूल – पत्तियों आदि की भी मूर्तियां बनाई गईं । ये सभी मूर्तियां मौलिक एवं सजीव हैं तथा चोलकाल के कलाकारों की कल्पना को दर्शाती हैं । उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि चोल काल में कला के क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति हुई ।
धर्म एवं दर्शन -Religion and Philosophy
चोलों के धर्म एवं दर्शन -Chola Religion and Philosophy
चोल काल में धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई । क्योंकि चोल शासक हिन्दू धर्म में विश्वास रखते थे , इसलिए उनके शासनकाल में इस धर्म का अद्वितीय विकास हुआ । चोल शासकों ने अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णुता की नीति अपनाई । चोल काल में धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में हुए विकास का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है
चोल कला का विवरण चोल कला का विवरण
1. शैव धर्म- Saivism — अधिकांश चोल शासक शिव भक्त थे । इसलिए उनके शासनकाल में इस धर्म ने उल्लेखनीय विकास किया । प्राथमिक चोल शासक आदित्य प्रथम ने कावेरी नदी के तट पर विशाल शिव मन्दिरों का निर्माण करवाया था । उसके उत्तराधिकारी परान्तक ने भी चिदम्बरम् स्थित नटराज मन्दिर को स्वर्ण आभूषणों से अलंकृत किया था । महान् चोल शासक राजराज प्रथम ने शैव धर्म की लोकप्रियता को पराकाष्ठा पर पहुंचाने का प्रयास किया । उसने ‘ शिवपादशेखर ‘ की उपाधि को धारण किया । उसने तन्जौर में प्रसिद्ध राजराजेश्वर मन्दिर का निर्माण करवाया । उसके उत्तराधिकारी राजेन्द्र चोल ने भी शैव धर्म के उत्थान में बहुमूल्य योगदान दिया । उसने गंगा के तटवर्ती प्रदेशों से अनेक शैव सन्तों को लाकर अपने राज्य के विभिन्न भागों में बसाया । उसके समय में राजराजेश्वर मन्दिर का निर्माण कार्य पूरा हुआ ।
उसने गंगा के पवित्र जल से अपना राज्याभिषेक करवाया तथा गंगईकोण्डचोलपुरम् नामक नई राजधानी की स्थापना की । चोल शासक कुलोत्तुंग प्रथम शिव का इतना उपासक था कि उसने चिदम्बरम मन्दिर में रखी गोविन्दराज विष्णु की मूर्ति को उखाड़ कर समुद्र में फिंकवा दिया था । चोल शासकों ने शैव सन्तों को ही अपना राजनीतिक गुरु मनोनीत करना शुरू कर दिया था । राजराज प्रथम ने ईशनशिव तथा राजेन्द्र चोल ने सर्वशिव को अपना राजनीतिक गुरु नियुक्त किया था । प्रशासन पर इनका व्यापक प्रभाव था । चोल शासकों के उत्साह को देख कर बड़ी संख्या में लोगों ने भी शैव धर्म को अपनाया । इस प्रकार शैव धर्म चोल काल में बहुत लोकप्रिय हुआ ।
2. वैष्णव धर्म- Vaishnavism — चोलकालीन समाज में शैव धर्म की भान्ति वैष्णव धर्म का भी व्यापक प्रचार एवं प्रसार हुआ । इस काल में अनेक विष्णु मन्दिरों का निर्माण हुआ । वैष्णव सन्त जिन्हें आलवर कहा जाता है , ने इस धर्म को लोकप्रिय बनाने में अथक प्रयास किए । नाथमुनि ने न्यायतत्व की रचना की । इसमें उसने 4000 भक्ति गीतों का संग्रह किया । उन्होंने प्रेम मार्ग के दार्शनिक औचित्य का प्रतिपादन किया । उनके पुत्र आलवांदर अथवा यमुनाचार्य की गणना भी वैष्णव धर्म के प्रसिद्ध आचार्यों में की जाती है । उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति के सिद्धान्तों को अत्यन्त सुन्दर ढंग से अपने शिष्यों के समक्ष प्रस्तुत किया । वैष्णव धर्म को लोकप्रिय बनाने में रामानुज ने निस्सन्देह उल्लेखनीय योगदान दिया ।
उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा जिसे श्रीभाष्य कहा जाता है । उन्होंने शंकर के अद्वैतवाद के सिद्धान्त को मानने से इन्कार कर दिया । उनका विचार था कि ब्रह्म एवं आत्मा दोनों सत्य हैं । उनका विश्वास था कि मुक्ति प्राप्त करने के लिए भगवान् के बारे में ज्ञान प्राप्त करने की अपेक्षा उसकी कृपा अधिक महत्त्वपूर्ण है । रामानुज की शिक्षाओं का लोगों के दिलों पर जादुई प्रभाव पड़ा । वैष्णव धर्म की बढ़ती हुई लोकप्रियता को कट्टर शैव कुलोत्तुंग प्रथम सहन न कर सका । इस कारण रामानुज कुछ समय के लिए होयसल राज्य में चले गए । निम्बार्काचार्य भी एक महत्त्वपूर्ण वैष्णव सन्त थे । उन्होंने वेदान्त परिजात सौरभ एवं सिद्धान्तरत्न की रचना की । इनमें उन्होंने आत्म – समर्पण के मत को प्रतिपादित किया । उनका कथन था कि हमें राधा एवं कृष्ण के प्रति सम्पूर्ण विश्वास रखना चाहिए ।
3. बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म -Buddhism and Jainism – यद्यपि चोल शासक शैव एवं वैष्णव धर्मों में विश्वास रखते थे , तथापि उन्होंने अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता की नीति अपनाई । महान् चोल शासक राजराज प्रथम ने जावा के शैलेंदर शासक को नागापट्टम में एक बौद्ध विहार बनाने की न केवल अनुमति ही दी अपितु इसके लिए आर्थिक सहायता भी दी । कुलोत्तुंग प्रथम ने कैंटन ( चीन ) के बौद्ध विहार के लिए 6 लाख स्वर्ण मुद्राएं प्रदान की थीं । जैन धर्म को भी चोल शासकों ने संरक्षण प्रदान किया था । इस काल में जैन मन्दिरों को कर मुक्त भूमि प्रदान की गई थी । चोल शासक राजराज प्रथम की बहन कुन्दवै ने एक ही स्थान पर शैव , वैष्णव तथा जैन मन्दिरों का निर्माण करवाया था ।