चोल प्रशासन
चोल प्रशासन -Administration Chola
चोल शासकों की राजनीति एवं प्रशासन की विशेषताए
चोल शासक न केवल महान् विजेता तथा साम्राज्य निर्माता ही थे अपितु कुशल शासन प्रवन्धक भी थे । उनकी शासन व्यवस्था इतनी उच्चकोटि की थी कि यह आने वाली कई शताब्दियों तक शासकों की प्रेरणास्रोत रही । चोल प्रशासन की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित थीं
1. केन्द्रीय शासन-Central Administration – राजा अपने प्रशासन का सर्वेसर्वा होता था । उसे अनेक शक्तियां प्राप्त थीं । वह राज्य के सभी महत्त्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्तियां करता था । वह सेना का मुख्य सेनापति होता था । उसकी अनुमति के बिना किसी को भी मृत्यु – दण्ड नहीं दिया जा सकता था । उसके मुख से निकला प्रत्येक शब्द कानून समझा जाता था । इस प्रकार चोल शासकों की शक्तियां किसी तानाशाह से कम नहीं थीं । यह चोल शासकों की महानता थी कि वे कभी इन शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करते थे । उनका मुख्य उद्देश्य अपनी प्रजा का कल्याण करना था । इसलिए वे प्रायः अपने राज्य का भ्रमण करते रहते थे । चोल शासक अपनी प्रजा में इतने लोकप्रिय थे कि वे अपने शासकों तथा उनकी रानियों की मूर्तियां बनाकर मन्दिरों में रखते थे तथा उनकी देवी – देवताओं की तरह पूजा करते थे । शासन व्यवस्था में सहयोग देने के लिए उन्होंने अनेक कर्मचारी नियुक्त किए हुए थे ।
2. प्रान्तीय शासन और अन्य इकाइयां-Provincial Administration and Other Units – शासन व्यवस्था को अच्छे ढंग से चलाने के उद्देश्य से चोल शासकों ने अपने साम्राज्य को 6 प्रान्तों में विभाजित किया हुआ था । इन प्रान्तों को मण्डलम् कहा जाता था । मण्डलम् के मुखिया को वाइसराय कहा जाता था । इस पद पर राजकुमार अथवा शाही परिवार से सम्बन्धित किसी व्यक्ति को राजा द्वारा नियुक्त किया जाता था । उसका प्रमुख कार्य अपने अधीन मण्डलम् में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित करना था । वह अपने सभी निर्देश केन्द्रीय सरकार से प्राप्त करता था । उसकी सहायता के लिए अनेक कर्मचारी नियुक्त किए जाते थे । मण्डलम् कई डिविजनों में विभाजित थे जिन्हें वलनाडू कहा जाता था । प्रत्येक डिविजन में अनेक जिले होते थे जिन्हें नाडू कहा जाता था । ज़िले आगे तहसीलों में विभाजित थे । इन्हें कुर्रम अथवा कोट्टम कहा जाता था । प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम अथवा गांव थी । इन सभी प्रशासनिक इकाइयों में अत्यन्त योग्य एवं ईमानदार कर्मचारियों को नियुक्त किया जाता था ।
3. स्थानीय शासन व्यवस्था -Local Administration – चोल शासन व्यवस्था की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता उनकी उत्तम स्थानीय व्यवस्था थी । गांव अपनी शासन व्यवस्था के लिए पूर्णतः स्वतन्त्र थे । गांवों की शासन – व्यवस्था महासभा नामक संस्था के हाथ में थी । उसका मुख्य कार्य गांव में शान्ति और कानून – व्यवस्था को बनाए रखना था । वह स्कूलों , मन्दिरों , अस्पतालों और सड़कों इत्यादि का गांवों में निर्माण करवाती थी । वह कर एकत्रित करके सरकारी कोष में जमा करवाती थी । किसी प्राकृतिक आपदा के समय उसे कर माफ करने का अधिकार भी था । वह सिंचाई सुविधाओं की भी व्यवस्था करती थी । उसे गांवों के दीवानी तथा फ़ौजदारी मुकद्दमों का निर्णय करने का भी अधिकार प्राप्त था । वह केवल अपराधियों को मृत्युदण्ड नहीं दे सकती थी । इन सभी प्रबन्धों की देख – रेख के लिए महासभा द्वारा 8 समितियां बनाई गई थीं । उर गांव की प्रधान समिति थी । ये सभी समितियां गांव की विभिन्न समस्याओं को सुलझाती थीं ।
राजा इनके मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं करते थे , किन्तु फिर भी राजा के कर्मचारी इस बात को ध्यान में रखते थे कि ये संस्थाएं अपनी शक्ति का दुरुपयोग न करें । महासभा का चुनाव प्रजातन्त्रीय आधार पर किया जाता था । इस सभा का सदस्य बनने के लिए आवश्यक था कि उसकी आयु 35 से 70 वर्ष के बीच हो , उसे वेदों एवं ब्राह्मण ग्रन्थों का पूर्ण ज्ञान हो , निवास के लिए अपना मकान हो , कर देने योग्य हो तथा भूमि का स्वामी हो । जो व्यक्ति पिछले तीन वर्षों में किसी समिति के सदस्य रह चुके हों , जिन्होंने गलत ढंग से धन अर्जित किया हो अथवा जो किसी भी प्रकार के अपराध में सम्मिलित हुए हों वे महासभा के चुनाव के लिए खड़े नहीं हो सकते थे । चुनाव लड़ने वाले सदस्यों के नाम खजूर के पत्तों पर लिखकर मिट्टी के बर्तन में डाल दिए जाते थे तथा बाद में किसी बच्चे को उनमें से एक – एक टिकट बाहर निकालने कहा जाता था । जिन लोगों के टिकट वह बाहर निकालता था , वे चुनाव में सफल हो जाते थे । समिति के सदस्यों को कोई वेतन नहीं दिया जाता था । इस प्रकार हम देखते हैं कि चोल शासन – व्यवस्था में स्थानीय शासन व्यवस्था को विशेष महत्त्व प्राप्त था ।
4. वित्तीय व्यवस्था -Financial Administration – चोल राज्य की आय का मुख्य स्रोत भू – राजस्व था । यह कुल उपज का 1/6 भाग होता था । राजस्व एकत्र करने का कार्य महासभा द्वारा किया जाता था । कृषक अपना भू – राजस्व नकद अथवा उपज के रूप में जमा करवा सकते थे । राजराज के समय कृषि योग्य सारी भूमि की पैमाइश की गई । इसके पश्चात् उपज के आधार पर इसका वर्गीकरण किया गया । राजस्व की दर को भूमि की उपजाऊ शक्ति के आधार पर निश्चित किया गया । सरकार कृषकों के लिए सिंचाई सुविधाओं की व्यवस्था करती थी ।
अकाल अथवा किसी अन्य दैवी विपत्ति के समय कृषकों से लिया जाने वाला भू – राजस्व नहीं लिया जाता था , परन्तु सामान्य परिस्थितियों में यह भू – राजस्व कड़ाई से प्राप्त किया जाता था । इसके अतिरिक्त सरकार को चुंगी कर , व्यवसाय कर , वन कर , खान कर , अपराधियों पर लगाए जाने वाले अर्थदण्ड तथा युद्ध में की गई लूटपाट से भी काफी आय प्राप्त होती थी । सरकार अपनी आय का अधिकांश व्यय जन कल्याण कार्यों पर करती थी । वह नगरों , दुर्गों , सड़कों , पुलों , झीलों तथा तालाब इत्यादि का निर्माण करवाती थी । सरकार मन्दिरों के निर्माण करने , इन्हें दान देने पर भी पर्याप्त धन व्यय करती थी । इनके अतिरिक्त सरकार का मुख्य व्यय राज्य – दरबार , सरकारी कर्मचारियों और सेना पर होता था ।
5. न्याय व्यवस्था -Judicial Administration — चोल शासकों की न्याय व्यवस्था अति उत्तम थी । वे इस बात का विशेष ध्यान रखते थे कि लोगों को पूर्ण न्याय मिले । इस उद्देश्य से राज्य भर में न्यायालय स्थापित किए गए थे । सामान्यतया गांवों के समस्त मामलों पर महासभा में विचार किया जाता था तथा अधिकांश मामले उन्हीं के द्वारा तय किए जाते थे । फ़ौजदारी मुकद्दमों के निर्णय के लिए गवाह का होना आवश्यक माना जाता था । न्यायालयों में ज्यूरी प्रथा लागू की गई थी । राज्य का सबसे बड़ा न्यायालय राजा का ही होता था । मृत्यु दण्ड देने • का अधिकार केवल राजा को ही प्राप्त था । चोल शासकों के समय दण्ड व्यवस्था काफी नरम एवं उदार थी । अधिकांश अपराधियों को अर्थदण्ड ( जुर्माना ) ही दिया जाता था अथवा उन्हें मन्दिर में निरन्तर दीपक जलाने का आदेश दिया जाता था । चोरों और बदमाशों का मुंह काला करके गधों पर बिठाया जाता था । अनजाने में की गई हत्या के लिए 16 गायों का जुर्माना किया जाता था । मृतक व्यक्तियों की स्मृति में मन्दिर में दीप जलाए जाते थे । मृत्यु दण्ड बहुत कम लोगों को दिया जाता था ।
6. सैनिक व्यवस्था -Military Administration — चोल शासकों ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा तथा • विस्तार के लिए सैनिक व्यवस्था की ओर विशेष ध्यान दिया । इनकी महान् विजयों से इस बात का संकेत मिलता है कि उनकी सेना बहुत शक्तिशाली थी । चोल शासक सैन्य प्रशिक्षण तथा अनुशासन पर बहुत बल देते थे । चोल शासकों की स्थल सेना तीन अंगों- पैदल , हाथी तथा घुड़सवार में विभाजित थी । उनके सैनिकों की कुल संख्या 1,50,000 थी । इसके अतिरिक्त उनके पास 60,000 हाथी थे ।
घुड़सवार सेना को शक्तिशाली बनाने के उद्देश्य से अरब से बढ़िया नस्ल के घोड़े मंगवाए जाते थे । चोल शासकों ने अपनी नौसेना को भी अच्छी तरह से संगठित किया । इसी सेना के सहयोग से चोल शासक श्रीलंका , मलाया , जावा और सुमात्रा इत्यादि प्रदेशों को अपने अधीन करने में सफल हुए । राजा समस्त सेनाओं का प्रधान होता था । वह युद्ध के समय सेना का नेतृत्व करता था । चोल शासक राजादित्य तक्कोलम के युद्ध में तथा राजाधिराज कोप्पम के युद्ध में मारे गए थे । नायक , सेनापति तथा महादण्डनायक चोल सेना के उच्चाधिकारी थे । युद्ध में शौर्य प्रदर्शित करने वाले सैनिकों को क्षत्रिय – शिखामणि नामक उपाधि से सम्मानित किया जाता था जो आजकल के परमवीर चक्र जैसी थी । राजा के अंगरक्षक सैनिक होते थे । इन्हें वैलेक्कार कहा जाता था । सैनिकों की सुविधा के लिए समूचे चोल साम्राज्य में अनेक सैनिक छावनियां बनाई गई थीं , जिन्हें कडगम् कहा जाता था ।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि चोल शासकों ने एक आदर्श शासन व्यवस्था की स्थापना की थी । अन्त में हम डॉक्टर एम ० एन ० वैंकटरमनप्पा के इन शब्दों से सहमत हैं , ” तमिल राज्यों के इतिहास में सबसे संगठित तथा उच्चकोटि का शासन प्रबन्ध लागू करने का श्रेय चोल शासकों को प्राप्त है ।