चोल वंश का विकास एवं पतन
चोल वंश का विकास एवं पतन -Rise , Growth and Downfall of the Cholas-
चोल वंश- Chola Dynasty-
दक्षिण में चोल शक्ति के उत्थान एवं विकास के सम्बन्ध में संक्षिप्त वर्णन
चोल वंश की गणना दक्षिण भारत के अत्यन्त प्राचीन वंशों में की जाती है । महाभारत में अनेक बार चोलों का उल्लेख हुआ है । मैगस्थनीज़ ने दक्षिण भारत का विवरण देते हुए चोलों का वर्णन किया है । अशोक के दो शिलालेखों में चोलों का उल्लेख उन राज्यों के साथ किया गया है जो उसके साम्राज्य के पड़ोसी एवं मित्र राज्य थे । टालमी के अनुसार उसके समय में दक्षिण भारत में चोलों के दो राज्य थे । दक्षिण राज्य की राजधानी ओर्थोरा ( उरैयूर ) तथा उत्तरी राज्य की राजधानी अर्कटीज ( अर्काट ) थी ।
पेरिप्लस ऑफ एरीथ्रियन सी के अज्ञात यूनानी लेखक ने चोलों की प्रमुख बन्दरगाहों से होने वाले व्यापार का वर्णन किया है । चोलों तथा श्रीलंका के मध्य घनिष्ठ सम्बन्धों का उल्लेख वहां के दो ग्रन्थों दीपवंश तथा महावंश में किया गया है । संगम साहित्य में भी अनेक चोल शासकों का विवरण दिया गया है । चोल साम्राज्य के उत्थान एवं विकास में जिन शासकों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया उनका विवरण निम्न अनुसार है
1. करिकाल-Karikala — प्रारम्भिक चोल शासकों में करिकाल सर्वाधिक विख्यात शासक था । करिकाल का बचपन में एक पांव जल गया था । इस कारण उसका यह नाम पड़ा । उसका शासनकाल द्वितीय शताब्दी में माना जाता है । वह एक शक्तिशाली तथा महत्त्वाकांक्षी शासक था । उसने पुहार अथवा कावेरीपट्टनम को अपने राज्य की राजधानी घोषित किया । करिकाल की बढ़ती हुई शक्ति पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से पाण्ड्य तथा चेर शासकों ने 11 मित्र सामन्त शासकों के साथ मिलकर एक संघ का गठन किया । करिकाल ने वेण्णि पर आक्रमण करके इस संघ की संयुक्त सेनाओं को कड़ी पराजय दी । यह विजय उसके जीवन में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ प्रमाणित हुई ।
एक अन्य महत्त्वपूर्ण लड़ाई जो वाहैप्परन्दलै में हुई करिकाल ने 9 अन्य छोटे शासकों के एक संघ को परास्त किया । करिकाल की विजयों से आतंकित होकर एयिनार , ओलियार तथा अरुवालर के शासकों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली । उसके शासनकाल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना श्रीलंका की विजय थी । वह श्रीलंका से 12,000 लोगों को दास बनाकर अपने साथ ले आया था । इन दासों से उसने कावेरी नदी पर 160 किलोमीटर लम्ब 186 बनवाया । करिकाल एक महान् विजेता होने के साथ – साथ एक कुशल शासन प्रबन्धक भी था । उसने कृषि तथा व्यापार को प्रोत्साहन दिया । उसने जनहित के लिए अनेक कार्य भी किए । उसने अपने दरबार में अनेक कवियों को संरक्षण प्रदान किया । वह वैदिक धर्म में विश्वास रखता था तथा उसने अनेक यज्ञ भी करवाए । विख्यात इतिहासकार एस ० के ० अयंगर के अनुसार , ” वह एक असाधारण शासक था , जिसने अपनी प्रजा के कल्याण के लिए बहुत कुछ किया एवं जिसके परिणामस्वरूप आने वाली पीढ़ियां उसे उपकारी और समझदार सम्राट् के रूप में स्मरण करती रहीं ।
2. करिकाल के उत्तराधिकारी-Successors of Karikala – करिकाल के उत्तराधिकारी बहुत अयोग्य एवं दुर्बल निकले । परिणामस्वरूप चोल राज्य का तीव्र गति से पतन आरम्भ हो गया । चेर और पाण्ड्य शासकों ने इस स्वर्ण अवसर का लाभ उठाकर चोल राज्य के अनेक क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया तथा इसकी राजधानी कावेरीपट्टनम को पूर्णत : नष्ट कर दिया । जो कुछ प्रदेश शेष रह गए थे , उन पर पल्लवों ने अधिकार करके चोलों की शक्ति को लगभग चतुर्थ शताब्दी में समाप्त कर दिया । सम्भवतः वे पल्लव वंश के सामन्त बन गए थे । उनकी यह स्थिति नौवीं शताब्दी ई ० के मध्य तक बनी रही ।
3. विजयालय 850-71 ई ० -Vijayalya 850-71 A.D. — अनेक शताब्दियों तक चोल वंश का दक्षिणी भारत की राजनीति में नगण्य भूमिका रही । नौवीं शताब्दी के मध्य उसका पुनः उत्कर्ष हुआ । इसका श्रेय चोल शासक विजयालय को जाता है । उसने 850 ई ० से 871 ई ० तक शासन किया । यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वह करिकाल के वंश से सम्बन्धित था अथवा नहीं । वह पल्लवों का सामन्त था । उसने पल्लवों और पाण्ड्यों के मध्य चलने वाले संघर्ष का लाभ उठाकर तन्जौर पर अपना अधिकार कर लिया तथा उसे अपने राज्य की राजधानी घोषित किया । इस विजय के उपलक्ष में विजयालय ने तंजौर में दुर्गा का एक मन्दिर बनवाया । इस प्रकार विजयालय ने चोल वंश की पुनः प्रतिष्ठा स्थापित की ।
4. आदित्य प्रथम 871-907 ई ०-Aditya I 871-907 A.D. – 871 ई ० में विजयालय की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र आदित्य प्रथम सिंहासन पर बैठा । उसने 907 ई ० तक शासन किया । उसने पल्लवों एवं पाण्ड्यों में चलने वाले संघर्ष में पल्लवों को सहयोग दिया । इससे प्रसन्न होकर पल्लव शासक अपराजित ने न केवल तंजौर पर चोलों का अधिकार स्वीकार किया अपितु अपने राज्य का कुछ प्रदेश भी सौंप दिया । इससे आदित्य प्रथम की महत्त्वाकांक्षा बढ़ गई । उसने पल्लव राज्य पर आक्रमण कर अपराजित को मार डाला तथा तोंडमण्डलम् पर अधिकार कर लिया । इस प्रकार पल्लव वंश का अन्त हो गया । इसके पश्चात् आदित्य प्रथम ने पाण्ड्य शासक के कोंगु तथा गंग शासक से तलकाड के प्रदेश विजित कर लिए । उसने चेर शासक के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए तथा अपने पुत्र परान्तक प्रथम का विवाह उसकी पुत्री के साथ कर दिया । वह न केवल एक सफल योद्धा ही था अपितु एक महान् कला प्रेमी भी था । उसने अपने राज्य में अनेक शिव मन्दिरों का निर्माण करवाया ।
5. परान्तक प्रथम 907-55 ई ०- Parantaka I 907-55 A.D. – 907 ई ० में आदित्य प्रथम का पुत्र परान्तक प्रथम राज सिंहासन पर प्रतिष्ठित हुआ । उसने 955 ई ० तक शासन किया । उसने चोल राज्य के विस्तार की नीति को जारी रखा । उसने 915 ई ० में पाण्ड्यों तथा श्रीलंका की संयुक्त सेनाओं को बेल्लूर में परास्त करके मदुरा पर अधिकार कर लिया । इस विजय के उपलक्ष में उसने मदुरइकोण्ड की उपाधि धारण की । उसका राष्ट्रकूटों के साथ दीर्घकालीन संघर्ष चलता रहा । इस संघर्ष के प्रथम चरण में परान्तक प्रथम ने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय को पराजित किया ।
संघर्ष के दूसरे चरण में राष्ट्रकूटों के नए शासक कृष्ण तृतीय ने 949 ई ० तक्कोलम के युद्ध में चोल शासक को पराजित करके तन्जौर पर अधिकार कर लिया । इससे चोल शक्ति को गहरा आघात लगा । युद्धों में व्यस्त रहने के बावजूद परान्तक ने प्रशासन व्यवस्था की ओर भी काफी ध्यान दिया । उसने कृषि की पैदावार बढ़ाने के उद्देश्य से अनेक नहरों का निर्माण करवाया । यह शिव का उपासक था । अतः उसने अपने राज्य में अनेक शिव मन्दिर बनवाए । उसने संस्कृत साहित्य को प्रोत्साहन दिया ।
6. 955 ई ० से 985 ई ० के मध्य चोल राज्य की स्थिति -Position of Chola Empire between 955 , 985 A.D. – 955 ई ० में परान्तक प्रथम की मृत्यु से लेकर 985 ई ० में राजराज के राज्यारोहण के मध्य के समय को चोल राज्य का अवनति का काल कहा जाता है । इस समय के दौरान गंडरादित्य , अरिजै , परान्तक द्वितीय , सुन्दर चोल तथा उत्तम चोल नामक शासकों ने राज्य किया | दुर्बल होने के कारण इन शासकों की दक्षिण भारत को राजनीति में नगण्य भूमिका रही ।
7. राजराज महान् -Rajaraja the Great – चोल वंश का सबसे प्रतापी शासक राजराज था । उसे राजराज महान् के नाम से याद किया जाता है । उसने 985 ई ० से 1014 ई ० तक राज्य किया । अब तक के चोल शासकों ने अपनी विजयों का प्रसार सुदूर दक्षिण तक ही सीमित रखा था । परन्तु राजराज पहला चोल शासक था जिसने दक्षिण तथा उत्तर दोनों को अपना निशाना बनाया । उसने वैंगी के चालुक्यों , मदुरा के पाण्ड्यों तथा भेरा के गंगों को पराजित किया । उसने लंका के राजा के दांत खट्टे किए । उत्तर पूर्व में उसकी सबसे महान् विजय कलिंग विजय थी । इस प्रकार उत्तर में कलिंग तथा दक्षिण में श्रीलंका तक को जीत कर राजराज ने अपनी शक्ति का दबदबा बैठा दिया । वह पहला शासक था जिसने जल – सेना की व्यवस्था की । ऐसा उसने अपने तटीय क्षेत्रों की रक्षा के लिए किया । वीर होने साथ – साथ राजराज एक योग्य प्रशासक भी था ।
उसने भूमि का निरीक्षण करवाया और कृषि को प्रोत्साहन दिया । उसने अपने जीवन काल में ही अपने पुत्र राजेन्द्र को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया । इस प्रकार उसने गद्दी के लिए होने वाले युद्ध की सम्भावना कम कर दी । राजराज शिव का उपासक था । उसने तन्जौर में प्रसिद्ध ‘ राजराजेश्वर मन्दिर ‘ का निर्माण करवाया । इस मन्दिर के खर्च के लिए उसने कई गांवों की आय निश्चित कर दी । शैव होने के साथ – साथ राजराज अन्य धर्मों के प्रति भी सहनशीलता का व्यवहार करता था । उसने विष्णु भगवान् के अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया । इस प्रकार राजराज एक महान् सफल विजेता , कुशल प्रशासक और प्रभावशाली राजा था । वी ० पी ० तथा के ० एस ० बहेरा के अनुसार , । ” राजराज महान् चोल वंश का सबसे महान् शासक था तथा उसने इस वंश को उन्नति के शिखर पर पहुंचाया ।
8. राजेन्द्र चोल -Rejendra Chola — राजराज के पश्चात् राजेन्द्र चोल ने गद्दी सम्भाली । वह भी एक शक्तिशाली राजा था । उसने 1014 ई ० से 1044 ई ० तक राज्य किया । क्योंकि उसे पहले ही युवराज घोषित कर दिया गया था , इसलिए उसने प्रशासकीय कार्यों में काफी निपुणता प्राप्त कर ली थी । उसने पिता के साथ अनेक युद्धों में भाग था , इसलिए वह युद्ध – कला में विशेष रूप से निपुण था । वह भी एक साम्राज्यवादी शासक था । उसने अपने पिता का अधूरा काम पूरा किया । उसने मैसूर के गंग लोगों को और पाण्ड्यों को परास्त किया । उसने अपनी विजय पताका श्रीलंका में भी फहरा दी ।
उसने लगभग सम्पूर्ण श्रीलंका को अपने अधीन कर लिया था । यही नहीं उसने बंगाल , बिहार और उड़ीसा के शासकों के विरुद्ध भी संघर्ष किए और सफलता प्राप्त की । उसकी सबसे महान् सफलता श्री विजय साम्राज्य के विरुद्ध थी । इस विजय के परिणामस्वरूप राजेन्द्र प्रथम का मलाया , जावा , सुमात्रा आदि क्षेत्रों पर अधिकार हो गया था । इस विजय के परिणामस्वरूप राजेन्द्र प्रथम के गौरव में बहुत वृद्धि हुई । इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत का चीन के साथ व्यापार मार्ग भी खुल गया । चारों दिशाओं में उसकी कीर्ति की चर्चा होने लगी । वह महान् विजेता होने के साथ – साथ कुशल शासन प्रबन्धक भी था । उसने कला और साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया । उसने गंगईकोण्ड चोलपुरम् में अपनी नई राजधानी की स्थापना की । इस नगर को उसने अनेक भवनों तथा मन्दिरों से सुसज्जित करवाया । शिक्षा के प्रसार के लिए उसने एक वैदिक कॉलेज की स्थापना की । इन सभी विशेषताओं के कारण उसके शासनकाल को चोल वंश का स्वर्ण युग माना जाता है ।
चोल वंश का पतन-Downfall of the Cholas
राजेन्द्र चोल के उत्तराधिकारियों को वेंगी और कल्याणी के चालुक्यों के साथ एक लम्बे और भयंकर संघर्ष में भाग लेना पड़ा । चोल राजा कुलोत्तुंग प्रथम ने वेंगी के चालुक्यों को पराजित करके उनके प्रदेश पर अधिकार कर लिया था । उसका शासनकाल ( 1070 ई ० से 1118 ई ० ) चीन तथा दक्षिण – पूर्वी एशिया के साथ व्यापार करने के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध था । उसने 1077 ई ० में 70 व्यापारियों का एक दल दूतों के रूप में चीन भेजा था । चोलों का चालुक्यों के साथ वेंगी प्रदेश पर आधिपत्य के लिए चलने वाले दीर्घ संघर्ष के कारण चोलों की शक्ति को काफी हानि पहुंची । इस स्थिति का लाभ उठाकर 13 वीं शताब्दी के अन्त में चोल राज्य के अधीन सामन्तों जैसे देवगिरि के यादव , वारंगल के काक्तीय , द्वार समुद्र के होयसल तथा मदुराई के पाण्ड्य ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी । इस प्रकार चोल वंश का पतन आरम्भ हो गया । 1310 ई ० में अलाऊद्दीन ख़लजी के सेनापति मलिक काफूर ने चोल वंश के प्रदेशों पर अधिकार करके इसका अन्त कर दिया ।