चोलों के अधीन आर्थिक जीवन

चोलों के अधीन आर्थिक जीवन -Economic Life under the Cholas

चोल काल में लोगों के आर्थिक जीवन-

चोलों के अधीन आर्थिक जीवन-   1. कृषि -Agriculture  — चोल काल में लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था । इसका मुख्य कारण यह था कि दक्षिण भारत की भूमि अत्यन्त उपजाऊ थी । भूमि को हलों के द्वारा जोता जाता था । कृषक सिंचाई के लिए मुख्य तौर पर वर्षा पर निर्भर करते थे । चोल शासकों ने कृषि को प्रोत्साहन देने के लिए अनेक पग उठाए । चोल शासक राजराज प्रथम ने कृषि योग्य सम्पूर्ण भूमि की पैमाइश करवाई । भूमि को उसकी उपजाऊ शक्ति के आधार पर 12 वर्गों में बांटा गया । भू – राजस्व की दर भूमि की उपजाऊ शक्ति के आधार पर अलग – अलग निश्चित की गई । कृषकों को यह छूट दी गई कि वे सरकार को दिए जाने वाले भू – राजस्व को अनाज अथवा नकद किसी भी रूप में जमा करवा सकते थे । दुर्भिक्ष के समय सरकार द्वारा भू – राजस्व या तो माफ कर दिया जाता था या उसमें कमी कर दी जाती थी ।

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चोल शासकों ने सिंचाई साधनों को विकसित करने के लिए विशेष प्रयास किए । इस उद्देश्य से उन्होंने राज्य भर में अनेक तालाबों , झीलों एवं नहरों का निर्माण किया । उन्होंने कवेरी नदी पर बांध भी बनाया । इस काल में कृषि के लिए लोहे के अनेक नए औज़ार भी बनाए गए । अतः कृषि क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए । इस काल में फसलों का भरपूर उत्पादन होता था । इस काल की प्रमुख फसलें चावल , गन्ना , रागी एवं नारियल थीं । इनके अतिरिक्त अनेक प्रकार की सब्जियों , फलों तथा अन्य अनाजों का भी उत्पादन होता था । उस समय वल्लाल अथवा धनी कृषक बड़े – बड़े खेतों के स्वामी होते थे । वे स्वयं कृषि नहीं करते थे । यह कार्य वे मज़दूरों से करवाते थे , जिन्हें कडैसियर कहा जाता था । वल्लाल कडैसियरों का बहुत शोषण करते थे । इसलिए उनकी आर्थिक स्थिति बहुत शोचनीय थी ।

2. पशुपालन- Rearing of Animals — चोल काल में गांवों में अनेक लोग पशुपालन का कार्य करते थे । पशुपालन को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से चोल शासकों ने गांवों में विशेष चरागाहें स्थापित की थीं । इन चरागाहों को गांवों की कृषि योग्य भूमि से पर्याप्त दूर रखा जाता था ताकि पशु फसलों को कोई हानि न पहुंचाएं । उस समय लोग जिन पशुओं का पालन करते थे , उनमें प्रमुख गाय , भैंस , बैल , भेड़ , ऊंट , खच्चर एवं हाथी थे । इन पशुओं से दूध , दही , घी , चमड़ा एवं ऊन आदि प्राप्त करते थे । बैलों का प्रयोग कृषि कार्यों के लिए किया जाता था । ऊंटों , खच्चरों एवं हाथियों का माल ढोने के लिए किया जाता था । अनेक लोग मन्दिरों गाय , भैंस एवं भेड़ आदि दान में देते थे । इन पशुओं की देखभाल के लिए चोल शासकों ने मन्दिरों को कर मुक्त भूमि दान में दी थी । अनेक चोल अभिलेखों से हमें पशुओं के विक्रय एवं उनके मूल्यों का विवरण प्राप्त होता है । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि चोल काल में पशुपालन अर्थव्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन चुका था ।

3. उद्योग -Industries — चोल काल में उद्योगों का भी पर्याप्त विकास हुआ । इस काल का सर्वाधिक प्रसिद्ध उद्योग वस्त्र उद्योग था । यहां सूती , मलमल एवं रेशमी वस्त्र बड़ी मात्रा में तैयार किए जाते थे । वस्त्रों की रंगाई एवं छपाई का व्यवसाय भी उन्नत दशा में था । चीनी लेखक चाऊ – जु – कुआ ने चोल वस्त्रोद्योग की बहुत प्रशंसा की है । यहां का दूसरा महत्त्वपूर्ण उद्योग धातु उद्योग था । चोल काल में विभिन्न धातुओं के मिश्रण से सुन्दर एवं आकर्षक मूर्तियों को ढालने की कला अपने विकास की पराकाष्ठा पर थी । इसके अतिरिक्त इस काल में उत्तम प्रकार की तलवारें , ढालें , बरछे , भाले , कवच तथा कृषि उपकरण तैयार किए जाते थे । चोल काल में आभूषण उद्योग , मृद्भाण्ड उद्योग एवं चीनी उद्योग भी काफ़ी विकसित थे ।

4. आय के साधन -Sources of Income  – चोल राज्य की आय का प्रमुख साधन भू – राजस्व था । इसलिए चोल शासक कृषि की पैदावार बढ़ाने एवं भू – राजस्व को वसूलने के ढंगों पर विशेष ध्यान देते थे । चोल शासकों राजराज प्रथम तथा कुलोत्तुंग प्रथम ने भूमि सर्वेक्षण करवाया था । इससे भू – राजस्व के मूल्यांकन में सुगमता हो जाती थी । तिरुमंगलम् ( तंजौर ) के एक अभिलेख के अनुसार सरकारी भू – स्वामित्व एवं वास्तविक भू – स्वामित्व में अन्तर को देखते हुए वहां पुनः भू – सर्वेक्षण किया गया था । भूमि की उर्वरता के अनुसार भू – राजस्व की दर कम या अधिक होती थी । चोल अभिलेखों में भूमि की 12 किस्मों के विवरण प्राप्त हैं । उपज का कितना भाग आमतौर पर भू – राजस्व के रूप में लिया जाता था  का निश्चित रूप से ज्ञान नहीं है ।

राजराज प्रथम के शासन काल में यह सर्वाधिक कुल उपज का 1/3 भाग था । राजस्व विभाग के लेखा रजिस्टर को ‘ वरित्पोत्तराककपाक्क ‘ कहा जाता था । इसमें सभी प्रकार के भूमि के ब्योरे दर्ज किए जाते थे । कृषकों को यह सुविधा थी कि वे अपना भू – राजस्व नकद अथवा अनाज के रूप में जमा करवा सकते थे । अकाल अथवा अन्य दैवी आपदाओं के समय भू – राजस्व या तो माफ कर दिया जाता था या उसमें कमी कर दी जाती थी । प्रत्येक गांव में कुछ भूमि कर मुक्त होती थी । इसे ‘ इरैयिल ‘ कहते थे । राजराज प्रथम के तंजौर अभिलेख से विदित होता है कि मन्दिरों , तालाबों , गांव से होकर जाने वाली नहरों , चाण्डालों की बस्तियों , कारीगरों एवं शिल्पियों के भवनों तथा श्मशान भूमि पर कर नहीं लगता था ।

चोल अभिलेखों में विभिन्न प्रकार के अन्य करों की एक लम्बी सूची मिलती है । इनमें प्रमुख कर इस प्रकार हैं

  1. मरमंजाडि – यह प्रत्येक उपयोगी वृक्ष पर लिया जाने वाला कर था ।
  2. कडमै – यह सुपारी के वृक्षों पर लगाया जाने वाला कर था ।
  3.  मनैइरै – यह गृह कर था ।
  4. मगन्मै – यह बढ़ई , स्वर्णकार , लुहार तथा कुम्हारों से लिया जाने वाला कर था ।
  5. पाडिकवल – यह गांव की चौकीदारी का कर था ।
  6. कडैइरै – यह दुकान पर लगने वाला कर था ।
  7. आजीवक्क्काशु – यह आजीविकों पर लगने वाला कर था ।
  8. दण्डम – यह अपराधियों से वसूल किए जाने वाला कर था ।
  9. किडाककाशु – यह प्रत्येक नर पशु पर लगने वाला कर था ।
  10. पेवरि – यह तेलियों पर लगने वाला कर था ।

चोल अभिलेखों में वर्णित अनेक करों के अर्थ स्पष्ट नहीं हैं । नियमित करों के साथ – साथ स्थानीय संस्थाएं भी कर वसूल करती थीं । उदाहरण के लिए 922 ई ० के एरोडे के एक अभिलेख में बतलाया गया है कि नाडु के लोगों ने एरोडे के विष्णु मन्दिर में कृष्ण की पूजा हेतु प्रत्येक घर से ½ पणम् , प्रत्येक विवाह के अवसर पर वर एवं वधु दोनों पक्षों से 1/8 पणम् , प्रत्येक श्मशान से 1 मंजाडि तथा 1 कुंरि सोना कर के रूप में लिया जाता था । इसी वर्ष बाहरनाडु के गडेरियों ने अपने समाज के प्रत्येक विवाह के अवसर पर पेरुमल ( विष्णु ) के एक मन्दिर हेतु एक भेड़ देना निश्चित किया था ।

1174 ई ० में कांचीपुर में तेलियों की एक श्रेणी ने यह तय किया था कि मन्दिर के प्रांगण में लगे प्रत्येक कोल्हू मिल के मालिक से उस मन्दिर में दीपक जलाने के लिए चन्दे के रूप में 1 कडमप तथा 1 काशु प्रतिवर्ष लिया जाएगा । कर मुख्यतः स्थानीय संस्थाओं द्वारा वसूल किए जाते थे , किन्तु उनके कार्यों की जांच – पड़ताल के लिए केन्द्रीय अधिकारी नियुक्त किए जाते थे । करों की वसूली के लिए लोगों पर सख्ती की जाती थी । कर अदा न करने वाले लोगों को पानी में डालने तथा धूप में खड़ा रखने का प्रावधान था । करों के बकाया रहने पर सम्बन्धित व्यक्ति की सम्पत्ति को कुर्क कर लिया जाता था तथा उसकी भूमि नीलाम कर दी जाती थी ।

चोल अभिलेखों में ऐसे व्यक्तियों के उदाहरण मिलते हैं जो कर अदा न कर सकने के कारण छुपकर पड़ोसी राज्यों में चले गए अथवा जिन्होंने कर की अदायगी के लिए कर्ज़ लिए । राजेन्द्र द्वितीय के शासनकाल में जम्बैगांव की एक महिला को कर अदा करने के लिए इतना उत्पीड़ित किया गया कि उसने आत्महत्या कर ली । कभी – कभी मन्दिरों को भी कर अदा करने के लिए अपनी ज़मीनें बेचनी पड़ती थीं । राजराज तृतीय तथा कुलोत्तुंग प्रथम के शासन काल में लोगों ने अन्यायपूर्ण करों के विरुद्ध विद्रोह किए ।

5. व्यापार एवं संघ-Trade and Guilds  — चोल काल व्यापार की उन्नति के लिए विशेष तौर पर प्रसिद्ध था । इस काल में आन्तरिक एवं विदेशी दोनों ही व्यापार खूब प्रगति पर थे । व्यापार को प्रोत्साहन देने में चोल शासकों ने बहुमूल्य योगदान दिया । राजराज प्रथम एवं राजेन्द्र चोल ने अपनी विजयों द्वारा एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी । इस साम्राज्य में चारों ओर शान्ति व्याप्त थी , जिससे व्यापार को प्रोत्साहन मिला । चोल साम्राज्य में सड़कों का जाल बिछाया गया तथा बन्दरगाहों को उन्नत किया गया । व्यापारियों को विशेष सुविधाएं प्रदान की गईं तथा उनकी सुरक्षा के प्रबन्ध किए गए । बड़ी मात्रा में सोने के सिक्के जारी किए गए । आन्तरिक व्यापार मुख्यतः वस्तु विनिमय ( Barter System ) द्वारा होता था । चोल व्यापार के विकास में व्यापारिक संघों ने उल्लेखनीय योगदान दिया । चोल काल में विभिन्न व्यापारियों ने अपने – अपने संघों की स्थापना की थी । इन संघों को नगरम कहा जाता था । इन संघों का सम्बन्ध बड़े – बड़े संघों के साथ होता था , जिन्हें मणिग्रामम तथा ऐण्णुड्डुड्डुवार कहा जाता था ।

ये व्यापारी संघ मांग एवं पूर्ति का आंकलन करके अनेक स्थानों से माल खरीद कर उपभोग वाले क्षेत्र में पहुंचाते थे । इन संघों के व्यापारी बड़े – बड़े नगरों में माल बेचने के लिए अपनी मण्डियां लगाते थे । व्यापारी भारवाहक पशुओं पर एक स्थान से दूसरे जाते थे । ये व्यापारी दक्षिण भारत से मोती , बहुमूल्य स्थान पर कारवां के रूप में आते थरों , सोना , चन्दन , काली मिर्च , इलायची , नारियल , लौंग , कस्तूरी एवं सुगन्ध की वस्तुओं को उत्तरी भारत में बेचते थे । उत्तरी भारत से ये व्यापारी मलमल , रेशम , सुपारी , पटसन , चावल एवं हाथी दांत आदि को खरीद कर दक्षिण भारत में बेचते थे । उस समय के व्यापारी सदाचारी एवं ईमानदार हुआ करते थे । वे कभी भी अपने ग्राहकों का अनुचित शोषण नहीं करते थे । इन संघों के अपने झण्डे , निजी सुरक्षा सेना तथा बैंक हुआ करते थे । इन संघों द्वारा तैयार माल का सरकार द्वारा निरीक्षण किया जाता था । ये संघ बहुत अमीर होते थे । वे शासकों को बहुमूल्य उपहार भेंट करते थे । वे लोक – भलाई कार्यों के लिए दान भी देते थे । उन्होंने अनेक मन्दिरों के निर्माण में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया ।

6. समुद्र पार व्यापार- Overseas Trade — चोल काल में समुद्र पार व्यापार अथवा विदेशी व्यापार के क्षेत्र में अद्वितीय प्रगति की । इस दिशा में चोल शासकों ने उल्लेखनीय योगदान दिया । उन्होंने अपने राज्य में उन्नत प्रकार की बन्दरगाहें स्थापित कीं । उन्होंने विशाल मात्रा में सोने के सिक्के जारी किए । उन्होंने एक शक्तिशाली नौसेना का गठन किया । राजराज प्रथम एवं राजेन्द्र प्रथम ने श्रीलंका एवं श्री विजय ( इसमें मलाया , प्रायद्वीप , जावा एवं सुमात्रा सम्मिलित थे ) साम्राज्यों पर विजय प्राप्त करके उन्हें अपने साम्राज्यों में सम्मिलित कर लिया था ।

इन विजयों के परिणामस्वरूप चोल साम्राज्य के समुद्र पार व्यापार के मार्ग में आने वाली एक बड़ी बाधा दूर हो गई । बन्दरगाहों के निकट बड़े – बड़े गोदाम घर स्थापित किए गए थे । इन गोदामों में निर्यात अथवा आयात किए जाने वाले माल को सुरक्षित रखा जाता था । विदेशों से आने वाले व्यापारियों के लिए सुरक्षित निवास स्थानों का प्रबन्ध किया जाता था । चोल शासकों की ओर से व्यापारिक संघों को समुद्र पार व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिए विशेष सुविधाएं प्रदान की गई थीं । समुद्र पार जाने वाले व्यापारियों सुरक्षा का भी विशेष ख्याल रखा जाता था । चोल शासकों ने चीन के साथ व्यापार को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से 1015 ई ० , 1033 ई ० एवं 1077 ई ० में तीन प्रतिनिधि मण्डल चीन भेजे ।

चोल काल में भारत का व्यापार मुख्यतः चीन एवं दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों के साथ चलता था । भारतीय व्यापारी बड़े – बड़े जहाज़ों में अपना माल लाद कर इन देशों में ले जाते थे । इनमें मुख्यतः बहुमूल्य पत्थर , हीरे , हाथी दांत , चन्दन की लकड़ी , सूती वस्त्र , गर्म मसाले , नारियल तथा औषधियां आदि सम्मिलित थे । इन देशों से वे घोड़े,  रेशम , शीशा एवं विभिन्न प्रकार की धातुओं का आयात करते थे । क्योंकि विदेशों में भारतीय वस्तुओं की बहुत मांग थी इसलिए समुद्र पार व्यापार भारतीयों के पक्ष में था । इस व्यापार के चलते जहां भारी मात्रा में विदेशी सोना भारत पहुंचा , वहीं भारतीय व्यापारी आर्थिक पक्ष से बहुत समृद्ध हो गए थे ।

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