गुप्त काल के लोगों के सामाजिक , आर्थिक तथा धार्मिक जीवन
गुप्त काल के लोगों के सामाजिक , आर्थिक तथा धार्मिक जीवन | Gupt Kaal Ke Logon Ke Saamaajik , Aarthik Tatha Dhaarmik Jeevan-
गुप्तकालीन समाज एक निखरा हुआ रूप लिए हुआ था । इस युग में लोगों के सामाजिक जीवन में एक नवस्फूर्ति का संचार हुआ और इसे एक नई दिशा मिली । आर्थिक क्षेत्र में व्यापार की दशा उन्नत थी । उद्योग विकसित थे । लोग समृद्ध तथा धन – धान्य से प रिपूर्ण थे । गुप्त काल में हिन्दू धर्म का समुद्र फिर से ठाठें मारने लगा था । इसके अतिरिक्त बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म भी समाज में अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए हुए थे । इस प्रकार यदि गुप्त समाज को एक आदर्श समाज कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
गुप्त काल के सामाजिक , आर्थिक और धार्मिक जीवन का वर्णन –
सामाजिक जीवन -Social Life
1. संयुक्त परिवार प्रणाली -Joint Family System – गुप्त काल में संयुक्त परिवार प्रणाली प्रचलित परिवार का सबसे बुजुर्ग व्यक्ति उसका प्रधान होता था । वही सम्पूर्ण परिवार की देखभाल करता था । गुप्तकालीन समाज में पिता के जीवन काल में सम्पत्ति का बंटवारा बुरा समझा जाता था । सम्पत्ति में पुत्रों को बराबर का अधिकार दिया जाता था , परन्तु पुत्रियों को कोई भाग नहीं दिया जाता था । पुत्र के अभाव में पुत्री पैतृक सम्पति की अधिकारिणी होती थी । गुप्त काल में पिता की मृत्यु के बाद भी प्रायः पुत्र अलग नहीं होते थे ।
2. जाति प्रथा -Caste System – गुप्तकालीन सामाजिक जीवन में जाति प्रथा एक प्रमुख विशेषता थी । उस समय का समाज चार प्रमुख जातियों ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य तथा शूद्र में विभक्त था । प्रत्येक जाति के अपने – अपने नियम होते थे । ब्राह्मणों को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था । उनका कर्त्तव्य अध्ययन , अध्यापन एवं यज्ञ करना था । वे राज पुरोहित का कार्य भी करते थे । ब्राह्मणों को विशेष अधिकार प्राप्त थे । वे करों से मुक्त थे तथा उन्हें बड़े से बड़ा अपराध करने पर भी मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था । क्षत्रिय प्रायः शासक तथा सैनिक होते थे । समाज में उन्हें दूसरा स्थान प्राप्त था । समाज में तीसरा स्थान वैश्यों को प्राप्त था । वे कृषि , पशुपालन , वाणिज्य तथा व्यापार का कार्य करते थे ।
समाज में चौथा स्थान शूद्रों को प्राप्त था । उनका मुख्य कार्य ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करना था । इस काल में शूद्रों की स्थिति में कुछ सुधार आया था । अब उन्हें रामायण , महाभारत तथा पुराण सुनने का अधिकार मिल गया था । वे अन्य जातियों के साथ ग्रामों तथा नगरों में रहते थे । गुप्त काल में जातीय नियम जटिल नहीं थे । एक जाति में जन्म लेने वाला व्यक्ति दूसरी जाति के कार्य को अपना सकता था । फाहियान ने अनेक ब्राह्मण राजाओं का उल्लेख किया है । इस काल में क्षत्रिय व्यापार तथा वैश्य नौकरी करते थे । शूद्रों ने भी कृषि के धन्धे को अपनाया हुआ था ।
3. अस्पृश्यता – Untouchability – गुप्त काल में अस्पृश्यता भी प्रचलित थी । तत्कालीन समाज में अस्पृश्य जातियों को चाण्डाल कहा जाता था । ये लोग शवों को जलाने , पशुओं को मारने तथा अपराधियों का वध करने इत्यादि का कार्य करते थे । उनकी बस्तियां नगर से बाहर होती थीं । वे रात को नगरों में घूम नहीं सकते थे । दिन के समय भी नगर में प्रवेश करते हुए वे लकड़ी के टुकड़ों को बजाते आते , ताकि लोगों को उनके आगमन की सूचना मिल जाए । उच्च जातियों के लोग उनसे दूर रहते थे , क्योंकि उनके स्पर्श को अपवित्र समझा जाता था ।
4. दासता -Slavery – तत्कालीन साहित्य से दास प्रथा का उल्लेख मिलता है । विशेष परिस्थितियों में ही लोग दास बनते थे । युद्ध बन्दी दास के रूप में जीवन व्यतीत करता था । ऋण का भुगतान न करने वाला व्यक्ति भी दास का जीवन व्यतीत करता था । जुआ हार कर शर्त का भुगतान न करने वाला व्यक्ति भी दास बनता था । यह दासता जीवन भर के लिए नहीं होती थी । ऋण चुकाने पर उन्हें दासता से मुक्ति मिल जाती थी । यहां के दास पाश्चात्य दासों की भान्ति पशु जीवन व्यतीत नहीं करते थे । उनसे केवल घरों में ही काम लिया जाता था तथा लोग उनसे अच्छा व्यवहार करते थे ।
5. स्त्रियों की दशा -Condition of Women — गुप्तकालीन समाज में स्त्रियों की दशा वैदिक – युग की तरह उच्च तो न थी , फिर भी उन्हें समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था । स्त्री पुरुष की अर्धांगिनी समझी जाती थी और प्रत्येक सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में पति के साथ उसकी उपस्थिति आवश्यक होती थी । गुप्तकाल में बाल विवाह की प्रथा लोकप्रिय हो गई थी । अल्प आयु में विवाह होने के कारण लड़कियों को अपने माता – पिता द्वारा चुने गए वर को ही स्वीकार करना पड़ता था । किन्तु कालिदास की रचनाओं से पता चलता है कि कन्याओं के युवावस्था में भी विवाह होते थे और स्वयंवर प्रथा भी प्रचलित थी । यद्यपि समाज में एक विवाह की प्रथा प्रचलित थी फिर भी उच्च वर्ग के लोग एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करवाते थे ।
विधवाओं को पुनर्विवाह करने की अनुमति थी , चाहे इसे अच्छा नहीं समझा जाता था । चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने भाई रामगुप्त की विधवा ध्रुवदेवी से विवाह किया था । विधवाओं से यह आशा की जाती थी कि वे सादा एवं पवित्र जीवन व्यतीत करें । गुप्त काल में सती प्रथा भी प्रचलित थी । किन्तु स्त्रियों को सती होने के लिए बाध्य नहीं किया जाता था । गुप्त काल में सती का प्रथम उदाहरण 510 ई ० के ऐरण अभिलेख में मिलता है जब भानुगुप्त के सेनापति गोपराज की मृत्यु के पश्चात् उसकी पत्नी सती हो गई थी । गुप्तकालीन समाज में वेश्या प्रथा भी विद्यमान् थी । ये स्त्रियां नृत्य और गायन आदि कलाओं में पारंगत होती थीं । समाज में इन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता था । गुप्त काल में यद्यपि स्मृतियों ने स्त्रियों को शिक्षा देने के पक्ष में निर्णय नहीं दिया था , फिर भी समाज में प्रायः स्त्रियां पढ़ी – लिखी होती थीं । शीलभट्टारिका गुप्त काल की एक विद्वान् तथा योग्य महिला थी । मृच्छकटिका में भी पढ़ी – लिखी स्त्रियों का उल्लेख मिलता है ।
6. शिक्षा -Education – गुप्त काल के समाज में शिक्षा का काफ़ी प्रसार था । उच्च शिक्षा का उचित प्रबन्ध था । तक्षशिला , नालन्दा , पाटलिपुत्र , बनारस , मथुरा , उज्जैन , सारनाथ एवं वल्लभी उच्च शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र थे । इन केन्द्रों में देश विदेश से अनगिनत छात्र शिक्षा ग्रहण करने आते थे । नालन्दा विश्वविद्यालय तो तत्कालीन ऑक्सफोर्ड था । ह्यूनसांग ने भी इसकी प्रशंसा की है । शिक्षा 6 वर्ष की आयु से आरम्भ होती थी । उन दिनों विद्यार्थियों को न्याय शास्त्र , काव्य शास्त्र , दर्शन शास्त्र , ज्योतिष एवं गणित आदि अनेक विषय पढ़ाए जाते थे । उच्च घराने की स्त्रियों के लिए भी शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी ।
7. खान – पान -Food and Drinks – गुप्त काल में शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के लोग थे । शाकाहारी लोग गेहूं , चावल , दूध , दही , घी , फल तथा सब्जियों आदि का प्रयोग करते थे । फलों में आज की भान्ति आम , सेब , बेर , अंगूर तथा नाशपति आदि शामिल थे । फाहियान ने लिखा है कि उस समय के लोग प्याज , लहसुन तथा मांस नहीं खाते थे । उस समय के लोगों में पान खाने का भी काफ़ी रिवाज़ था । धोती थी । त्योहारों में सिर पर
8. वेश – भूषा -Dress — गुप्त काल में जनसाधारण की वेश – भूषा कुर्ता पगड़ी पहनी जाती थी । जूते पहनने का रिवाज़ सब लोगों में नहीं था । स्त्रियां पेटीकोट के ऊपर साड़ी पहनती थीं । छाती ढांपने के लिए अंगी प्रयोग की जाती थी । शक स्त्रियां जाकिट पहना करती थीं । गुप्त काल में पुरुष तथा स्त्रियां दोनों को ही आभूषण पहनने का चाव था । उनके आभूषण सोने तथा चांदी के बने होते थे । स्त्रियां टीका , कर्णफल , मोती की मालाएं , चूड़ियां तथा अंगूठियां आदि पहनती थीं । वे सिर के बालों को अनेक ढंगों से संवारा करती थीं । स्त्रियां क्रीम , पाऊडर , सुर्खी आदि शृंगार का सामान भी प्रयोग करती थीं ।
9. आमोद – प्रमोद -Recreation – गुप्त काल में आमोद – प्रमोद के मुख्य साधनों में शिकार , रथ – दौड़ , पशुओं तथा पक्षियों की लड़ाइयां प्रमुख थीं । इनके अतिरिक्त लोग जुआ , नृत्य तथा गायन से अपना दिल बहलाते थे । नाटकों से भी उनका मनोरंजन होता था । युवतियां झूलों से अपना मन बहलाती थीं । गुप्त काल के लोगों में त्योहार मनाने का बड़ा चाव था । दीपावली , दशहरा तथा होली उनके प्रसिद्ध त्योहार थे । फाहियान लिखता है कि पाटलिपुत्र में प्रतिवर्ष रथयात्रा का उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था ।
आर्थिक जीवन -Economic Life
1. कृषि -Agriculture – गुप्त काल में अधिकतर लोग कृषि का व्यवसाय अपनाये हुए थे । वे चावल , गेहूं , जौ , मटर , तिल , सब्ज़ियों , फलों तथा जड़ी – बूटियों आदि की कृषि करते थे । इन सभी उपजों का वर्णन इ अमरकोष तथा बृहत् संहिता से उपलब्ध होता है । फाहियान भी लिखता है कि उस समय देश में इन सब की खेती होती थी । भूमि समस्त परिवार की सांझी सम्पत्ति मानी जाती थी । ग्राम पंचायत की आज्ञा के बिना भूमि बेची नहीं जा सकती थी । सिंचाई के लिए कृषक वर्षा पर निर्भर रहते थे । वैसे सरकार की ओर से नहरों और झीलों मुरम्मत करवाई थी । प्रमुख आदि का समुचित प्रबन्ध किया गया था । स्कन्दगुप्त ने सौराष्ट्र के गिरनार नगर में सुदर्शन झील की
2. उद्योग – धन्धे -Industries – गुप्तकालीन उद्योग – धन्धे काफ़ी विकसित थे । गुप्त काल में वस्त्र उद्योग तो काफ़ी विकसित था । गुप्त काल में सूती , रेशमी , मलमली तथा ऊनी वस्त्र तैयार किए जाते थे । वस्त्र उद्योग के ए केन्द्र बंगाल , गुजरात , वाराणसी तथा मथुरा थे । अन्य उद्योगों में हाथी दांत उद्योग का काम जोरों पर था । फर्नीचर तथा मुद्राओं में इसका प्रयोग किया जाता था । सोना , चांदी , सीसा , तांबा तथा कांसा आदि से सम्बन्धित व्यवसाय भी चलते थे । लोहे की ढलाई भी एक महत्त्वपूर्ण उद्योग था । महरौली का स्तम्भ इस उद्योग की कारीगरी का सबसे सुन्दर नमूना है । इसके अतिरिक्त गांव तथा नगरों में परम्परागत कुटीर उद्योग प्रचलित थे ।
3. व्यापार -Trade– गुप्त काल में व्यापार की दशा उन्नत थी । इसका प्रमुख कारण एक साम्राज्य की विशालता तथा उसमें व्याप्त शान्ति थी । व्यापार सड़कों तथा नदियों के माध्यम से होता था । देश के मुख्य नगर जैसे- भड़ौच , उज्जयिनी , प्रयाग , बनारस , गया , पाटलिपुत्र , ताम्रलिप्ति , मथुरा और पेशावर आदि सड़कों द्वारा एक दूसरे से मिले हुए थे । गाड़ियां , पशु तथा नावें यातायात के मुख्य साधन थे । भारतीय लोगों ने ऐसे जहाज़ भी बनाए हुए थे जिनमें 500 आदमी एक साथ यात्रा कर सकते थे । देश में अनेक बन्दरगाहें थीं , जिनके द्वारा पूर्वी द्वीपसमूह तथा पश्चिमी देशों से व्यापार होता था । इस काल की प्रसिद्ध बन्दरगाहें ताम्रलिप्ति , चोल , भारूकच्छ , कैम्बे और कल्याण थीं । इन बन्दरगाहों द्वारा श्रीलंका , चीन , अरब , ईरान , मिस्र , यूनान , रोम , सीरिया , बालि , जावा एवं सुमात्रा आदि देशों के साथ व्यापार किया जाता था । भारत से विदेशों को मणियां , मोती , सुगन्धित पदार्थ , कपड़ा , गर्म मसाले , नील , नारियल , औषधियां और हाथी दांत की वस्तुएं भेजी जाती थीं । विदेशों से सोना , चांदी , तांबा , टीन , जस्ता , कपूर , रेशम , मूंगा , खजूर और घोड़े आदि आयात किए जाते थे ।
4. श्रेणी -Shareni – गुप्त काल की आर्थिक व्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता श्रेणी प्रणाली थी । प्रत्येक व्यवसाय के लोग अपने व्यवसाय के प्रबन्ध के लिए एक संस्था बना लेते थे । इसी को श्रेणी कहते थे । व्यापारियों और साहूकारों की श्रेणियों के अतिरिक्त जुलाहों , तेलियों , शिल्पकारों , कुम्हारों , मणिकार , दंतकार , स्वर्णकार एवं मछुआरों ने भी अपनी – अपनी श्रेणियां बना रखी थीं । प्रत्येक श्रेणी की एक कार्यकारिणी होती थी । इसमें श्रेणी द्वारा निर्वाचित तीन से पांच सदस्य होते थे । इसके सभापति को प्रमुख अथवा श्रेष्ठ कहा जाता था । वही उसका कार्य चलाती थी । वैशाली में 274 मुहरें प्राप्त हुईं । ये मुहरें प्रत्येक श्रेणी अपने पत्रों को बन्द करने में प्रयोग करती थी । श्रेणियों के अपने अलग नियम होते थे । इन नियमों को सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त थी । ये श्रेणियां एक आधुनिक बैँक की तरह भी कार्य करती थीं । इन श्रेणियों के कारण गुप्तकाल में व्यापार तथा उद्योग खूब फले – फूले । उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि गुप्त काल आर्थिक दृष्टि से एक वैभवशाली काल था । डॉक्टर आर ० एन ० दाण्डेकर का यह कहना पूर्णत : ठीक है , “ आर्थिक दृढ़ता तथा विकास जो कि गुप्त काल की विशेषता थी , ने उस काल में हुई सर्वपक्षीय सांस्कृतिक उन्नति को वास्तविक आधार प्रस्तुत किया ।
धार्मिक जीवन – Religious Life
1. हिन्दू धर्म -Hinduism — गुप्त सम्राट् हिन्दू धर्म के अनुयायी थे । परिणामस्वरूप गुप्त काल में ब्राह्मण अथवा हिन्दू धर्म ने अपना खोया हुआ वैभव फिर से पा लिया । इस काल को यदि हिन्दू धर्म का स्वर्ण काल कह दिया जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । गुप्त काल में रामायण तथा महाभारत में संशोधन किया गया । उनके नवीन संस्करण लोगों के सामने आये । इस काल में प्रमुख पुराणों की रचना भी की गई । हिन्दू की भाषा संस्कृत ने राजभाषा का रूप ग्रहण किया । इस युग ने हिन्दू देवी – देवताओं की असंख्य मूर्तियों के दर्शन धर्म किए । उसके साथ अनेक सुन्दर मन्दिरों का भी निर्माण हुआ ।
लोगों द्वारा विष्णु , शिव , लक्ष्मी , सूर्य , सरस्वती , दुर्गा , गणेश आदि देवी – देवताओं की उपासना की जाती थी । अश्वमेध यज्ञ आयोजित किए जाते थे । संक्षेप में , इस युग में वे सभी विधियां आरम्भ हुईं जो आज भी हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग हैं । गुप्त काल में हिन्दू धर्म के मुख्य दो सम्प्रदाय थे- वैष्णव मत तथा शैव मत । वैष्णव मत के अनुयायी विष्णु तथा उसके अवतारों अर्थात् नरसिंह , वामन , राम , कृष्ण इत्यादि की पूजा करते थे । गुप्त राजा इसी मत के अनुयायी थे । वे स्वयं को ‘ परम भागवत ‘ कहते थे । लोगों में यह विश्वास भी प्रचलित हो गया था कि विष्णु के भविष्य के अवतार का नाम कलकी होगा । गुप्त काल का दूसरा प्रमुख मत शैव मत था । इसमें शिवजी की अनेक रूपों में स्तुति की जाती थी जैसे- महेश्वर , त्रिनेत्र , पशुपति भूतेश्वर एवं नटराज । इतिहासकार आर ० डी ० बनर्जी लिखते हैं , ” गुप्त वंश के शासकों को रूढ़िवादी हिन्दू समाज एवं धर्म में महत्त्वपूर्ण सुधारों के कारण सदा स्मरण रखा जाएगा ।
2. बौद्ध धर्म -Buddhism – गुप्त काल में बौद्ध धर्म अपना मौर्यकालीन वैभव खो रहा था । उसे अब राजाश्रय प्राप्त नहीं था । फिर भी जनता में उसके प्रति अगाध श्रद्धा थी । पंजाब कश्मीर और अफ़गानिस्तान इस धर्म के विशेष केन्द्र थे । फाह्यान के अनुसार कपिलवस्तु , कुशीनगर , वैशाली तथा बौद्ध गया आदि प्राचीन बौद्ध स्थल अब वीरान पड़ चुके थे । गुप्त काल में अनेक बौद्ध विद्वान् हुए । उनमें वसुबन्धु , कुमारजीव , परमार्थ , आसंग और दिगनाथ के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं ।
इन विद्वानों ने बौद्ध धर्म के उत्थान में खूब योगदान दिया । गुप्त काल में बौद्ध धर्म में भी पूजा पाठ आदि विधियां आरम्भ हो गई थीं । बौद्ध धर्म का वास्तविक स्वरूप बदल रहा था । अब वह वैदिक धर्म के अधिक निकट आता जा रहा था । बौद्ध धर्म के दो सम्प्रदाय थे- हीनयान तथा महायान । हीनयान की प्रतिष्ठा कम हो रही थी । इसका कारण यह था कि इनमें पूजा आदि का कोई स्थान नहीं था । परन्तु महायान सम्प्रदाय का बोलबाला था । गुप्त शासक बहुत सहिष्णु थे । उन्होंने बिना किसी भेदभाव के अनेक बौद्धों को उच्च पदों पर नियुक्त किया हुआ था । इस काल में अनेक महत्त्वपूर्ण बौद्ध ग्रन्थों की भी रचना हुई । निःसन्देह यह गुप्त काल की महान् उपलब्धि थी ।
3. जैन धर्म -Jainism – गुप्त काल में हिन्दू तथा बौद्ध धर्म के साथ – साथ जैन धर्म भी विद्यमान् था । परन्तु जैन धर्म अपने कठोर नियमों के कारण जनता में अधिक लोकप्रिय नहीं था । गुप्त काल में जैन धर्म में श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दो सम्प्रदाय प्रचलित थे । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गढ़ मथुरा तथा वल्लभी थे । इसके विपरीत दिगम्बर सम्प्रदाय का केन्द्र उत्तरी बंगाल में पुण्डवर्धन था । गुप्त काल में ही श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सिद्धान्तों को लिपिबद्ध किया गया । इसी काल में भद्रबाहु , क्षणपक और सिद्ध दिवाकर नामक प्रसिद्ध जैन विद्वान् हुए । इस काल में अनेक ग्रन्थों की भी रचना हुई । अन्त में हम डॉक्टर आर ० के ० मुखर्जी के इन शब्दों से सहमत हैं , ” यद्यपि गुप्त सम्राट् कट्टर हिन्दू अथवा ब्राह्मण धर्म के शिष्य थे , किन्तु वे इतने सहिष्णु थे कि उन्होंने अपने धर्म को राज्य का धर्म घोषित कर नहीं थोपा । उन्होंने सभी धर्मों जिनमें बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म सम्मिलित थे , को प्रोत्साहन दिया |