गुप्त कौन थे ? गुप्त साम्राज्य
गुप्त कौन थे ? -Who was the Gupt ?
गुप्त वंश का उदय तीसरी शताब्दी के अन्त में तथा चौथी शताब्दी के आरम्भ में हुआ था । परन्तु गुप्तों की जाति के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है । इसका प्रमुख कारण यह है कि गुप्त शासकों के प्राप्त अभिलेखों तथा सिक्कों से हमें उनके वर्ण अथवा जाति की कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती । परिणामस्वरूप विद्वानों ने उन्हें शूद्र से लेकर ब्राह्मण तक सिद्ध करने का प्रयास किया है । गुप्तों की जाति से सम्बन्धित विभिन्न मतों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार से है
1. शूद्र -Shudras – डॉ ० के ० पी ० जायसवाल के अनुसार गुप्त शासक शूद्र थे । इसी कारण उन्होंने कभी अपनी जाति का उल्लेख नहीं किया है । उनके अनुसार कौमुदी महोत्सव में चण्डसेन ( चन्द्रगुप्त प्रथम ) नामक एक राजा को ‘ कारस्कर ‘ कहा गया है । कारस्कर को बौद्ध ग्रन्थों में शूद्र माना गया है । अतैव गुप्त शासक शूद्र थे । परन्तु इन तर्कों के खण्डन में यह कहा जा सकता है कि गुप्तों की भान्ति मौर्य शासकों ने भी अपनी जाति का उल्लेख नहीं किया है । परिणामस्वरूप यह तथ्य विशेष महत्त्व नहीं रखता । इसके अतिरिक्त प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की तुलना धनद , वरुण तथा इन्द्र आदि देवगणों से की गई है । अतः गुप्त शासक शूद्र नहीं हो सकते । विद्वान् कौमुदी महोत्सव के आधार पर गुप्तों की जाति का कोई निष्कर्ष निकालना भी तर्क संगत नहीं मानते ।
2. क्षत्रिय -Kshatriyas – डॉ ० रमेश चन्द्र मजूमदार , सुधाकर चट्टोपाध्याय तथा गौरी शंकर ओझा आदि इतिहासकार गुप्त शासकों को क्षत्रिय मानते हैं । उनके अनुसार बिहार के दरभंगा जिले से प्राप्त एक लेख में वर्णित गुप्त वंश के लोग स्वयं को पाण्डव अर्जुन का वंशज मानते हैं । अतः गुप्त वंश के शासक क्षत्रिय थे । इसके अतिरिक्त जावा से प्राप्त ‘ तन्त्रीकामन्दक ‘ नामक ग्रन्थ में वर्णित महाराजा ऐश्वर्यपाल ने स्वयं को सूर्यवंशी क्षत्रिय तथा समुद्रगुप्त का वंशज बताया है । विद्वान् आगे तर्क देते हैं कि गुप्तों के लिच्छवियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध थे । लिच्छवियों को क्षत्रिय माना गया है । इससे संकेत मिलता है कि गुप्त भी क्षत्रिय रहे होंगे । परन्तु इन तर्कों के खण्डन में यह कहा जा सकता है कि प्राप्त लेख में कहीं भी समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य जैसे गुप्त शासकों का वर्णन नहीं किया गया है । दूसरा ‘ तन्त्रीकामन्दक ‘ गुप्त काल के काफ़ी बाद लिखा गया । अतः इसे विश्वसनीय नहीं माना जा सकता । इसके अतिरिक्त सभी विद्वान् लिच्छवियों को क्षत्रिय नहीं मानते ।
3. ब्राह्मण -Brahmanas — डॉ ० हेमचन्द्र राय चौधरी जैसे इतिहासकार गुप्तों को ब्राह्मण जाति के मानते वे इसका सम्बन्ध ब्राह्मण नरेश अग्निमित्र की पत्नी धारिणी से जोड़ते हैं । दूसरा , चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्रे प्रभावती का विवाह ब्राह्मण जाति के वाकाटक राजकुमार रुद्रसेन द्वितीय से किया था । इसका अर्थ है कि वह स्वयं भी ब्राह्मण ही रहा होगा । अतः गुप्त शासक जाति से ब्राह्मण थे । परन्तु पर्याप्त प्रमाण के अभाव में धारण गोत्र को अग्निमित्र शुंग की पत्नी धारिणी से जोड़ना कल्पना मात्र है । दूसरा , गुप्त काल के दौरान विवाह सम्बन्धों में केन्द्र विन्दु कूटनीति था , धर्म नहीं । विवाह सम्बन्धी कठोर नियमों का पालन नहीं होता था । अतः ब्राह्मण सम्बन्धी प्रमाण भी पर्याप्त नहीं हैं । गुप्त
4. वैश्य -Vaishyas — डॉ ० अल्तेकर और डॉक्टर पी ० एल ० गुप्ता आदि इतिहासकारों का मानना है शासक वैश्य थे । उन्होंने तर्क दिया है कि वैश्य अपने नामों के साथ गुप्त जोड़ते थे । प्रत्येक गुप्त नरेश के नाम के साथ गुप्त जुड़ा हुआ है । अतः गुप्त शासक जाति से वैश्य थे । परन्तु मात्र नाम के आधार पर गुप्त शासकों को वैश्य नहीं ठहराया जा सकता है । उदाहरण के लिए कौटिल्य को ही ले लीजिए । इसको विष्णुगुप्त भी कहा जाता है , परन्तु वो एक कट्टर ब्राह्मण था । अतैव इतिहासकार इस मत में भी पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाए हैं । इस प्रकार गुप्त शासकों की जाति निर्धारण सम्बन्धी गुत्थी उलझ कर रह गई है ।
गुप्त साम्राज्य की स्थापना तथा विस्तार -Establishment and Expansion of Gupta Empire
यद्यपि गुप्त शासकों की जाति निर्धारण के सम्बन्ध में विद्वान् एक मत नहीं हैं तथापि गुप्त काल प्राचीन भारत का सबसे महत्त्वपूर्ण काल ( 320-540 ई ० ) था , इसमें कोई दो राय नहीं हैं । गुप्त साम्राज्य की स्थापना तथा उसके विस्तार में योगदान देने वाले प्रथम तीन शासकों का वर्णन निम्नलिखित हैं
1. श्रीगुप्त -Shrigupta — माना जाता है कि गुप्त वंश की स्थापना श्रीगुप्त ने 275 ई ० में मगध में की थी । विद्वान् इस सम्बन्ध में एक मत नहीं हैं कि उसका नाम श्रीगुप्त था अथवा मात्र गुप्त । गुप्त अभिलेख में श्रीगुप्त के लिए ‘ महाराज ‘ उपाधि का उपयोग किया गया है । इससे कुछ इतिहासकारों का मानना है कि शायद श्रीगुप्त स्वतन्त्र शासक नहीं रहा होगा । क्योंकि इसी अभिलेख में चन्द्रगुप्त प्रथम के लिए ‘ महाराजाधिराज ‘ की उपाधि का प्रयोग किया गया है । उसका कोई लेख अथवा सिक्का नहीं मिलता है ।
2. घटोतकच -Ghatotkacha — घटोतकच श्रीगुप्त का उत्तराधिकारी था । माना जाता है कि उसका शासनकाल 300 ई ० से 320 ई ० तक था । उसने भी ‘ महाराज ‘ की उपाधि धारण की थी । गुप्त वंश के शिलालेख में महाराज घटोतकच के नाम के साथ ‘ गुप्त ‘ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है । उसके शासन काल में गुप्त वंश की शक्ति तथा सम्मान में कोई वृद्धि नहीं हुई । विद्वानों का मानना है कि वह पाटलिपुत्र और उसके आसपास के क्षेत्रों पर राज करता था ।
3. चन्द्रगुप्त प्रथम -Chandragupta I – घटोतकच के बाद उसका पुत्र चन्द्रगुप्त प्रथम सिंहासन पर बैठा । उसके सिंहासनारूढ़ होने के साथ गुप्त वंश ने एक नए युग में प्रवेश किया । उसने अपने पूर्वजों से प्राप्त राज्य का और अधिक विस्तार किया । चन्द्रगुप्त प्रथम की प्रमुख उपलब्धियां इस प्रकार थीं
- महाराजाधिराज की उपाधि -Title of Maharajadhiraj — चन्द्रगुप्त पहला शासक था जि ‘ महाराजाधिराज ‘ की उपाधि धारण की । अतः इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि दादा से अधिक शक्तिशाली तथा महत्त्वपूर्ण शासक था ।
- लिच्छवी राजकुमारी से विवाह -Marriage with Lichhavi Princess – उसने 320 ई ० से 338 ई ० तक के राज्य सबसे महत्त्वपूर्ण घटना उसका कुमार देवी से विवाह था । कुमार देवी लिच्छवी वंश के मुखिया की बेटी थी । इस वैवाहिक सम्बन्ध से चन्द्रगुप्त का भाग्य जगमगा उठा । श्री एन ० एन ० घोष के अनुसार , ” इस मिलाप से इस गुप्त परिवार की महानता का श्रीगणेश होता है । ” ” डॉ ० स्मिथ के विचार में तो इस वैवाहिक सम्बन्ध के कारण वह अपने पिता तथा राज्य किया । चन्द्रगुप्त की उसे पाटलिपुत्र दहेज में मिला । उसने अपने सिक्कों पर कुमार देवी का नाम तथा आकृति अंकित करवाई । इस विवाह का महत्त्व इस बात से भी जाना जा सकता है कि समुद्रगुप्त भी अपने आपको ‘ लिच्छवी दौहित्र कहने में गर्व अनुभव करता था ।
- राज्य – विस्तार -Extent of Empire — सिंहासनारोहण के समय चन्द्रगुप्त के पास मगध का ही छोटा सा प्रदेश था , परन्तु शीघ्र ही उसने लिच्छवियों के प्रभाव के कारण अपने राज्य का खूब विस्तार किया । पुराणों के श्लोक के अनुसार उसका राज्य गंगा के किनारे प्रयाग तक विस्तृत था । इसके अतिरिक्त साकेत और मगध राज्य में सम्मिलित थे । अतः उसके राज्य में उत्तर प्रदेश का अधिकांश भाग तथा पूरा बिहार सम्मिलित था । कुछ लेखकों के अनुसार बंगाल भी उसके राज्य में शामिल था ।
- नवीन सम्वत् का आरम्भ -Starting of New Era—उसके आरम्भ सभी महान् शासकों की भान्ति चन्द्रगुप्त प्रथम ने भी नवीन सम्वत् का प्रारम्भ किया । अतः उसने ‘ गुप्त सम्वत् ‘ चलाया जो कि 26 फरवरी , 320 ई ० होता है । सभी गुप्त शासकों ने इसी सम्वत् का प्रयोग किया और यह सम्वत् लगभग 600 वर्ष तक चलता रहा । संक्षेप में , हम यही कहेंगे कि चन्द्रगुप्त एक महान् सम्राट् था । इसी कारण चन्द्रगुप्त प्रथम को ही गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाना चाहिए । डॉ ० एस ० चट्टोपाध्याय के अनुसार , ” चौथी शताब्दी के आरम्भ में गुप्त वंश की स्थापना ने उत्तरी भारत के इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात किया ।