हर्षवर्धन का प्रशासन
हर्षवर्धन का प्रशासन | Harshavardhan Ka Prashaasan
हर्षवर्धन का प्रशासन – हर्षवर्धन ने एक महान् साम्राज्य की ही स्थापना नहीं कि अपितु एक कुशल शासन प्रबन्ध की भी व्यवस्था की । यह व्यवस्था अत्यन्त ही उच्च कोटि की थी । हर्षवर्धन के प्रशासन की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित थीं—
I. केन्द्रीय प्रशासन -Central Administration
1. राजा -The King – केन्द्रीय प्रशासन में राजा सर्व प्रमुख था । वह राज्य का सर्वोच्च अधिकारी होता था । उसकी शक्तियां असीम थीं । वह राज्य के कर्मचारियों को नियुक्त करता था तथा जब चाहे उन्हें पद से हटा सकता था । उसे युद्ध एवं सन्धि करने के अधिकार प्राप्त थे । वह सेना का सर्वोच्च अधिकारी तथा राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश भी होता था । अन्य शब्दों में राजा की शक्तियां किसी निरंकुश शासक के ही समान थीं । परन्तु हर्षवर्धन ने इन शक्तियों का कभी भी दुरुपयोग नहीं किया । उसके शासन का प्रमुख लक्ष्य अपनी प्रजा का कल्याण करना था । जन कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहने के कारण ही बाणभट्ट ने हर्षवर्धन को सभी देवताओं का सम्मिलित अवतार कहा है ।
2. मन्त्रिपरिषद् -The Council of Ministers — राज्य के कार्यों में राजा की सहायता के लिए मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था की गई थी । इसका राज्य प्रबन्ध पर पर्याप्त प्रभाव था । उदाहरणस्वरूप राज्यवर्धन की मृत्यु के पश्चात् राजा का चुनाव करने के लिए मन्त्रिपरिषद् की बैठक बुलाई गई थी । अतः साम्राज्य के हित में किए जाने वाले सभी कार्यों में मन्त्रिपरिषद् का पूरा – पूरा हाथ था । बाण की ‘ हर्ष चरित् ‘ उस समय के कुछ प्रसिद्ध मन्त्रियों का परिचय करवाती है । इनमें थे –
- प्रधानमन्त्री – राजा के पश्चात् राज्य का सबसे महत्त्वपूर्ण पद प्रधानमन्त्री का था । वह राजा को महत्त्वपूर्ण मामलों में परामर्श देता था । हर्ष के समय इस पर भण्डी नियुक्त था ।
- महासंधिविग्रहाधिकृत- यह युद्ध एवं शान्ति मन्त्री था । हर्ष के समय यह पद अवन्ति को मिला हुआ था ।
- महाबलाधिकृत – वह सेनाध्यक्ष था । हर्ष के समय इस पद पर सिंहनाद नियुक्त था ।
- कटुक – वह हाथी सेना का प्रमुख था । हर्ष के समय इस पद पर स्कन्दगुप्त नियुक्त था ।
- वृहदश्वार – वह अश्वारोही सेना का सेनानायक होता था ।
- महाप्रतिहार – वह महल का सुरक्षा मन्त्री होता था ।
प्रान्तीय तथा स्थानीय प्रबन्ध -Provincial and Local Administration
शासन प्रबन्ध की सुविधा के लिए हर्ष ने अपने राज्य को भुक्तियों ( प्रान्तों ) , विषयों ( जिलों ) , पाठकों ( तहसीलों ) तथा ग्रामों में बांटा हुआ था । भुक्ति के मुखिया को उपारिक महाराज , गोप्ता तथा भोगपति कहा जाता था । उसकी नियुक्ति राजा द्वारा की जाती थी । विषय का मुखिया विषयपति कहलाता था । उसकी नियुक्ति • उपारिक महाराज द्वारा की जाती थी ।
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम कहलाती थी । उसके मुखिया को ग्रामिक अथवा ग्रामाक्षपरलिक कहा जाता था । उसकी सहायता के लिए अनेक क्लर्क होते थे जो करणिक कहलाते थे । प्रशासन के सिद्धान्त कठोर न थे । शासन ईमानदारी से होता था तथा लोग परस्पर प्रेम से रहते थे ।
III. आय – व्यय -Income and Expenditure
हर्षवर्धन के समय में आय का मुख्य साधन भूमिकर था , जो उपज का 1/6 भाग होता था । भूमिकर को भाग कहते थे और सम्भवतः वह अन्न के रूप में ही लिया जाता था । करों के रूप में प्राप्त किये जाने वाले नकद धन को हिरण्य कहते थे । राजा को अपनी जनता से उपहार भी मिलते थे , जिन्हें बलि कहते थे । इस तरह ‘ भाग ‘ , ‘ हिरण्य ‘ तथा ‘ बलि ‘ तीन प्रकार के करों का उल्लेख हर्ष के ताम्रलेखों से प्राप्त होता है । इनके साथ – साथ चुंगी , बिक्री – कर तथा पुलों आदि से भी सरकार को आय होती थी । जब कभी कोई व्यक्ति राजा को मिलने जाता , तो राजा के लिए उपहार के रूप में कुछ – न – कुछ अवश्य ले जाता था । इतना सब कुछ होने पर भी एक बात कही जा सकती है कि प्रजा पर करों का अधिक भार न था । ह्यूनसांग के अनुसार हर्ष की व्यय की चार मदें थीं , जिनका वर्णन इस प्रकार से है
- आय का एक भाग सरकारी कार्यों पर व्यय किया जाता था ।
- दूसरा भाग पदाधिकारियों को वेतन देने में व्यय किया जाता था ।
- तीसरा भाग शिक्षा के प्रसार तथा विद्वानों को पुरस्कृत करने में व्यय होता था ।
- चौथा भाग ब्राह्मणों तथा भिक्षुओं में दान के रूप में वितरित किया जाता था ।
- न्याय प्रणाली ( Judicial System ) हर्षवर्धन ने उचित न्याय – व्यवस्था का प्रबन्ध किया हुआ था ।
राजा की अदालत राज्य की सबसे बड़ी अदालत थी । हर्षवर्धन वहां बड़े ही निष्पक्ष ढंग से न्याय करता था । राजा की अदालत के अतिरिक्त साम्राज्य में कई अन्य अदालतों की स्थापना भी की गई थी । अदालतों को धर्मस्थान अथवा धर्मासन कहा जाता था । न्यायाधीश धर्माध्यक्ष कहलाते थे । निर्णय देते समय प्रचलित मान्यताओं तथा परम्पराओं को ध्यान में रखा जाता था । हर्षवर्धन के काल में फौजदारी कानून गुप्तकाल की अपेक्षा अधिक कठोर थे ।
गुप्त काल में हाथ – पैर नहीं काटे जाते थे , किन्तु अब हाथ – पैर भी काट दिए जाते थे । साधारण अपराधों पर केवल जुर्माना ही किया जाता था । कठोर यातनाओं द्वारा भी अपराधों का पता लगाया जाता था । परन्तु दण्ड कठोर होते हुए भी राज्य में सड़कें सुरक्षित नहीं थीं । चोर , डाकू तथा लुटेरे प्रायः यात्रियों को लूट लिया करते थे । ह्यूनसांग लिखता है कि वह स्वयं भी डाकुओं के हाथों दो बार लूटा गया था ।
V. सैनिक प्रबन्ध -Military Organisation
हर्षवर्धन को सिंहासन पर बैठते ही अनेक शत्रुओं का सामना करना पड़ा था । इसलिए उसने अपनी सेना को नए सिरे से संगठित किया हर्ष की सेना चार भागों में विभाजित थी – पैदल , घुड़सवार , रथ तथा हाथी । हमें ऊंट सेना का भी ज्ञान होता है । हर्षवर्धन की सेना में 60,000 के करीब हाथी तथा 1,00000 के करीब घोड़े थे । पैदल सेना की संख्या इससे भी अधिक थी । सेना के लिए घोड़े ईरान तथा अफ़गानिस्तान से मंगवाए जाते थे । घुड़सवार सेना के मुखिया को ‘ महाबृहश्वार ‘ तथा पैदल सेना के मुखिया को ‘ महाबलाधिकृत ‘ कहा जाता था । सेना का मुख्य कर्त्तव्य देश में आन्तरिक शान्ति बनाये रखना और राज्य को बाहरी शत्रुओं से सुरक्षित रखना था ।