हिन्दू विधि के स्रोत | Source of Hindu Law
हिन्दू विधि के स्रोत | Source of Hindu Law
हिन्दू विधि के स्रोत -Sources of Hindu Law – प्राचीन मत के अनुसार विधि एवं धर्म में एक अभिन्न सम्बन्ध था तथा विधि धर्म का ही एक अंग मानी जाती थी । धर्म के स्रोत ही विधि के स्रोत माने जाते थे । मनु के अनुसार वेद , स्मृति , सदाचार एवं जो अपने को तुष्टिकरण लगे , ये चार धर्म के स्पष्ट लक्षण माने गये थे ।
याज्ञवल्क्य ने भी धर्म के चार आधार स्तम्भ इस प्रकार बतलाये हैं— श्रुति , स्मृति , सदाचार , जो अपने को प्रिय लगे तथा सम्यक् संकल्पों से उत्पन्न इच्छाएँ । याज्ञवल्क्य ने पुनः विधि के ज्ञान के चौदह स्रोत बताये हैं — वेद ( चार ) वेदांग , ( छ 🙂 धर्मशास्त्र , न्याय , पुराण एवं मीमांसा ।
हिन्दू विधि के स्रोतों को हम सुविधानुसार दो भागों में विभाजित कर सकते हैं
1. प्राचीन या मूल स्रोत– प्राचीन स्रोत के अन्तर्गत निम्न चार प्रकार के स्रोत आते हैं
( क ) श्रुति
( ख ) स्मृति
( ग ) भाष्य तथा निबन्ध
( घ ) प्रथायें ।
2. आधुनिक स्रोत – इसके अन्तर्गत निम्न तीन स्रोत आते हैं
( 1 ) न्याय , साम्य , सद्विवेक
( 2 ) विधायन
( 3 ) न्यायिक निर्णय ।
( 1 ) प्राचीन स्रोत
क – श्रुति – Srutis – श्रुति का शाब्दिक अर्थ है वह जो सुना गया है । श्रुतियों के विषय में यह विश्वास प्रचलित है कि ये वाक्य ईश्वर द्वारा ऋषियों पर प्रकट किये गये थे जो श्रीमुख से निकले साक्षात् रूप से अंकित हैं ।
सिद्धान्त — श्रुतियाँ हिन्दू विधि की प्रथम और सर्वोच्च स्रोत मानी जाती हैं । दैवी स्रोत माने जाने के कारण इसकी अधिकारिता सर्वोच्च है , किन्तु व्यवहार रूप में इनका कोई महत्व नहीं है इसका कारण यह है कि इनमें विधि के कथन नहीं हैं , किन्तु वेद में अनेक उल्लेख हैं जो हिन्दु विधि के अनेक विषयों का वर्णन करते हैं ।
श्रुतियों के अन्तर्गत चार वेदि और उपनिषद हैं । ये वेद निम्नलिखित हैं
1. ऋग्वेद , 2. यजुर्वेद , 3. सामवेद , 4. अथर्ववेद तथा छः वेदांग – 1. कल्प , 2. व्याकरण , 3. छन्द , 4. शिक्षा , 5. ज्योतिष , 6. निरुक्त आते हैं ।
ये श्रुतियाँ वस्तुतः हमारे पूर्वजों की विचारधाराएँ , उनके आचरण , दर्शन तथा प्रथाओं पर विस्तृत रूप से प्रकाश डालती हैं । इसमें विधि के नियमों का कोई वैज्ञानिक दर्शन नहीं है । जो कुछ भी विधि के नियम हैं , वे इधर – उधर बिखरे उपकरण से सं चित किये जाते हैं क्योंकि वेदों को सभी ज्ञान का स्रोत माना गया है , अतः हिन्दू विधि का भी स्रोत वेदों को मान लिया गया है ।
ख – स्मृति – Smrti — ‘ स्मृति’ हिन्दू विधि का मेरुदण्ड हैं । स्मृति शब्द का शाब्दिक अर्थ है जो स्मरण रखा गया हो । स्मृतियाँ ऋषि मुनि को स्मृति पर आधारित है । स्मृतियों में मनु का स्थान • सर्वोपरि है । स्मृतिकारों में मनु का स्थान सर्वोपरि है । इस बात का समर्थन वृहस्पति ने भी किया है । स्मृतियाँ हिन्दू विधि का मेरुदण्ड हैं । विधियों के दृष्टिकोण से इन स्मृतियों को सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । स्मृति की विधि की सबसे बड़ी विशेषता रही है कि वह प्रयोग में आने वाली विधि का सन्निवेश करती हैं । उसमें समाज की आवश्यकताओं का पूर्ण ध्यान रखा गया है । मुल्ला के अनुसार , स्मृतियों में प्रख्यापित प्राचीन विधि अनिवार्यतया रूढ़िवादी थी और व्यादेश यह था कि समय द्वारा सम्मानित रूढ़ियाँ और स्मरणातीय प्रथाएँ सही रूप से सुरक्षित होनी उनके अनुसार प्रथात्मक विधि स्मरणातीत प्रथाओं पर आधारित थी ।
निबन्ध- यद्यपि निबन्धों का कार्य स्मृतियों की व्याख्या करना है , किन्तु मांग के अनुसार व्याख्या करके मूल विधि को काफी परिवर्तित कर दिया है । सामाजिक आवश्यकता तथा सुविधाओं को सामाजिक प्रथाओं और रीति – रिवाजों के अनुकूल होनें के लिए भाष्यों तथा निबन्धों का आश्रय लिया गया । भाष्य वे हैं जिनमें स्मृतियों की टीका की गयी है । समस्त निबन्धों में विज्ञानेश्वर द्वारा रचित निबन्ध ‘ मिताक्षरा ‘ सबसे अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुआ और परिणामस्वरूप उसमें प्रतिपादित विधि बंगाल प्रांत को छोड़कर समस्त भारत में प्रचलित हो गयी । मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति पर लिखा हुआ सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भाष्य है जिसकी प्रतिष्ठा तथा प्रामाणिकता देश में मान्य है ।
निबन्ध प्रमुख भाष्य इस प्रकार हैं
- दायभाग जीमूतवाहन द्वारा,
- विज्ञानेश्वर द्वारा याज्ञवल्क्य स्मृति पर मिताक्षरा,
- मित्र मिश्र द्वारा वीर मित्रोदय ,
- वाचस्पति द्वारा विवाद- चिन्तामणि,
- चन्द्रशेखर द्वारा विवाद- चिन्तामणि ,
- रघुनाथ द्वारा पाराशर माध्व्य ,
- श्रीकृष्ण द्वारा दायक्रम – संग्रह ,
- देवन्न भट्ट द्वारा स्मृति चन्द्रिका ,
- माधवाचार्य द्वारा पाराशर माधवीय ,
- नीलकण्ठ द्वारा व्यवहार मयूख ।
इस प्रकार ये भाषा तथा निबन्ध विध के प्रमुख स्रोत हैं ।
घ. प्रथाएँ -Customs – प्राचीन ग्रन्थकारों ने प्रथाओं को अत्यन्त महत्व प्रदान किया है , यहाँ तक कि प्रथाओं को महत्व किसी न किसी रूप में अप्राप्य मूल ग्रन्थ पर आधारित माना है । मनु के अनुसार , “ विस्मरणीय प्रथा स्वयं में अलिखित कानून है । ” वास्तव में प्रथाएँ वे नियम हैं जो किसी परिवार , वर्ण अथवा स्थान विशेष के प्राचीन काल से चले आने के कारण उन्होंने कानून के समान ही मान्यता प्राप्त कर ली है । वैध प्रथा प्राचीन , अपरिवर्तनशील तथा निरंनर , युक्तियुक्त , स्पष्ट प्रमाण तथा लोकनीति व स्पष्ट कानून के विरुद्ध नहीं होनी चाहिए । प्रथाओं के बाध्यकारी प्रभाव को बहुत से प्राचीन भूल ग्रंथकारों ने माना है । उन्होंने यह भी माना है कि प्रत्येक लोक रीति अन्तिम देव वाणी पर आधारित है ।
2. आधुनिक स्रोत
1. न्याय साम्य एवं सद्विवेक – Justice , Equity and Good Conscience – हिन्दू विधि के आधुनिक स्रोत में न्याय , साम्य एवं सद्विवेक का महत्वपूर्ण स्थान है । वस्तुतः यह प्रत्यक्ष हिन्दू विधि में आधुनिककाल में अंग्रेज न्याय विधि ने प्रारम्भ किया था । जिस विषय के सम्बन्ध में धर्मशास्त्रों में कोई व्यवस्था प्रदान नहीं की गई थी अथवा जहाँ स्मृतियों में दिये गये पाठ परस्पर विरोधी होते हैं वहाँ हिन्दू विधि के सामान्य आधार का ध्यान रखते हुए न्यायगत साम्य तथा विवेकपूर्णता को ध्यान में रखते हुए निर्णय दिये जाते हैं । अतः स्पष्ट है कि हिन्दू विधि के आधुनिक स्रोतों में सद्विवेक न्याय साम्य का महत्वपूर्ण स्थान है ।
कौटिल्य का मत है कि जहाँ धर्म ग्रन्थ न्यायिक विवेक के विरोधी प्रतीत होते हैं वहाँ न्यायिक विवेक को धर्म ग्रन्थ की अपेक्षा अधिक महत्व दिया जाता है । उच्चतम न्यायालय ने गुरुनाथ बनाम कमलाबाई में यह निर्दिष्ट किया कि हिन्दू विधि में किसी नियम के अभाव में न्यायालय को यह पूर्ण अधिकार है कि वे किसी मामले का निर्णय करने में हिन्दू विधि के किसी अन्य सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं करते । J
2. विधायन – Legislation – विधि के स्रोतों में अधिनियमों का महत्व वर्तमानकाल में बहुत अधिक बढ़ गया है । वस्तुतः विधि का यह स्रोत आधुनिक युग के नवीन स्रोतों में आता है । भारत के ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के बाद हिन्दू विधि व राज्य की विधायिनी शक्ति द्वारा समय – समय पर बहुत से परिवर्तन व संशोधन किये गये वस्तुतः विधि का यह स्रोत आधुनिक युग के नवीन स्रोतों में आता है । प्रमुख अधिनियम जिन्होंने हिन्दू विधि में परिवर्तन तथा संशोधन किये वे निम्नलिखित हैं
- जाति निर्योग्यता निवारण अधिनियम , 1850
- हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम , 1856
- देशवासी परिवर्तित धर्म वाले विवाह – विच्छेद सम्बन्धी अधिनियम , 1856
- विशेष विवाह अधिनियम , 1872
- भारतीय वयस्कता अधिनियम , 1875
- सम्पत्ति हस्तान्तरण अधिनियम , 1882
- संरक्षक तथा आश्रित अधिनियम , 1890
- हिन्दू सम्पत्ति निवर्तन अधिनियम , 1916
- भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम , 1925 ई .
- हिन्दू उत्तराधिकार ( संशोधन ) अधिनियम , 1919 ई .
- बाल विवाह अपराध अधिनियम , 1929 ई .
- पुण्यार्थ तथा धार्मिक न्याय अधिनियम , 1902 ई .
- अधिगम का लाभ अधिनियम , 1930 ई .
- हिन्दू नारी का सम्पत्ति का अधिकार अधिनियम , 1931 ई .
- आर्य विवाह मान्यकारी अधिनियम , 1931 ई .
- हिन्दू – विवाह निर्योग्यता निवारण अधिनियम , 1946 ई .
- हिन्दू नारी का पृथक् आवास एवं भरण – पोषण का अधिकार अधिनियम , 1946 ई .
- हिन्दू विवाह मान्यता अधिनियम , 1954 ई . ( xix ) विशेष विवाह अधिनियम , 1954 ई .
- हिन्दू विवाह अधिनियम , 1955 ई .
- हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम , 1956 ई .
- हिन्दू दत्तक ग्रहण एवं भरण – पोषण अधिनियम , 1956 ई .
- दहेज निषेध अधिनियम , 1950 ई .।
3. न्यायिक निर्णय न्यायिक निर्णय , जो हिन्दू विधि पर न्यायालयों द्वारा घोषित किये जाते हैं , उनको भी विधि का एक स्रोत माना जाता है । न्यायिक फैसलों का हिन्दू – विधि की अनिश्चितता को स्पष्ट करने का सन्देहात्मक अथवा भ्रमात्मक विषयों का समाधान करने तथा विस्तार करने में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । न्यायिक निर्णयों को भविष्य के मामले के लिए दृष्टान्तस्वरूप समझा जाता है ।
प्रिवी कौन्सिल तथा उच्चतम न्यायालयों के निर्णय भारत के सभी न्यायालयों पर बन्धनकारी होते हैं । इन न्यायिक फैसलों में उसी प्रकार की परिस्थिति वाले मुकदमों में मार्ग दर्शन के रूप में कार्य लिया जाता है और इनका प्रभाव अवश्य पालनीय होता है । कोई भी पूर्व निर्णय विधि का साक्ष्य नहीं होता , वरन् वह उसका स्रोत भी होता है तथा न्यायालय इस पूर्व निर्णय से बाध्य होते हैं । इस प्रकार न्यायिक निर्णय हिन्दू विधि के प्रमुख स्रोत हैं ।
प्रथाओं की परिभाषा कीजिए तथा विभिन्न प्रथाओं का विस्तृत वर्णन कीजिए । हिन्दू विधि के अन्तर्गत वैध प्रथाओं के आवश्यक तत्व क्या हैं ? इनका हिन्दू विधि के स्रोतों के रूप में क्या महत्व है ?
प्रथाओं की परिभाषा – ‘ रूढ़ि ‘ और ‘ प्रथा ‘ पदों से अभिप्रेत है ऐसा कोई भी नियम जिसने दीर्घकाल से एक लगातार और एकरूपता से अनुपालित होने के कारण किसी स्थानीय से क्षेत्र , जनजाति , समुदाय , समूह या कुटुम्ब में हिन्दुओं के बीच विधि का बल प्राप्त कर लिया है । अतः प्रथा वह नियम है जिसने किसी विशेष जाति अथवा वर्ग अथवा किसी विशेष जिले अथवा परिवार में दीर्घकाल से प्रथा के रूप में अपनाये जाने के फलस्वरूप कानून की शक्ति प्राप्त कर ली है ।
प्रिवी कौंसिल की जुडिशियल कमेटी ने प्रथाओं के विषयों में यह कहा था कि प्रथायें किसी स्थान विशेष , जाति अथवा परिवार विशेष के चिरकालीन प्रयोग के कारण विधि से मान्यता प्राप्त नियम हैं , ये प्राचीन हों , निश्चित हों तथा विवेकपूर्ण हों और यदि विधि के सामान्य नियमों के विरोध में हों तो उसका आशय बहुत ही सावधानी से निकालना चाहिए । उच्चतम न्यायालय ने आई . शिरोमणी बनाम आई . हेम कुमार के वाद में यह निर्धारित किया है किसी भी प्रथा को मान्यता प्रदान करने के लिये तथा न्यायालय द्वारा अपनाने के लिये यह आवश्यक है कि प्रथा प्राचीन हो , निश्चित हो तथा युक्तियुक्त हो । देवानइ अछि बनाम चिदम्बरम् ‘ के बाद में यह कहना है कि ” किसी भी प्रथा अथवा लोक रीति को बाध्यकारी होने के लिए यह आवश्यक है कि वह प्राचीनतम , स्पष्ट तथा युक्तियुक्तता के गुणों से युक्त हो । ” कोई भी प्रथा जो विधि विरुद्ध हो , अनैतिक हो तथा जनहित के विरुद्ध हो उसे मान्य नहीं समझा जायेगा ।
किसी भी प्रथा को विधि या नियम जैसी मान्यता मिलने के लिए यह आवश्यक है कि जो पक्षकार इसका दावा कर रहा है वह यह साबित करे कि वह प्रथा प्राचीन , निश्चित एवं युक्तियुक्त है ।
3 अतः हम कह सकते हैं कि प्रथाएँ वे नियम हैं जो किसी परिवार , वर्ग अथवा स्थान विशेष में बहुत पहले से चले आने के कारण विधि से बाध्यकारी मान्यता प्राप्त कर लेते हैं । प्रथा एवं रूढ़ि में अन्तर – यद्यपि प्रथा एवं रूढ़ि एक – दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं परन्तु उनमें एक अति सूक्ष्म भेद हैं । प्रथा , उन प्राचीन नियमों को सम्बोधित करती हैं जिनमें प्राचीनता दृष्टिगोचर होती है , रूढ़ि अपेक्षाकृत कम प्राचीन होती हैं एवं कुछ काल पहले से ही प्रचलित होती हैं ।
प्रथाओं के प्रकार हिन्दू विधि के अनुसार प्रथाओं को तीन भागों में बाँट सकते हैं
( 1 ) स्थानीय प्रथाएँ ( देशाचार ) , ( 2 ) वर्गीय प्रथाएँ ( लोकाचार ) , ( 3 ) पारिवारिक प्रथाएँ ( कुलाचार ) ।
( 1 ) स्थानीय प्रथाएँ देशाचार – इसमें वे प्रथाएँ हैं , जो किसी विशेष स्थान अथवा प्रदेश में प्रचलित होती हैं । जुडिशियल कमेटी ने यु . सुमानी बनाम नवाब ( I. L. R. 1941 , पू . 154 ) के बाद में यह निरूपित किया कि “ यह निश्चित रूप से स्थापित हो चुका है कि किसी प्रदेश में प्रतिपादित प्रथाएँ इस बात से सम्बल प्राप्त करती हैं कि वे बहुत समय से प्रचलित हैं । उनको बहुत प्राचीन होना चाहिए , किन्तु इसका यह आशय नहीं कि वे प्रत्येक बार इतनी प्राचीन हों कि मानव स्मृति से परे हों ।
( 2 ) वर्गीय प्रथाएँ ( लोकाचार ) – ये वे प्रथाएँ हैं जो किसी जाति विशेष के लोगों पर लागू होती हैं । ये प्रथाएँ उस जाति के लोगों को चाहे वे किसी भी सीमा क्षेत्र में रहते हों , आबद्ध करती हैं । जैनों में पति की अनुमति के बिना भी विधवा को दत्तक लेने की प्रथा इस प्रकार की प्रथा थी ।
( 3 ) पारिवारिक प्रथाएँ ( कुलाचार ) – वे प्रथाएँ जो किसी परिवार में लागू होती हैं इस प्रकार की प्रथा के अन्तर्गत आती हैं जैसे ज्येष्ठाधिकारतथा अविभाज्य सम्पदा , वाद के उत्तराधिकार के नियम की प्रथा थी ।
प्रथाओं के आवश्यक तत्व वैध प्रथाओं में निम्न तत्त्वों का होना आवश्यक है
( 1 ) प्राचीनता ,
( 2 ) निरन्तरता ,
( 3 ) निश्चित तत्त्व ,
( 4 ) युक्तियुक्तता ,
( 5 ) प्रमाण – भार ,
( 6 ) नैतिकता एवं लोक नीति के विरुद्ध न होना ,
( 7 ) विधान अथवा अधिनियम के विरुद्ध न होना ,
( 8 ) आपसी समझौते द्वारा निर्मित न होना |
उच्चतम न्यायालय ने एक निर्णय में प्रथाओं के विषय में यह कहा कि किसी भी प्रथा को मान्यता प्रदान करने के लिए न्यायालय द्वारा उसे अपनाये जाने के लिए यह आवश्यक है कि प्रथा प्राचीन हो , निश्चित हो तथा युक्तियुक्त हो ।
(1) प्राचीनता — एक मान्य प्रथा के लिए यह आवश्यक है कि उसे प्राचीन होना चाहिए । यदि कोई प्रथा 100 वर्ष या इससे अधिक की अवधि से चली आ रही है तो वह प्राचीन कहलायेगी ।
( 2) अपरिवर्तनशीलता तथा निरन्तरता – प्रथा की वैधता के लिए यह आवश्यक है कि यह निरन्तर होनी चाहिए । निरन्तरता का अर्थ है- प्रथा का लगातार रूप से पालन होना । इस सम्बन्ध में प्रिवी कौंसिल ने कहा है कि “ पारिवारिक रूढ़ियों के लिए यह आवश्यक है कि वे सुस्पष्ट हों , अपरिवर्तनशील तथा निरन्तरतायुक्त हों तथा उनकी निरन्तरता में त्रुटि केवल घटनावश हुई हो । ‘
( 3 ) निश्चितता – किसी भी विधि – मान्य प्रथा का तीसरा आवश्यक तत्व यह है कि इसे निश्चित होना चाहिए । यदि कोई रूढ़ि अनिश्चित अर्थात् अस्पष्ट है तो उसे मान्यता नहीं मिल सकती ।
( 4 ) युक्तियुक्ता – किसी भी प्रथा के लिए यह अवशक है की वह प्राचीन हो , निश्चित हो तथा युक्तियुक्ता हो | यदि प्रथाए तर्क अथवा विवेक से परे है तो उन्हें मान्यता प्रदान की जायेगी । इसके साथ ही साथ यह बात भी सच है कि कोई भी प्रथा कारणों पर ही आधारित नहीं होती ; यद्यपि अर्थहीन प्रथा विधि बनाने के लिए अमान्यकर होती हैं ।
( 5 ) प्रमाण – भार – किसी भी प्रथा का सिद्धभार ( Burden of Proof Custom ) उस व्यक्ति पर होता है जो विधि की विरोधी प्रथा का सहारा लेकर किसी अधिकार को सिद्ध करना चाहता है । यह सिद्ध करने के लिए किसी परिवार ने अपनी प्रथाओं को जो मूल रूप से चली आयी थीं , त्याग दिया है और देश की विधि को स्वीकार कर लिया है , इस तथ्य का प्रमाण – भार उस व्यक्ति पर होता है जो यह तथ्य प्रस्तुत करता है ।
( 6 ) नैतिकता तथा लोक रीति के विरुद्ध न होना – मनु के अनुसार , “ कोई भी प्रथा नैतिकता और लोक नीति के विरुद्ध होकर मान्य नहीं हो सकती है । ” रूढ़ि का प्राचीन नाम सदाचार है । हर समाज में नैतिक धारणाएँ भिन्न – भिन्न हो सकती हैं । वही रूढ़ि मान्य होगी जो समकालीन समाज की धारणाओं के अनुरूप हो । हमारे प्राचीन ग्रन्थों में भी यह कहा गया है कि प्रथाएँ अच्छे आचरण वाले व्यक्तियों के द्वारा अपनाई गई रीतियों से सम्बन्ध रखती हैं तथा वे धर्मशास्त्र के विरोध में अथवा जनहित के विरोध में न हों और अनैतिक न हों ! वर्तमान हिन्दू समाज की धारणाओं के आधार पर वह प्रथा जिसके अन्तर्गत पत्नी बिना पति की अनुमति के उसे छोड़कर दूसरा विवाह कर सकती है या वह प्रथा जिसके अन्तर्गत पति कुछ धन देकर बिना पत्नी की स्वीकृति से उससे विवाह विच्छेद कर सकता है या वह रूढ़ि जिसके अन्तर्गत गोद लेने वाला पिता बालक के सगे पिता को कुछ धन राशि देता है । अनैतिक होने के कारण मान् और शून्य हैं ।
( 7 ) विधान तथा अधिनियमों द्वारा निषिद्ध न होना- किसी भी प्रथा के वैध होने के लिए यह आवश्यक है कि वह किसी विधान अथवा अधिनियमों द्वारा निषिद्ध नहीं होनी चाहिए ।
( 8 ) आपसी समझौते द्वारा निर्मित न होना – प्रथाएँ आपसी समझौते से निर्मित नहीं की जा सकी हैं । कुछ व्यक्तियों के आपसी समझौते द्वारा कोई भी इस प्रकार की प्रथा निर्मित नहीं की जा सकती जो एक नियम का रूप धारण कर ले तथा अन्य लोग के लिए बाध्यकारी हो ।
प्रथाओं का महत्व – बहुत प्रारम्भ काल से ही हिन्दू विधि में प्रथाओं को विधि का एक महत्वपूर्ण स्रोत माना गया है और उन्हें अप्राप्त शास्त्र पाठों पर आधारित माना गया है । शास्त्र पाठों पर आधारित होने से इनकी प्रामाणिकता शास्त्र पाठ के समान होने के साथ ही हिन्दू विधि का यह सिद्धान्त कि ” विधि ईश्वर निर्मित नहीं ” अक्षुण्य रहता है । हिन्दू ऋषियों ने उत्तम रीति – रिवाज के विषय में यहाँ तक मान्यता दी है कि वह हिन्दुओं पर बाध्यकारी होती हैं ।
मनु ने भी कहा है कि “पुराने रीति – रिवाजों में विधि की शक्ति है ।” वर्तमान अधिनियम हिन्दू विधि के अन्तर्गत प्रथाओं को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया है । हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 के अधीन प्रथाओं की प्रमाणिकता के आधार पर पिण्ड एवं प्रतिपिण्ड सम्बन्धों में भी अनुमति दे दी गई है । इसी प्रकार विवाह संस्कार को प्रचलित प्रथाओं के आधार पर सम्पन्न किये जाने की व्यवस्था मान्य बताई गई है । हिन्दू दत्तक ग्रहण अधिनियम 1956 के अधीन 15 वर्ष से अधिक आयु वाले बालक अथवा बालिकाओं को प्रथाओं की प्रमाणिकता के आधार पर दत्तक ग्रहण में लिया जा सकता है । इस प्रकार प्रथाओं को विधिक मान्यता प्रदान कर वर्तमान अधिनियम ने उनकी महत्ता को कायम रखा है ।