हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 द्वारा इसमें क्या परिवर्तन किये गये हैं
हिन्दू विवाह अधिनियम , 1955 द्वारा इसमें क्या परिवर्तन किये गये हैं ? विस्तृत रूप से समझाइए । What changes have been made in this by the Hindu Marriage Act, 1955? Explain in detail.
हिन्दू विधि में विवाह को एक महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है । सम्भवतः संसार में विवाह का इतना आदर्शीकरण हिन्दुओं के अतिरिक्त अन्य किसी जाति ने नहीं किया है । ऋग्वेद के पितृसत्ता युग में भी विवाह को संस्कार ही माना जाता था और हिन्दुओं के इतिहास में विवाह को सदैव संस्कार ही माना गया है । स्टेजी के अनुसार ” विश्व में किसी भी समाज द्वारा विवाह को इतना महत्व प्रदान नहीं किया गया , जितना कि हिन्दुओं द्वारा । ” विवाह के समय हिन्दू वर वधू से कहता है : ” मैं तुम्हारा हाथ सौभाग्य के लिये ग्रहण करता हूँ , तुम अपने पति के साथ ही वृद्धावस्था की ओर अग्रसर हो , सृष्टिकर्ता ने न्याय ने बुद्धिमानों ने तुझको मुझे दिया है ।
” मनु का कहना है कि स्त्री को पतिव्रत्य धर्म का पालन करना चाहिए । ऋग्वेद के एक मन्त्र के अनुसार वर – वधू से कहता है । ” ‘ तुम बनो । ईश्वर में श्रद्धा रखो , तुम अपने पति के गृह में रानी बन कर रहो । समस्त देवी – देवता वीर पुत्रों की माँ हमारे हृदयों को मिला कर एक कर दें । ” हिन्दू विवाह के अन्तर्गत पिता अपनी पुत्री के स्वामित्व को पति के हाथों सौंप देता है । हिन्दू विवाह की यह पद्धति वैदिककाल से चली आ रही है और इसे धार्मिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है ।
रघुनन्दन के अनुसार , “ विवाह वर के द्वारा कन्या को स्त्री रूप में महण करने की स्वीकृति है । कन्या उसके संरक्षक द्वारा दर को दान में दी जाती है । ” विवाह सभी जातियों के लिए आवश्यक माना गया है । विवाह का उद्देश्य उन तीन ऋणों में से एक से बन्धन मुक्त होना है जिनके बन्धन में प्रत्येक हिन्दू रहता है । ये तीन ऋण हैं – देव ऋण ,और पितृ ऋण | देव ऋण से मुक्ति यज्ञ करने से होती है , ऋषि ऋण से मुक्ति पाने के लिए वेदों का अध्ययन आवश्यक है तथा पितृ ऋण से मुक्ति पुत्र उत्पन्न करने से होता है । पुत्र उत्पन्न केवल विवाह द्वारा ही हो सकता है ।
विवाह का दूसरा उद्देष्य नरक से उद्धार पाना है । पुत्र का अर्थ नरक से ऋण देने वाले से होता है । पुत्र श्राद्ध इत्यादि द्वारा पिता की आत्मा को नरक से मुक्त करता है । इसलिए कहा भी गया है कि अपुत्रवान की गति नहीं होती । पुत्र प्राप्ति के लिए विवाह आवश्यक है । धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए भी पत्नी आवश्यक है । इन सब कारणों से ही हिन्दू विवाह को आवश्यक माना गया है । यह एक महत्वपूर्ण बात है कि हिन्दू विधि में विवाह को न तो शारीरिक वासना को तृप्त करने के साधन के रूप में देखा गया है और न इसे संविदात्मक दायित्व ही समझा गया है , वरन् विवाह को केवल धार्मिक अनुष्ठान माना गया है । मद्रास तथा बम्बई उच्च न्यायालयों ने भी हिन्दू विवाह को उन दस संस्कारों में से एक माना है जो शरीर को उसके वंशानुगत दोषों से शुद्ध करता है । विवाह वास्तविक रूप में अपने भाव में एक संस्कार है ।
विवाह के द्वारा एक मनुष्य पूर्णता प्राप्त कर सकता है । जिनके पत्नी है वे इस संसार में अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं जिनके पत्नी है वही परिवारिक जीवन व्यतीत कर सकते हैं , जिनके पत्नी है वे ही सुखी हैं , जिनके पत्नी है वे ही पूर्ण जीवन जी सकते हैं । अत : हम कह सकते हैं कि हिन्दू – विवाह एक संस्कार है , एक पवित्र बन्धन है । स्त्री पुरुष का विवाह एक धार्मिक कृत्य है , एक पवित्र बन्धन है ,
एक दैवी बन्धन है , अनुबन्ध नहीं । एक हिन्दू के लिये विवाह आवश्यक है । विवाह न केवल पुत्रोत्पत्ति के लिये पितृ ऋण से उऋण होने के • लिये अपितु धार्मिक और आध्यात्मिक कर्त्तव्यों के पालन गृहिणी ही नहीं वरन् धर्म पत्नी भी है और सह – धर्मिणी भी है । लिये भी आवश्यक है । पत्नी विवाह से पति – पत्नी में एक अविच्छिन्न सम्बन्ध उत्पन्न हो जाता है जो किसी प्रकार समाप्त नहीं किया जा सकता है । मनु के अनुसार , “ विवाह में कन्या एक ही बार दी जाती है और वह जीवन पर्यन्त उस व्यक्ति की पत्नी के रूप में बनी रहती है जिसको वह दी जाती है । ”
नारद एवं पाराशर ने पाँच ऐसी अवस्थाओं का वर्णन किया है जिनके अनुसार पत्नी अपने पति को छोड़ सकती है ।
वे अवस्थाएँ इस प्रकार हैं-
( 1 ) जबकि पति खो गया है ,
( 2 ) वह मर गया है ,
( 3 ) वह संन्यासी हो गया है ,
( 4 ) वह नपुंसक हो गया है ,
( 5 ) वह जाति से निकाल दिया गया है ।
किन्तु इस प्रकार का उपबन्ध केवल अमान्य पद्धति वाले विवाहों के लिए प्रदान किया गया था । अधिकतर शास्त्रकार इस बात को स्वीकार नहीं करते कि पत्नी किसी भी अवस्था में पति को छोड़ सकती है । उसके अनुस : मान्य तथा अमान्य दोनों पद्धतियों से सम्पन्न हुए विवाहों में पति – पत्नी के बीच एक अविच्छिन्न सम्बन्ध उत्पन्न होता है जो हिन्दू विवाह की एक विशेषता है । मनु के अनुसार स्त्री के दूसरे विवाह की कल्पना भी नहीं की जा सकती । पति की मृत्यु के बाद भी वह अपने जीवन को फल – फूल पर व्यतीत करके शरीर को क्षीण कर ले , किन्तु दूसरे पुरुष का नाम न ले । इस प्रकार क्षीण शरीर रखते हुए तथा ब्रह्मचारिणी का जीवन व्यतीत करती हुई आमरण सतीत्व जीवन बिताए ।
इससे वह स्वर्ग को अधिकारिणी होगी । हिन्दू विवाह एक संस्कार इसलिए माना जाता है कि वैवाहिक सम्बन्ध वर – कन्या के मध्य किसी संविदा के परिणामस्वरूप नहीं उत्पन्न होता है । यह कन्या के पिता द्वारा वर को दिया गया एक प्रकार का दान है जो अत्यन्त पवित्र एवं महत्वपूर्ण दान माना जाता है । विवाह धार्मिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करके ही पूर्ण माना जाता है । यदि धार्मिक कृत्य भली – भाँति सम्पन्न नहीं किए गए तो विवाह , विवाह नहीं माना जाता । विवाह पति – पत्नी के मध्य एक संस्कारात्मक योग १. माना जाता था जिसके अनुसार यह एक जन्म – जन्मान्तर का स्थायी सम्बन्ध माना गया । यह • सम्बन्ध पति – पत्नी के जीवन की किसी भी अवस्था में नहीं टूटता था ।
हिन्दू विवाह की इन्हीं मान्यताओं के कारण उसको संस्कारात्मक स्वरूप प्रदान किया • सकता क्योंकि यहाँ गया था , न कि संविदात्मक । हिन्दू विवाह वैसे भी संविदात्मक नहीं विवाह के पक्षकारों में कोई प्रस्ताव एवं स्वीकृति की बात नहीं होती जैसा कि मुस्लिम विधि में होता है । विवाह में कन्या को माता – पिता द्वारा एक सुयोग्य वर को सम्मान स्वेच्छा से दान में दे दिया जाता है जो उसे पत्नी के रूप में स्वीकार करता है तथा उसको एक गृहिणी की प्रतिष्ठा एवं आहार देने के लिए वचनबद्ध होता है । ऐसी स्थिति में वरं एवं कन्या अर्थात् विवाह के पक्षकारों में संविदा का कोई प्रश्न ही नहीं उठता और विवाह का संस्कारात्मक रूप बना रहता है । . हिन्दू विवाह अधिनियम , 1955 द्वारा विवाह विधि में किये गये महत्वपूर्ण एवं क्रान्तिकारी परिवर्तन हिन्दू विवाह अधिनियम , 1955 ने हिन्दू विवाह विधि में बहुत महत्वपूर्ण एवं क्रान्तिकारी परिवर्तन किये हैं ।
ये परिवर्तन निम्नलिखित हैं
- एक विवाह को विधितः प्रतिष्ठित किया गया है , द्वि – विवाह और बहुविवाह को दण्डनीय बताया गया है अर्थात् पुरुष की एक पत्नी और स्त्री का एक पति होगा । कोई भी एक दूसरे के काल में विवाह नहीं कर सकेगा ।
- विवाह विच्छेद की व्यवस्था की गई है ।
- अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता दी गई है ।
- एकोदार सम्बन्ध को मान्यता दी गई है ।
- सपिण्ड के विस्तार क्षेत्र को कम एवं प्रतिषिद्ध नातेदारी को सीमित किया गया है ।
- संरक्षकों की संख्या में वृद्धि की गयी है एवं उनके कुल में परिवर्तन किया गया है ।
- विवाह के राष्ट्रीयकरण की व्यवस्था की गयी है ।
- विवाह के सम्बन्ध में नये अनुतोषों का उपबन्ध किया गया है ।
- शून्य एवं शून्यकरणीय विवाहों की संतति की और सत्ता व्यवस्था की गयी है ।
- विवाह भंग के बाद संततियों की रक्षा के लिए नियम बना दिये गये हैं ।
- सगोत्र विवाहों को मान्यता दी गयी है । इसके अलावा हिन्दू विवाह ( संशोधन ) अधिनियम , 1976 द्वारा भी हिन्दू विवाह अधिनियम , 1955 में अनेक महत्वपूर्ण और गम्भीर संशोधन किये गये हैं और विवाह विधि को आधुनिक विकासशील समाज की दशाओं और तत्सम्बन्धी विचारों के अधिकाधिक अनुकूल बनाने का प्रयत्न किया गया है ।
कुछ मुख्य संशोधन निम्नलिखित हैं
- न्यायिक पृथक्करण और विवाह विच्छेद के आधारों को स्वीकृत कर दिया गया है ।
- यह स्पष्ट किया गया है कि विवाह किसी पक्षकार द्वारा विवाह को शून्य घोषित कराने की अर्जी विवाह के दूसरे पक्षकार के जीवनकाल में ही दी जा सकती है ।
- शून्यकरणीय विवाह के सम्बन्ध में नपुंसकता और कपट के आधारों को विस्तृत किया गया है ।
- विवाह – विच्छेद के आधारों को विस्तृत किया गया है और उन्हें नरम बनाया गया है । क्रूरता , अभिव्यंजन , परस्पर सहमति तथा पत्नी के पक्ष में की गयी भरण – पोषण की डिक्री विवाह – विच्छेद के नये आधार बनाये गये हैं ।
- विवाह के तीन वर्ष के भीतर विवाह विच्छेद के लिए कोई आवदेन न दाखिल कर सकने के उपबन्ध में संशोधन करके अवधि को एक वर्ष कर दिया गया है । इसी प्रकार विवाह – विच्छेद की डिक्री और पुनर्विवाह के बीच 1 वर्ष का अन्तराल होने के उपबन्ध को समाप्त कर दिया ।
- सन्तानों की वैधता ( धर्मजात ) के उपबन्ध को नरम तथा स्पष्ट किया गया है ।
- वैवाहिक कार्यवाही को शीघ्रता से निपटाने का उपबन्ध किया गया है । इसके अलावा बाल – विवाह निरोधक संशोधन अधिनियम , 1978 द्वारा विवाह की आयु को 18 वर्ष के स्थान पर 21 वर्ष तथा 15 वर्ष के स्थान पर 18 वर्ष कर दिया है ।