जैन धर्म के विकास और पतन का कारण
जैन धर्म के विकास और पतन का कारण – Reason For The Rise And Fall Of Jainism
विकास -Development
जब भगवान् महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए तो उस समय जैनियों की संख्या 14,000 के आसपास थी । उनके बाद भी जैन मत का प्रचार तथा प्रसार जारी रहा । परिणामस्वरूप जैन धर्म को मानने वाले अनुयायियों की संख्या में निरन्तर बढती जा रही । परन्तु इसके साथ ही जैन धर्म में कई सैद्धान्तिक मतभेद भी उत्पन्न हो गए । जिसका कारण यह हुआ कि जैन अनुयायी अनेक सम्प्रदायों में विभाजित हो गए । उनके कुछ प्रमुख सम्प्रदायों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है ।
1. जीविका (Livelihood) — आजीविक सम्प्रदाय की स्थापना गोशाल ने की थी । वह महावीर का शिष्य था । यह सम्प्रदाय अपने नियति ( किस्मत ) के सिद्धान्त के लिए विशेष तौर पर प्रसिद्ध है । इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के साथ जो होना है वह पहले से ही निश्चित है । इसे मनुष्य के प्रयासों द्वारा बदला नहीं जा सकता । यह सम्प्रदाय 13 वीं शताब्दी तक विकास करता रहा तथा इसके पश्चात् इसका पतन हो गया ।
2. दिगम्बर तथा श्वेताम्बर ( The Digambara and Svetambra) — जैन धर्म के सभी सम्प्रदायों में दिगम्बर तथा श्वेताम्बर सम्प्रदायों को प्रमुख स्थान प्राप्त है । चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में मगध में भयंकर अकाल पड़ा था । परिणामस्वरूप कई भिक्षु भद्रबाहु के नेतृत्व में मैसूर ( कर्नाटक ) चले गये । जो भिक्षु मगध में रह गये थे उन्होंने स्थूलभद्र को अपना नेता चुन लिया । इन भिक्षुकों ने पाटलिपुत्र में एक सभा का आयोजन किया तथा अपने साहित्य को एक नया रूप प्रदान किया । उन्होंने इस साहित्य को अंग का नाम दिया । इसके अतिरिक्त इन भिक्षुओं ने श्वेत वस्त्र धारण करने आरम्भ कर दिए । 12 वर्षों के पश्चात् जब भद्रबाहु पुनः मगध में आया तो वह स्थूलभद्र द्वारा किए गए परिवर्तनों से सहमत न हुआ । परिणामस्वरूप जैन मत दो सम्प्रदायों – दिगम्बर तथा श्वेताम्बर में विभाजित हो गया । इन दोनों सम्प्रदायों में प्रमुख अन्तर इस प्रकार हैं
1 ) दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी नग्न रहते हैं , जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी सफ़ेद वस्त्र पहनते
( 2 ) दिगम्बर सम्प्रदाय स्त्रियों को अपने सम्प्रदाय में शामिल नहीं करता परन्तु श्वेताम्बर करता है ।
( 3 ) दिगम्बर सम्प्रदाय वालों का कहना है कि स्त्रियां जब तक पुरुष रूप में जन्म न लें तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकतीं । परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय वाले इस सिद्धान्त को गलत मानते हैं ।
( 4 ) दिगम्बर सम्प्रदाय वालों का यह कथन है कि स्वामी महावीर जी ने विवाह नहीं करवाया था । श्वेताम्बर • सम्प्रदाय वालों का यह कथन है कि स्वामी महावीर जी ने विवाह करवाया था ।
( 5 ) दिगम्बर तथा श्वेताम्बर सम्प्रदायों ने अपने – अपने साहित्य रचे हैं ।
( 6 ) दिगम्बर सम्प्रदाय वालों की मूर्तियां भी नंगी हैं जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय वालों की मूर्तियों को वस्त्र पहनाये जाते हैं ।
पतन के कारण ( Due to Collapse)
आरम्भ में जैन धर्म का प्रचार तथा प्रसार अति तीव्र गति से हुआ । यह शीघ्र ही भारत के विभिन्न भागों में फैल गया । परन्तु कालान्तर में इसका पतन भी तीव्र गति से हुआ और यह क्षेत्र विशेष तक सिमट कर रह गया । इस मत सीमित को मानने वालों की संख्या भारत में कम रही तथा विदेशों में तो इसका प्रचार नगण्य हुआ । जैन धर्म के इस विकास के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे । इन कारणों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार हैं
1. व्यवस्थित प्रचार का अभाव ( Lack of Organised Preaching ) – जैन धर्म के अनुयायियों ने धर्म प्रचार के लिए कोई विशेष प्रयत्न न किये । स्वयं महावीर भी प्रचार कार्य के प्रति मौन रहे । महावीर स्वामी ने जैन संघ का निर्माण किया था , परन्तु यह बौद्ध धर्म की भान्ति सबल न था । अतः प्रचार भावना के अभाव के कारण यह धर्म लोकप्रिय न हो सका ।
2. धर्म में बुराई ( Evils in Religion )— आरम्भ में जैन धर्म के सिद्धान्त बहुत सरल थे । अतः वैदिक धर्म से पीड़ित लोगों ने यह धर्म स्वीकार कर लिया । परन्तु शीघ्र ही इस धर्म के सिद्धान्त भी वैदिक धर्म से मेल खाने लगे । अनेक सामाजिक संस्कार , भक्तिवाद तथा अनेक देवी – देवता जैन धर्म का भी अंग बन गए । इसके कारण इस धर्म की नवीनता समाप्त हो गई । फलस्वरूप जैन धर्म की लोकप्रियता भी न रही ।
3. कठोर तपस्या का सिद्धांत ( Principle of Meditation ) – जैन धर्म में घोर तपस्या पर बल दिया जाता है । उनके अनुसार लोगों को शारीरिक कष्ट भोगने चाहिएं । लोगों को भूखा प्यासा रह कर कई – कई दिन तक तपस्या करनी चाहिए । जन – साधारण इतना कठोर जीवन व्यतीत नहीं कर सकते थे । अतः यह धर्म लोगों में अधिक प्रिय न हो सका ।
4. राज्य सहायता की कमी ( Lack of Imperial Help ) — जैन धर्म को बौद्ध धर्म की भान्ति राजकीय सहायता प्राप्त न हुई । इस धर्म को अजातशत्रु तथा बिम्बिसार ने संरक्षण अवश्य प्रदान किया परन्तु उनके द्वारा दी गई सहायता पर्याप्त न थी । इन दो राजाओं के अतिरिक्त और किसी राजा ने जैन धर्म की अधिक सहायता नहीं की । फलस्वरूप यह धर्म अधिक लोकप्रिय न हो सका ।
5. अहिंसा का सिद्धान्त ( Principle of Ahimsa ) — जैन धर्म में वर्णित अहिंसा के सिद्धान्त को दैनिक जीवन में अपनाना बड़ा कठिन था । उनके अनुसार कीड़े – मकौड़े तथा कीटाणु आदि को मारना भी पाप है । जैन संन्यासी तो मुंह में पट्टी बांध कर नंगे पांव घूम सकते थे , परन्तु जन साधारण के लिए इतने कठोर नियम अपनाना असम्भव था । अतः लोगों में इसका अप्रिय होना स्वाभाविक था ।
6.बौद्ध धर्म का तेजी से प्रसार ( Rapid Spread of Buddhism ) — जैन धर्म की अप्रियता का एक और कारण यह भी था कि उन दिनों बौद्ध धर्म का भारत में तीव्र गति से प्रसार हुआ । बौद्ध धर्म एक प्रचारक धर्म था । इसके सिद्धान्त जैन धर्म की अपेक्षा अधिक सरल थे । साथ ही इसे अशोक जैसे राजाओं से पूरी सहायता प्राप्त हुई । फलस्वरूप लोग जैन धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म को अपनाने लगे ।
7. जैन धर्म में प्रवेश मुश्किल ( Difficult entry into Jainism ) – महावीर स्वामी जातीय भेद – भाव में विश्वास नहीं रखते थे । उन्होंने जैन संघ के द्वार सभी जातियों के लिए खोल रखे थे । परन्तु कालान्तर में इस संघ में प्रवेश सम्बन्धी उदारता का अभाव हो गया । जैन धर्म के अनुयायियों ने शूद्रों को यह धर्म अपनाने का अवसर न दिया । वे संघ में प्रवेश के लिए सदैव उच्च वर्ग के लोगों को ही प्राथमिकता देते थे । परिणामस्वरूप जैन धर्म अधिक लोकप्रिय न हो सका ।
8. विदेशी आक्रमण ( Foreign Invasions ) — मध्यकाल के दौरान भारत पर हुए मुस्लिम आक्रमणकारियों के आक्रमणों से जैन धर्म को गहरा आघात लगा था । इन आक्रमणों में जैन धर्म के अनेक मन्दिर , मूर्तियां तथा साहित्य नष्ट हो गए । दूसरी ओर जैनियों ने भी इन आक्रमणकारियों का कोई प्रतिरोध न किया क्योंकि वे अहिंसा के सिद्धान्त में विश्वास रखते थे । इस प्रकार इन आक्रमणों ने जैन धर्म के विकास में गतिरोध उत्पन्न कर दिया ।