महात्मा बुद्ध का जीवन तथा शिक्षाएं
महात्मा बुद्ध का जीवन तथा शिक्षाएं ( Life and Teachings of Mahatma Buddha )
महात्मा बुद्ध निश्चय ही भारत में जन्म लेने वाले महारुषों पुमें सबसे महान् थे । वास्तव में वे ही लोग महान् होते हैं जो साधारण मार्ग छोड़कर एक नवीन मार्ग पर चलते हैं । महात्मा बुद्ध ने भी एक ऐसा ही नवीन मार्ग अपनाया । वे राजकुमार थे । यदि वह चाहते तो राजकीय ठाट – बाट से जीवन व्यतीत कर सकते थे । परन्तु उन्होंने राजकीय ठाट – बाट की बजाय जंगलों की खाक छानी । उन्होंने सिंहासन नहीं , अपितु आसन ग्रहण किया । उन्होंने ऐश्वर्यों की बजाय अपने शरीर को कष्ट दिये । अन्त में उन्हें सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ और वह बुद्ध कहलाये । महात्मा बुद्ध के महान् जीवन तथा उनकी चिरकाल तक रहने वाली शिक्षाओं का वर्णन इस प्रकार है
महात्मा बुद्ध का जीवन ( Life of Buddha )
1. जन्म और पालन-पोषण( Birth and Parentage ) – महात्मा बुद्ध के बाल्यकाल का नाम सिद्धार्थ था । उनका जन्म 567 ई ० पू ० ( कुछ विद्वान् महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि 623 ई ० पू ० , 577 ई ० पू ० तथा 563 ई ० पू ० मानते हैं ) में बैसाख पूर्णिमा के दिन लुम्बिनी वन में हुआ । उनके पिता का नाम शुद्धोधन था जो शाक्यगण के प्रधान थे । शुद्धोधन का राज्य आधुनिक नेपाल की तराई में था । इसकी राजधानी कपिलवस्तु थी । वे शाक्य सूर्यवंशी क्षत्रियों से सम्बन्ध रखते थे और इनका गौत्र गौतम था । यही कारण है कि बुद्ध को गौतम के नाम से भी पुकारा जाता है । महात्मा बुद्ध की माता महामाया गोरखपुर जिले के गणराज्य अंजन की राजकुमारी थी । बौद्ध कथाओं के अनुसार एक रात बुद्ध की आत्मा ने श्वेत हाथी के रूप में रानी के गर्भ में प्रवेश किया । इसके एक वर्ष पश्चात् रानी गर्भवती हुई । बच्चे के जन्म से पूर्व मायके जाते समय वह लुम्बिनी बाग ( रुम्मिनदेई ) में रुकी । यहीं उन्होंने वैशाख की पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ को जन्म दिया । परन्तु गौतम के जन्म दिन के सातवें दिन ही उसका देहान्त हो गया । अतः गौतम का पालन – पोषण उनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया । सिद्धार्थ के जन्म के समय असित नाम के भविष्यवक्ता ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक या तो चक्रवर्ती सम्राट् बनेगा , या फिर कोई महान् धार्मिक पुरुष ।
2. बचपन और शादी ( Childhood and Marriage ) — आरम्भ से ही शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के लालन पालन पर विशेष ध्यान दिया । उसने उसे कभी दुःखी न रहने दिया । उसने आदेश जारी किए कि राजकुमार कोई अप्रिय जीव न देखे । इतना होने पर भी राजकुमार सदा गम्भीर रहता था । वह सदा जन्म – मरण के विषयों पर सोच विचार करता था | स्वभाव से ही वह पशु – पक्षियों के प्रति दया की भावना रखता था । सिद्धार्थ का मन संसार में लगाने के लिए उनके पिता ने 16 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह कोलिय गणराज्य की अति सुन्दर राजकुमारी यशोधरा के साथ कर दिया । उनके यहां राहुल ( बन्धन ) नाम के एक पुत्र ने जन्म लिया ।
3. चार महान जगहें ( Four Great Sights ) – सिद्धार्थ के जीवन में वास्तविक क्रान्ति लाने वाले चार महान् दृश्य थे । उन्हीं के कारण वह अपना मार्ग निश्चित कर सके । कहते हैं कि वह गुप्त रूप से अपने रथवान चन्ना के साथ चार बार नगर देखने निकले । तब उन्होंने एक वृद्ध व्यक्ति , रोगी , मृतक तथा संन्यासी को देखा था । पहले तीन दृश्यों ने उनके मन पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला । उन्होंने देख लिया कि संसार दुःखों का घर है । परन्तु उन्होंने साधु को प्रसन्नचित्त देखा था । उसका जीवन उन्हें आदर्शमय लगा । अतः उन्होंने गृह – त्याग कर संन्यासी बनने का निश्चय कर लिया ।
4. महान घर त्याग ( Great home abandon) – सिद्धार्थ का मन अधिक दुःखी रहने लगा था । वह घर बार तो छोड़ना चाहते थे , परन्तु उन्हें अपनी पत्नी तथा बच्चे का विचार आता था । आखिर एक रात वह अपनी पत्नी तथा बच्चे को सोता छोड़कर सत्य की खोज में निकल पड़े । उस समय उनकी आयु 29 वर्ष की थी । बौद्ध धर्म में इस घटना को ‘ महाभिनिष्क्रमण ‘ कहा जाता है ।
5. ज्ञान – प्राप्ति ( Enlightenment ) – गृह- त्याग करने के पश्चात् सिद्धार्थ राजगृह गए । वहां उन्होंने दो ब्राह्मण संन्यासियों अलार तथा उद्रक से दर्शन शास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया । परन्तु उनका मन शान्त न हुआ । तत्पश्चात् वह जंगलों में चले गये । वहां उन्होंने पांच शिष्यों के साथ छः वर्ष तक घोर तपस्या की । परन्तु सच्चा ज्ञान प्राप्त होने की उन्हें कोई आशा नहीं थी । वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उपवास आदि व्यर्थ हैं । इस पर उनके पांच शिष्य रुष्ट होकर चले गये । अब सिद्धार्थ अकेले ही गया की ओर निकल पड़े । वहां वह निर्जना नदी के समीप एक पीपल के वृक्ष के नीचे चिन्तन करने लगे । उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि जब तक उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं होगा वह अपने स्थान से नहीं हटेंगे । वह सात दिन तक अखण्ड समाधि में लीन रहे । वैसाख की पूर्णिमा वाले दिन उन्हें सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई । इस घटना को बौद्ध साहित्य में सम्बोधि कहा गया है । तब से गया को भी बौद्ध गया तथा उस वृक्ष को बोधिवृक्ष कहा जाने लगा । ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् सिद्धार्थ महात्मा बुद्ध नाम से विख्यात हुए । ज्ञान प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु 35 वर्ष की थी ।
6. धर्म प्रचार कार्य ( Preaching Work ) — ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध ने अपने ज्ञान का प्रचार प्रारम्भ किया । उन्होंने अपना पहला उपदेश अपने पुराने शिष्यों को बनारस के निकट सारनाथ के स्थान पर दिया । इस घटना को बौद्ध धर्म में धर्मचक्र परिवर्तन कहा जाता है । सारनाथ के पश्चात् महात्मा बुद्ध ने मगध , राजगृह , कपिलवस्तु आदि स्थानों पर अपना प्रचार किया । उन्होंने मगध में बौद्ध संघ की स्थापना की । धीरे – धीरे राजा तथा प्रजा सभी उनके शिष्य बनने लगे । उनके अपने पिता , पत्नी तथा पुत्र ने भी उनके धर्म को स्वीकार कर लिया । उनके चचेरे भाई देवदत्त को उनकी सफलता पर बड़ी ईर्ष्या हुई और उसने उन्हें मरवाने का भी प्रयत्न किया । परन्तु वह अपने उद्देश्य में सफल न हो सका ।
7. महापरिनिर्वाण ( Mahaparnirvana ) – महात्मा बुद्ध 45 वर्ष तक प्रचारक के रूप में कार्य करते रहे । अपने अन्तिम समय में महात्मा बुद्ध प्रचार करते हुए पावा पहुंचे । वहां उन्हें अतिसार ( पेचिश ) का रोग हो गया । तत्पश्चात् वह कुशीनगर पहुंचे । यहीं पर 487 ई ० पू ० में वैशाख पूर्णिमा के दिन उन्होंने अपनी देह त्याग दी । उस समय उनकी आयु 80 वर्ष की थी । बौद्ध धर्म में इस घटना को महापरिनिर्वाण कहा जाता है ।
II . महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं ( Teachings of Lord Buddha )
महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं बड़ी सरल तथा प्रभावशाली थीं । परिणामस्वरूप इनका लोगों के मनों पर जादुई प्रभाव पड़ा ।
इन शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है
1. चार आर्य सत्य ( Four Great Truths ) – महात्मा बुद्ध के उपदेशों के मूल आधार या सिद्धान्त चार आर्य सत्य हैं । ये चार आर्य सत्य हैं—
( i ) दुःख – संसार दुःखों का घर है । जन्म से मृत्यु तक दुःखों का चक्र चलता रहता है । मनुष्य को कभी किसी वस्तु के पाने का दुःख होता है , तो कभी खोने का ।
( ii ) तृष्णा – दुःखों का कारण तृष्णा अथवा लालसा है । तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती । इसके कारण मनुष्य काम , क्रोध , लोभ आदि के चक्र में फंसता है ।
( ii ) दुःख से छुटकारा – तृष्णा पर विजय करने पर ही दुःखों से छुटकारा मिल सकता है और मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है ।
( iv ) अष्टमार्ग – तृष्णा पर विजय के लिए मनुष्य को अष्टमार्ग पर चलना चाहिए ।
2. अष्टमार्ग ( Eightfold Path ) — महात्मा बुद्ध के अष्टमार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता है । महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को निम्नलिखित आठ सत्यों का पालन करना चाहिए –
( i ) सत्य दृष्टि- चार आर्य सत्यों को समझना तथा अष्टांग मार्ग की ओर दृष्टि रखना ही सत्य दृष्टि का कार्य है ।
( ii ) सत्य संकल्प- कामनाओं , वासनाओं तथा हिंसा से मुक्त संकल्प ही सत्य संकल्प है ।
( iii ) सत्य वाणी – सच्ची , विनम्र तथा मृदु वाणी जिससे प्रेम फैले ही सत्य वाणी है ।
( iv ) सत्य कर्म- इससे अभिप्राय सतकर्मों से है ।
( v ) सत्य निर्वाह – अपना निर्वाह करने के लिए शुद्ध कर्मों से आजीविका कमाना ।
( vi ) सत्य प्रयत्न – इससे आशय है शुद्ध तथा ज्ञानयुक्त प्रयत्न
( vii ) सत्य भाव – इसका तात्पर्य है कि मनुष्य को सारे काम बड़े विवेक और सावधानी से करने चाहिएं ।
( viii ) सत्य ध्यान – इससे अभिप्राय चित्त की एकाग्रता से है ।
3. चरित्र और नैतिकता पर जोर ( Stress on Character and Morality ) महात्मा बुद्ध ने चरित्र की महानता तथा नैतिकता पर अधिक बल दिया है । उनके अनुसार निम्नलिखित बातों पर चल कर ही मनुष्य पूर्ण रूप से चरित्रवान् तथा सदाचारी बन सकता है-
( i ) सदा सच बोलो ।
( ii ) चोरी न करो ।
( iii ) मादक पदार्थों का सेवन न करो ।
( iv ) ब्रह्मचर्य का पालन करो ।
( v ) ऐश्वर्य के जीवन से दूर रहो । ( vi )
नाच , गाने का त्याग करो ।
( vii ) धन से दूर रहो ।
( viii ) सुगन्धित वस्तुओं का प्रयोग न करो ।
( ix ) झूठ मत बोलो ।
( x ) किसी को कष्ट न दो ।
4. कर्म का सिद्धांत ( Theory of Karma ) बौद्ध धर्म में कर्म सिद्धान्त को पूर्ण रूप से स्वीकार किया गया है । उनके अनुसार मनुष्य को इस जन्म के कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है । अच्छे कर्मों से पापों से मुक्ति मिलती है और मनुष्य निर्वाण को प्राप्त होता है ।
5. कठिन ध्यान में अविश्वास ( Disbelief in Hard Meditation ) — महात्मा बुद्ध घोर तपस्या के पक्ष में नहीं तक तपस्या का जीवन व्यतीत किया था । परन्तु उन्हें कुछ प्राप्त न हुआ । अतः वह समझते थे कि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए भी निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है ।
6. भगवान में अविश्वास ( Disbelief in God ) — महात्मा बुद्ध ईश्वर में विश्वास नहीं रखते थे । वह ईश्वर की सत्ता के विषय में मौन रहे । इसका कारण यह था कि वह किसी वाद – विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे । वह समझते थे कि कोई ऐसी शक्ति अवश्य है जो संसार को चला रही है । इस शक्ति को • ईश्वर की बजाय धर्म मानते थे ।
7. जाति व्यवस्था में अविश्वास ( Disbelief in Caste System ) – महात्मा बुद्ध जाति प्रथा में विश्वास नहीं रखते थे । उनके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं । ऊंच – नीच का भेदभाव मनुष्य ने स्वयं पैदा किया है । सभी निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं । इसके लिए एक ही बात आवश्यक है -— अष्टमार्ग का अनुसरण करना
8. यज्ञ और बलिदान के खिलाफ ( Against Yajna and Sacrifice ) — महात्मा बुद्ध यज्ञ – बलि आदि को व्यर्थ के रीति – रिवाज समझते थे । वह हिन्दू धर्म के इस सिद्धान्त को नहीं मानते थे कि यज्ञ आदि करके मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है । वह मन्त्रों का उच्चारण करना भी व्यर्थ समझते थे । उनके अनुसार ऐसे रीति – रिवाजों पर बल देना धर्म को एक ढोंग बनाना है ।
9. वेदों और संस्कृत में आस्था नहीं ( No Faith in the Vedas and Sanskrit ) – हिन्दू धर्म के अनुसार वेद का परन्तु महात्मा बुद्ध हिन्दू धर्म के इस सिद्धान्त से सहमत नहीं थे । उनके अनुसार सच्चा ज्ञान किसी भाषा में भी प्राप्त किया जा सकता है । उन्होंने संस्कृत भाषा की पवित्रता में अविश्वास प्रकट किया तथा वेदों को अधिक महत्त्व प्रदान न किया ।
10. अहिंसा ( Ahimsa ) – महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को मन , वचन तथा कर्म से अहिंसा का पालन करना चाहिए । किसी जीव की हत्या नहीं की जानी चाहिए । उनके अनुसार यज्ञों में पशुबलि भी एक निर्दयतापूर्ण है । । मनुष्य को सभी जीवों के साथ दया तथा प्रेम का व्यवहार करना चाहिए । परन्तु महात्मा बुद्ध का अहिंसा का सिद्धान्त महावीर स्वामी के सिद्धान्त की तरह कठोर न था ।
11. निर्वाण ( Nirvana ) – बौद्ध धर्म के अनुसार मनुष्य का सबसे बड़ा लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है । उनके अनुसार मनुष्य को संसार में रहकर अपने इसी जीवन में निर्वाण प्राप्त करना चाहिए । निर्वाण से उनका अभिप्राय सच्चे ज्ञान से था जो उन्होंने स्वयं भी प्राप्त किया था । उनका कहना था कि जो व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं , वे जीवन – मृत्यु के चक्कर से छुटकारा पा लेते हैं ।
सच तो यह है कि महात्ममा बुद्नुध ने किसी नवीन धर्ष्यम का प्रचार नहीं किया उन्होंने तो मनुष्य को मात्र जीने सच तो यह है कि महात्मा बुद्ध ने किसी नवीन धर्म का प्रचार नहीं किया । उन्होंने का मार्ग दिखाया । कर्म – सिद्धान्त , अष्टमार्ग , जाति प्रथा का विरोध , तपस्या का निषेध तथा सदाचार पर बल सभी ऐसी बातें थीं जिनको बुद्ध की शिक्षाओं से प्रेरणा पाती रहेगी । अन्त में हम डॉ ० बी ० जिनानंदा के इन शब्दों ” वास्तव में महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं एक ओर प्रेम तथा दूसरी ओर तर्क पर आधारित थीं ।