महावीर स्वामी का जीवन तथा शिक्षाएं
महावीर स्वामी का जीवन तथा शिक्षाएं-Life and Teachings of Lord Mahavira
महावीर स्वामी भारत के एक महान् व्यक्तित्व थे । उन्होंने स्वयं कष्ट सह कर दुःखी मानवता को सत्य , अहिंसा तथा भाईचारे का संदेश दिया । हजारों वर्ष पूर्व उन्होंने ज्ञान की जो ज्योति जलाई थी , वह आज भी संसार में प्रकाश फैला रही है । वह जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर थे । आधुनिक जैनमत का रूप महावीर जी ने ही निखारा था । उनके जीवन तथा शिक्षाओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है I
महावीर स्वामी का जीवन -Life of Lord Mahavira
1. जन्म और पालन-पोषण-Birth and Parentage — महावीर स्वामी का वास्तविक नाम ‘ वर्द्धमान ‘ था । उनका जन्म 599 ई ० पू ० में वैशाली गणराज्य के कुण्डग्राम नामक गांव में हुआ था । उनके पिता सिद्धार्थ क्षत्रिय कबीले जनत्रिंका के प्रधान थे । उनकी माता का नाम त्रिशला था । वह लिच्छवी राजा चेटक की बहन थी । उनके भाई का नाम नन्दीवर्धन था । उनका बचपन राजकुमारों की भांति व्यतीत हुआ था । उन्हें राजकुमारों जैसी शिक्षा – दीक्षा दी गई ।
2. वैवाहिक जीवन और त्याग ( Married Life and Renunciation ) — युवा होने पर महावीर जी का विवाह यशोदा नाम की एक सुन्दर राजकुमारी से किया गया । उनके यहां एक कन्या का जन्म हुआ । इसका नाम प्रियदर्शना अथवा अनोजा रखा गया । वर्द्धमान 30 वर्ष तक अपने परिवार में रहे । जीवन के सभी सुख उन्हें प्राप्त थे । फिर भी संसार से उनका मन विरक्त रहता था । उन्होंने संसार त्यागने का निश्चय किया । इस निर्णय से उनके माता – पिता बड़े दुःखी हुए । अतैव महावीर को अपने माता – पिता के जीते जी गृह – त्याग का विचार छोड़ना पड़ा । ज्यों ही उनके माता – पिता की मृत्यु हुई , महावीर ने अपने भाई नन्दीवर्धन से आज्ञा लेकर तपस्या का जीवन आरम्भ कर दिया ।
3. शिक्षा प्राप्ति ( Educational Attainment) – गृह – त्याग करने के उपरान्त महावीर ने कठोर तप आरम्भ कर दिया । इस कठोर तप में उनके वस्त्र आदि फट गए , जो उन्होंने पुनः धारण नहीं किए । कठोर तप करते – करते उन्हें 12 वर्ष बीत गए । इस दौरान उन्होंने अपने शरीर को कई प्रकार से कष्ट देकर साधा । अन्ततः बारह वर्ष , पांच मास तथा पन्द्रह दिन के कठोर तप के पश्चात् महावीर को जरिमबिक ग्राम में एक शाल वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई । उस समय उनकी आयु 42 वर्ष थी । ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महावीर जिन ( इन्द्रियों के विजेता ) , निर्ग्रन्थ ( सांसारिक बन्धनों से मुक्त ) , अर्हत ( पूज्य ) तथा कैवलिन ( कैवल्य प्राप्त ) आदि विभिन्न नामों से पुकारे गए ।
4. धर्म प्रचार ( Preaching) — ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महावीर 30 वर्ष तक अपने उपदेशों के प्रचार में लगे रहे । उन्होंने अपना सर्वप्रथम उपदेश मगध साम्राज्य की राजधानी राजगृह में स्थित विपुल पर्वत पर दिया । उनके प्रमुख प्रचार केन्द्र थे – राजगृह , वैशाली , कौशल , कौशाम्बी , अवन्ति , चम्पा , मिथिला , विदेह तथा अंग । वह इन राज्यों के बड़े – बड़े नगरों में उपदेश देते रहे । वर्षा ऋतु में वह भिन्न – भिन्न राज्यों की राजधानियों में विश्राम करते थे । वे ग्रामों में एक रात तथा नगरों में पांच रात ठहरते थे । मगध राज्य में महावीर का विशेष आदर था । वहां का राजा बिम्बिसार तथा उसका पुत्र अजातशत्रु उनके अनन्य भक्त थे । महावीर उच्चकोटि के वक्ता थे । अतः अनेक वर्गों के लोग उनके वचनों के प्रभाव में आए । उनके जीवनकाल में लगभग 14,000 व्यक्ति उनके शिष्य बन गए थे ।
5. निर्वाण ( Nirvana ) – 30 वर्ष तक धर्म प्रचार करने के पश्चात् महावीर ने निर्वाण ( मुक्ति ) प्राप्त किया । यह घटना 527 ई ० पू ० में पटना में पावा नामक स्थान पर घटित हुई । उस समय उनकी आयु 72 वर्ष की थी ।
भगवान महावीर की शिक्षा या जैन धर्म के सिद्धांत ( Teachings of Lord Mahavira or Doctrines of Jainism )
महावीर स्वामी अथवा जैन धर्म के उपदेश बड़े सरल थे । इनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है
1. कर्म के सिद्धांत में विश्वास( Belief in the theory of Karma ) — जैन धर्म में कर्म सिद्धान्त का बड़ा महत्त्व है । उनके अनुसार कर्म आत्मा में जमा होते रहते हैं । प्रत्येक जन्म में इन कर्मों की वृद्धि होती रहती है । अत : आत्मा को कर्मों से मुक्त करना चाहिए । ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जब उसे नए कर्मों से बचाया जाये तथा पुराने जमा कर्मों को समाप्त कर दिया जाए । नहीं तो मनुष्य जन्म – मरण के चक्कर में ही पड़ा रहेगा । जैन धर्म के कर्म सिद्धान्त का बड़े सुन्दर शब्दों में वर्णन किया गया है । ” जिस प्रकार जले हुए बीज से अंकुर नहीं फूटता , उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के जलने से सांसारिक अस्तित्व समाप्त हो जाता है ।
2. पुनर्जन्म ( Rebirth) — जैन धर्म वाले पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं । महावीर स्वामी के अनुसार कर्म तथा पुनर्जन्म साथ – साथ चलते हैं । उनके अनुसार हम देखते हैं कि संसार में कुछ लोग धनी परिवारों में जन्म लेते हैं तो कुछ निर्धन परिवारों में । कुछ व्यक्ति 20 वर्ष की आयु में मर जाते हैं तो कुछ 100 वर्ष तक जीवित रहते हैं । इसका प्रमुख कारण व्यक्ति के कर्म हैं । अच्छे कर्म अच्छे जन्म का कारण बनते हैं तथा बुरे कर्म बुरे जन्म में धकेलते हैं । महावीर स्वामी जी ने कहा है । कर्मों के प्रभाव से बचने का कोई उपाय नहीं है । मनुष्य को अपने प्रत्येक कर्म का फल भोगना पड़ता
3. त्रिरत्न ( Tri – Ratna ) — महावीर स्वामी ने निर्वाण प्राप्त करने के लिए अपने अनुयायियों को त्रिरत्नों पर चलने का उपदेश दिया । ये तीन रत्न थे – सच्ची श्रद्धा ( Right Faith ) , सच्चा ज्ञान ( Right Knowledge ) और सच्चा आचरण ( Right Conduct ) । पहले रत्न के अनुसार जैनियों को 24 तीर्थंकरों तथा जैन ग्रन्थों में सच्ची श्रद्धा होनी चाहिए । दूसरे रत्न के अनुसार जैनियों को सच्चा एवं पूर्ण ज्ञान होना चाहिए । यह ज्ञान तीर्थंकरों के उपदेशों के गहन अध्ययन से प्राप्त किया जा सकता है । तीसरे रत्न के अनुसार मनुष्य को पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए । इसके लिए उसका आचरण सच्चा होना चाहिए । संक्षेप में जैन धर्म में इन त्रिरत्नों का विशेष महत्त्व है ।
4. आत्मा के अस्तित्व में विश्वास ( belief in the existence of spirit) — जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है । उनके अनुसार आत्मा अमर है । आत्मा में ज्ञान है और यह सुख – दुःख का अनुभव करती है । आत्मा शरीर में रहकर भी शरीर से भिन्न होती है । जैनियों के अनुसार आत्मा केवल मनुष्यों तथा पशु – पक्षियों में ही नहीं अपितु पेड़ , पौधों , वायु , अग्नि , पत्थरों आदि में भी विद्यमान है ।
5. पांच महाव्रत ( The Five Mahavartas ) – महावीर स्वामी पांच महाव्रत पर बल देते थे । वह अपने अनुयायियों से आशा करते थे कि वे पांच महाव्रत का पालन करें । ये महाव्रत हैं-
( i ) अहिंसा – अहिंसा प्रत्येक जैनी का परम धर्म है । केवल हत्या करना ही हिंसा नहीं बुराई • सोचना अथवा करना भी हिंसा ही है ।
( ii ) सत्य सदा सत्य बोलो । सत्य बोलने में सुन्दरता भी है और माधुर्य भी । ऐसी बात न करो जिसमें कटुता हो ।
( iii ) चोरी न करना – मनुष्य को दूसरों की चीजें नहीं चुरानी चाहिएं । इसमें चोरी का व्यापक अर्थ लिया गया है । बिना आज्ञा दूसरों की वस्तु या धन लेना , उनके यहां ठहरना या बिना दिखाए भिक्षा में मिला अन्न ग्रहण करना भी चोरी है । –
( ii ) ब्रह्मचर्य – मनुष्य को विषय वासनाओं से दूर रहना चाहिए । सच्चा ब्रह्मचारी वही है जो न तो विषय वासना के बारे में सोचता है और न ही इस बारे में बात करता है ।
( v ) संग्रह न करना- व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक धन आदि का संग्रह नहीं करना चाहिए । इससे लगाव उत्पन्न होता है और मनुष्य सांसारिक बन्धनों में फंसता है ।
6. तेज और ध्यान ( Fast and Meditation ) — जैन धर्म वाले उपवास और तपस्या में बहुत विश्वास रखते हैं । उनके अनुसार उपवास तथा तप से आत्मा को शक्ति मिलती है और बुरी प्रवृत्तियों का दमन होता है । फलस्वरूप मनुष्य कर्म के बन्धनों से मुक्त हो जाता है ।
7. जाति प्रथा का विरोध ( Against Caste System ) — महावीर स्वामी जाति प्रथा थे । उनके अनुसार सभी जातियां समान हैं । किसी भी जाति का सदस्य जैन धर्म में सम्मिलित हो सकता था । इस विश्वास नहीं रखते प्रकार उन्होंने मनुष्य की समानता पर बल दिया तथा समाज के पिछड़े वर्गों के लिए मोक्ष के द्वार खोल दिये । निःसन्देह यह एक क्रान्तिकारी कदम था ।
8. भगवान में अविश्वास (Disbelief in God) — महावीर स्वामी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते थे । वह हिन्दू धर्म के इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते थे कि सृष्टि की रचना ईश्वर ने की है । जैन दर्शन में तो पूर्ण अथवा स्वतन्त्र आत्मा ही परमात्मा है । जैन धर्म वाले इन्हीं मुक्त आत्माओं की पूजा करते हैं । जैनी इन्हें ही तीर्थंकर कहकर पुकारते हैं ।
9. वेदों तथा संस्कृत की पवित्रता में अविश्वास ( Disbelief in the Vedas and the sanctity of Sanskrit Language ) — जैन धर्म के अनुसार वेद ईश्वरीय ज्ञान का भण्डार नहीं हैं और न ही संस्कृत पवित्र भाषा है । महावीर स्वामी ने स्वयं लोगों की बोलचाल की भाषा वेदों और संस्कृत भाषा का कोई योगदान नहीं है । ज्ञान का प्रचार किया ।
10. यज्ञ , बलि आदि में अविश्वास ( Disbelief in Yajna , Sacrifice ) — जैन धर्म में भी यज्ञ , बलि आदि रीति – रिवाजों का विरोध किया जाता है । महावीर स्वामी ने अपने अनुयायियों को पशु बलि की मनाही कर दी है । उनके अनुसार पशु बलि महापाप है तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए यज्ञ आदि की कोई आवश्यकता नहीं है ।
11. निर्वाण ( Nirvana ) – स्वामी महावीर के अनुसार मनुष्य के जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है । जैनी इसे सिद्धशील भी कहते हैं । निर्वाण से अर्थ आवागमन के चक्कर से मुक्ति है । इस अवस्था में पहुंच कर मनुष्य के लिए जन्म – मृत्यु का चक्कर समाप्त हो जाता है तथा उसे असीम शान्ति प्राप्त होती है । इस स्थिति में मनुष्य के लिए सुख तथा दुःख आदि की कोई अनुभूति नहीं रह जाती ।