मिताक्षरा और दायभाग में अंतर

मिताक्षरा तथा दायभाग शाखाओं में क्या अंतर है ।

मिताक्षरा और दायभाग -मूल रूप से हिन्दू विधि की दो शाखाएँ हैं- प्रथम मिताक्षरा तथा दूसरा दायभाग । इन दोनों पद्धतियों में पर्याप्त विभिन्नता है । एक तो वे लोग हैं जो मिताक्षरा का अनुगमन करते हैं तथा दूसरे वह हैं जो दायभाग का अनुगमन करते हैं ।

मिताक्षरा

  1. मिताक्षरा इसको कट्टर पंथ कहा जाता है
  2. मिताक्षरा बंगाल को छोड़कर सारे भारतवर्ष में सर्वोच्च प्रमाण के रूप में मान्य है ।
  3. इसमें सम्पत्ति का अधिकार जन्म से होता है । पुत्र पिता के साथ सह- स्वामी होता है ।
  4. सम्पत्ति का अधिकार पिता को सीमित होता है ।
  5. लड़का पिता के विरुद्ध बँटवारे का दावा कर सकता है ।
  6. इसमें संयुक्त परिवार के सदस्य की मृत्यु | होने पर उसका हिस्सा उत्तर जीवित्व ( Survivership ) से चला जाता है ।
  7. दाय का सिद्धान्त रक्त पर आधारित है ।
  8. मिताक्षरा एक परम्परानिष्ठ पद्धति है ।
  9. फैक्टम वैलेट के सिद्धान्त को इसमें सीमित रूप से माना है ।
  10. मिताक्षरा एक टीका है ।

दायभाग

  1. इसको प्रगतिशील तथा सुधारात्मक पंथ कहा जाता है ।
  2. दायभाग बंगाल में सर्वोच्च प्रमाण के रूप में मान्य है
  3. मृत्यु के बाद अधिकार उत्पन्न होता है ।
  4. पिता सम्पत्ति का पूर्ण स्वामी होता है । अतः उसे सम्पत्ति हस्तांतरण का पूर्ण अधिकार है।
  5. पिता के जीवनकाल में लड़का बँटवारे का दावा नहीं कर सकता है
  6. इसके मृतक का हिस्सा उत्तराधिकार के अनुसार वारिसों को मिलता है ।
  7. दाय पारलौकिक लाभ प्राप्त करने के सिद्धान्त पर आधारित है अर्थात् दाय वे ही लोग प्राप्त कर सकते हैं जो पिण्डदान कर सकते हैं ।
  8. दाय संशोधित पद्धति है ।
  9. फैक्टम वैलेट के सिद्धान्त को दायभाग में पूर्णरूपेण माना गया है ।
  10. दायभाग समस्त संहिताओं का एक सार संग्रह है ।
मिताक्षरा और दायभाग में अंतर
मिताक्षरा और दायभाग में अंतर 

उपर्युक्त बिन्दुओं के अतिरिक्त मिताक्षरा और दायभाग के बीच का अन्य आधार ‘ सपिण्ड ‘ शब्द के अर्थ में अनेक मतभेदों से उत्पन्न है । दायभाग के अनुसार ‘ सपिण्ड ‘ का अर्थ है वही ‘ पिण्ड ‘ और ‘ पिण्ड ‘ का अर्थ है रवीर का गोल भाग जो एक हिन्दू द्वारा अपने मृतक पूर्वजों के प्रति अन्तिम संस्कार के रूप में दिया जाता है । इस प्रकार ‘ सपिण्ड ‘ शब्द का यह अर्थ है कि वे जिनका कर्त्तव्य दूसरों को ‘ पिण्ड ‘ प्रदान करना है । इसके विपरीत विज्ञानेश्वर ने सपिण्ड सम्बन्ध की परिभाषा इस प्रकार दी है कि यह एक ऐसा सम्बन्ध है जो व्यक्तियों के बीच उत्पन्न होता जो एक शरीर के द्वारा सम्बन्धित होते हैं ।

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