मिताक्षरा हिन्दू विधि के अन्तर्गत विभाजन का क्या अभिप्राय है ?
मिताक्षरा हिन्दू विधि के अन्तर्गत विभाजन का क्या अभिप्राय है ?
विभाजन का अर्थ – मिताक्षरा विधि के अनुसार विभाजन के दो विशिष्ट अर्थ होते हैं—
( 1 ) पारिवारिक सम्पत्ति के विभिन्न सदस्यों के अनिश्चित हितों को निर्दिष्ट अंशों में समायोजन करना ।
संयुक्त प्रास्थिति का पृथक्करण तथा उसके विधिक परिणाम ।
जतरू प्रधान बनाम अम्बिका जो . के वाद में विभाजन की परिभाषा इस प्रकार दी गई . ” संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में सहदायिकी के चल हितों का निर्दिष्ट भागों में स्फुटन ( Crystalisation ) ।
” मयूख के अनुसार , “ विभाजन केवल एक प्रकार की मनः स्थिति है जिसमें विभाजन होने का आशय ही विभाजन है । यह एक विधि है जिसके द्वारा संयुक्त अथवा पुनः संयुक्त परिवार का कोई सदस्य पृथक् हो जाता है तथा सहभागीदार नहीं रह जाता है । विभाजन के लिए किसी अन्य सदस्य की अनुमति अथवा किसी न्यायालय की डिक्री अथवा कोई अन्य लेखा आवश्यक नहीं है ।
” दायभाग से चूँकि पिता सम्पत्ति का स्वामी होता है अतः जब तक वह जीवित है उसके पुत्रगण सम्पत्ति का विभाजन नहीं करा सकते । पिता की मृत्यु के बाद ही पुत्रगण विभाजन कर सकते हैं । इस कारण दायभाग का कहना है कि
” विभागोऽर्थस्य पित्रयस्य पुत्रैर्यत्र प्रकल्प्यते ।
दायभाग इति प्रोक्तः व्यवहार पदं बुधै ।।”
अर्थात्
जहाँ पुत्रगण ( पिता की मृत्यु के पश्चात् ) पिता की सम्पत्ति पृथक् भाग करते हैं विधि के उस विषय को विद्वान लोग ” विभाजन ” के नाम से पुकारते हैं ।
प्राणनाथ बनाम राजिन्दरनाथ के वाद में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा निर्णीत करते हुए यह कहा है कि ” जब संयुक्त परिवार के सदस्य अथवा सहदायिकी के विभिन्न शाखा के प्रमुख अंशों के निर्धारण के लिए सहमत हो जाते हैं तो उसे उनकी संयुक्त स्थिति को विघटन समझ लिया जाता है , हालांकि सम्पत्ति का माप और सीमांकन करके बँटवारा वाद में होता है ।
इस प्रकार विभाजन से हमारा अभिप्राय अविभाजित सम्पत्ति में सहभागीदारों के भाग को निर्धारित कर देने से है । सम्पत्ति में सदस्यों का भाग निर्धारित हो जाने पर सम्पत्ति का वस्तुतः बँटवारा हो जाता है
विभाजन के विधिक अर्थ – हिन्दू विधि में सहदायिकी के विभाजन के विशिष्ट अर्थ हैं । संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्तियों के वास्तविक बँटवारे को सदैव विभाजन नहीं माना जावेगा । हिन्दू विधि के विभाजन का अर्थ है अविभाज्य स्थिति की समाप्ति । जब एक सदस्य विभाजन की स्पष्ट इच्छा व्यक्त नहीं करता है तब तक विभाजन नहीं होता है । हिन्दू अविभाजित परिवार के सदस्य द्वारा पृथक् होने की स्पष्ट इच्छा की अभिव्यक्ति मात्र से ही विभाजन जो जाता है ।
जब एक बार अंशों को निश्चित कर दिया जाता है तो उनकी संयुक्त स्थिति में अलगाव हो जाता है तब पक्षकारं सम्पत्ति का विभाजन करे या सम्पत्ति का आपस में साथ – साथ उपभोग करें कोई अन्तर नहीं पड़ता ।
एक विभाजन के वैध होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि इसे पूरी संयुक्त सम्पदा के सम्बन्ध में होना चाहिए और यह ही आवश्यक है कि इसे सभी सहदायिक के मध्य होना चाहिए । यह दोनों के लिए आंशिक हो सकता है । जहाँ विभाजित होने के लिए संयुक्त सम्पत्ति नहीं है , वहाँ केवल घोषणा द्वारा विभाजन हो सकता है ।
एक विभाजन के लिए ” मै तुमसे अलग हूँ ” केवल मनोदशा को सूचित करता है । विभाजन के लिए सम्पत्ति का अस्तित्व आवश्यक नहीं है तथा पृथक्करण के लिए कारण सारहीन है ।
मेजर प्रेमनाथ बनाम राजिन्दर नाथ के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह कहा कि एक बार संयुक्त परिवार के सदस्य अथवा विभिन्न शाखाओं के मुखिया अंशों के निर्धारण की बात तय कर लेते हैं तो उसमें यह मान लिया जायेगा कि संयुक्त स्थिति में विभाजन हो गया , भले ही सम्पत्ति का माप और सीमांकन बाद में किया जाय ।
अधिकार तथा सम्पत्ति का विभाजन – लार्ड वेस्टबर्न ( Lord Westborn ) ने एप्रोविम ब . रायसुब्बा अय्यर के वाद में मिताक्षरा विभाजन की दो अवस्थायें बतलायी हैं । इसके अनुसार , ” प्रथम अवस्था पृथक होने की मनोस्थिति में प्रत्येक सहदायिकी के भागों का निर्धारण आता है । दूसरी अवस्था में पूर्व संयुक्त सम्पत्ति के सदस्यों के व्यक्तिगत सहदायिकी के निर्धारित भागों में विभाजन आता है । इसे हम प्रथम अवस्था में अधिकारों का विभाजन तथा दूसरी अवस्था में सम्पत्ति का विभाजन कहते हैं । ” विभाजन का सामान्य सिद्धान्त यह है कि एक बार विभाजन हो जाने पर उसे दुबारा नहीं कराया जा सकता है ।
मनु ने भी कहा है कि “ विभाजन एक बार होता है , पुत्री एक बार विवाह में दी जाती है तथा “ मैं देता हूँ ” मनुष्य एक ही बार कहता है — ये तीन बातें सुयोग्य व्यक्ति एक ही बार सदैव के लिए और अन्तिम रूप से करते हैं ।
मार्तण्ड ब . राधाबाई के वाद में कहा गया है कि “ जब विभाजन एक बार हो जाता है तो परिवार की संयुक्त प्रस्थिति टूट जाती है । यदि विभाजन दाखिल खारिज से प्रमाणित कर दिया जाता है तो वह अन्तिम होगा भले ही वह दूरस्थ उद्देश्य से किया गया हो तथा ऐसे विभाजन परिवार के उन सदस्यों पर बाध्य होगा जो विभाजन के पूर्व संयुक्त थे ।
इस सामान्य नियम के कुछ अपवाद भी हैं—
( 1 ) यदि विभाजन के समय पुत्र माता के गर्भ में है और वह जीवित पैदा होता है , तो वह फिर से विभाजन करा सकता है बशर्ते कि उसके लिए उक्त विभाजन में कोई अंश संरक्षित नहीं रखा गया हो ।
( 2 ) यदि लड़का विभाजन के बाद गर्भ में आता है और पैदा हो जाता है और यदि उसके पिता के अपने लिए हिस्सा नहीं लिया है , यद्यपि वह अपना भाग सुरक्षित रख सकता था , तो विभाजन के बाद तथा गर्भ में आया हुआ लड़का विभाजन का पुनः विभाजन (re-open) करा सकता है।
(3) ऐसा कोई सहभागीदार जो किसी निर्योग्यता के कारण अपने हिस्से को प्राप्त करनेसे वंचित हो गया हो,उसकी निर्योग्यता दूर हो जाने पर फिर से विभाजन करा सकता है।
(4) यदि किसी सहभागीदार के ऊपर या किसी दूसरे अनुचित तरीके से अपने लिए फायदेमन्द स्थिति विभाजन से प्राप्त कर ली है तो फिर विभाजन कराया जा सकता है।
(5) यदि विभाजन अवयस्क सहभागीदारों के हितों के प्रतिकूल है तो नाबालिग अनुरोध पर फिर विभाजन कराया जा सकता है।
(6) यदि बँटवारे के बाद पता चलता है कि जिस सम्पत्ति का विभाजन किया गया है वह किसी अजनबी की है या संयुक्त परिवार उसका सम्पूर्ण मालिक नहीं है।
न्यायालय ने रतनम चैटियार व एस. एम. कुणुस्वामी के वाद में यह निर्धारित किया है कि “संयुक्त हिन्दू परिवार में किसी सदस्य की स्वेच्छा से अथवा सहमति से विभाजन होता है तो तब तक पुनः निर्धारित नहीं हो सकता है जब तक यह प्रमाणित न कर दिया जाये कि विभाजन धोखा देकर दबाव के गलत प्रतिनिधित्व करके अनुचित प्रभाव डालकर के प्राप्त किया गया था ।
विभाजन कैसे होता है ? (Partition how affected) – हम देख चुके हैं कि विभाजन अविभक्त हैसियत का विच्छेद करता है। जब तक परिवार का कोई सदस्य परिवार से अलग होने सम्बन्धी स्पष्ट घोषणा नहीं करता है तब तक वह परिवार का सदस्य बना रहता है क्योंकि यह विधि की उपधारणा है कि हिन्दू परिवार संयुक्त होता है। सभी धर्मशास्त्र इस बात पर एकमत हैं कि अविभाजित परिवार के किसी सदस्य द्वारा पृथक् होने की इच्छा की अभिव्यक्ति मात्र से ही विभाजन हो जाता है। प्रिवी कौंसिल ने भी अनेक वादों में यह अभिनिर्धारित किया है कि किसी अविभाजित परिवार के सदस्य द्वारा परिवार से पृथक् हो जाने की ओर अपने अंश पृथक रूप से उपयोग करने की इच्छा की स्पष्ट और असंदिग्ध अभिव्यक्ति से ही विश्वास हो जाता है। किसी सदस्य द्वारा ऐसा करते ही अभिव्यक्ति हैसियत समाप्त हो जाती है
किसी भी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का विभाजन निम्नलिखित तरीके से होता है-
(1) पृथक होने की घोषणा द्वारा विभाजन (Partition by a mere declaration to separate) – संयुक्त परिवार का कोई सदस्य जब यह घोषणा कर देता है कि वह सहभागीदार सम्पत्ति से पृथक् होना चाहता है तो विधि यह कल्पना कर लेगी कि वह संयुक्त . परिवार की सहभागीदारी सम्पत्ति से पृथक हो गया है परन्तु यह आवश्यक है कि ऐसी इच्छा की सूचना परिवार के अन्य सदस्यों को होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो विभाजन नहीं माना जायेगा | उच्चतम न्यायालय का भी यह मत हैं कि पृथक होने की एक सदस्य की इच्छा दूसरे सदस्यों के अलग हुए बिना बँटवारा नहीं हो सकता है । 3 से
(2) नोटिस द्वारा विभाजन (Partition by Notice) – संयुक्त परिवार को अविभाजित सम्पत्ति का विभाजन सम्पत्ति नोटिस द्वारा भी हो सकता है। जब तक सदस्य कर्त्ता परिवार के अन्य सदस्यों को यह नोटिस देता है कि वह अविभक्त सम्पत्ति का विभाजन चाहता है तो ऐसी दशा में सम्पत्ति का विभाजन हो जायेगा । यह विभाजन सूचना देने की तिथि से होता है न कि अन्य सदस्यों द्वारा उससे प्राप्त करने की तिथि से नोटिस अन्य सदस्यों की सहमति से वापस होने पर विभाजन नहीं माना जायेगा । –
( 3 ) मुकदमे द्वारा विभाजन ( Partition by Suit ) – अविभाजित सम्पत्ति का विभाजन मुकदमा दायर करके भी हो जाता है । विभाजन के लिए वाद प्रस्तुत करना , करने वाले सदस्य की पृथक् होने की इच्छा स्पष्ट और असंदिग्ध अभिव्यक्ति मानी जाती है । वाद प्रस्तुत करने की तिथि से विभाजन माना जाता है । –
( 4 ) करार द्वारा विभाजन ( Partition by means of an Agreement ) – संयुक्त परिवार के सदस्यों के बीच मौलिक अथवा लिखित पृथक् होने के आपसी करार से भी विभाजन हो जाता है किन्तु विभाजन के लिए यह आवश्यक है कि करार में विभाजन इच्छा स्पष्ट रूप में व्यक्त हो । –
( 5 ) पंच निर्णय द्वारा विभाजन ( Partition by Arbitration ) – जब अविभाजित सम्पत्ति के आपस में विभाजन के लिए परिवार के सदस्यों द्वारा पंचों के नियुक्ति की घोषणा कर दी जाती है उसी तिथि से परिवार की अविभाजित हैसियत का विघटन माना जाता है चाहे पंच अपना निर्णय दें या न दें , इससे संयुक्त परिवार की अविभाजित हैसियत स्थिर नहीं जायेगी । (
(6 ) विशेष विवाह अधिनियम 1954 के अधीन विवाह करने के द्वारा ( Marriage under Special Marriage Act , 1854 ) – विशेष विवाह अधिनियम 1954 की धारा 19 के अनुसार उस अधिनियम के अन्तर्गत विवाह करने वाला हिन्दू , बौद्ध अथवा जैन धर्म का व्यक्ति अपने परिवार से पृथक् हुआ व्यक्ति माना जायेगा । –
( 7 ) धर्म परिवर्तन द्वारा विभाजन ( Conversion to another Religion ) – यदि संयुक्त परिवार का कोई सदस्य अपना हिन्दू धर्म त्याग कर कोई अन्य धर्म जैसे इस्लाम या ईसाई धर्म ग्रहण कर लेता है , तो अविभक्त परिवार से पृथक् माना जाता है धर्म परिवर्तन की है तिथि के समय जो उसका अंश होगा उसे वह पाने का हकदार होगा । संयुक्त परिवार के एक सदस्य के धर्म परिवर्तन से उसकी हैसियत तो पृथक् हो जाती है किन्तु अन्य सदस्यों के बीच उसकी संयुक्त हैसियत बनी रहती है ।
( 8 ) पिता द्वारा विभाजन ( Partition by Father ) – पिता को यह अधिकार है कि वह अपने जीवनकाल में संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का विभाजन सह भागीदारों में कर दे । हिन्दू विधि के अनुसार पिता इस बात के सक्षम है कि वह अपने जीवनकाल में विभाजन कर दे और इस प्रकार उसके द्वारा किया गया विभाजन उसके पुत्रों पर बाध्यकारी होगा । पिता को बँटवारे के लिए पुत्रों की सहमति या स्वीकृति लेना आवश्यक नहीं है ।
उच्चतम न्यायालय द्वारा कल्याणी बनाम नारायण के वाद में यह कहा गया है कि एक हिन्दू पिता अपने पुत्रों के साथ मिताक्षरा विधि के अधीन संयुक्त परिवार के प्रबन्धक की मौजूदगी में विभाजन कर सकता है तथ पुत्रों को बन्धित कर सकता है । इसके द्वारा वह पुत्रों को अपना अंश निर्धारित करके उनको अलग कर सकता है । किन्तु उसको संयुक्त परिवार की सम्पत्ति परिवार के विभिन्न सदस्यों के बीच इच्छा पत्र के सहदाय से विभाजित करने का अधिकार नहीं है । वह भले ही उनकी सहमति से इस प्रकार कर सकता है ।