न्यायिक पृथक्करण क्या है
न्यायिक पृथक्करण ( Judicial separation )
न्यायिक पृथक्करण ( Judicial separation ) – अधिनियम की धारा 10 न्यायिक पृथक्करण का अनुतोष कुछ निश्चित परिस्थितियों में प्रदान किया गया है । यह अनुतोष विवाह के दोनों पक्षकारों को प्राप्त है , अर्थात् पति – पत्नी दोनों इसके लिए याचिका प्रस्तुत कर सकते हैं । हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 10 ( 1 ) में यह उपबन्धित किया गया है कि “ विवाह पक्षकारों में से कोई पक्षकार चाहे वह विवाह इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व अनुष्ठापित हुआ
हो चाहे पश्चात् , जिला न्यायालय की धारा 13 की उपधारा ( 1 ) में और पति की दशा में उसकी उपधारा ( 2 ) के अधीन विनिर्दिष्ट आधारों में से किसी ऐसे आधार पर , जिस पर विवाह – विच्छेद के लिए आवेदन – पत्र दाखिल किया जा सकता था , न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए प्रार्थना करते हुए आवेदन – पत्र उपस्थित कर सकेगा ।
जिला न्यायालय द्वारा ऐसे विवाहों को न्यायिक पृथक्करण की दशा में स्वीकृत किया जायेगा । यदि याची धारा 10 की उपधाराओं के उपखण्डों में से किसी भी एक शर्त को पूरा करता है ।
अतः धारा 10 ( 1 ) के अन्तर्गत न्यायिक पृथक्करण के निम्नलिखित आधार हैं
( 1 ) जहाँ प्रत्युत्तरदाता ने विवाह के बाद स्वेच्छा से किसी दूसरे व्यक्ति के साथ लैंगिक सम्भोग किया है ।
( 2 ) क्रूरता ( Cruelity ) – जब याची के साथ दूसरे पक्ष ने क्रूरता का व्यवहार किया है ।
( 3 ) अभित्याग ( Desertion ) – जब याची का दूसरे पक्ष ने दो वर्ष तक लगातार • अभित्याग किया हो ; यह समय याचिका के दायर करने की तिथि से दो वर्ष पूर्व तक माना जायेगा । ( धारा 19 – ए )
व्याख्या— इस उपधारा ( 1 ) में अभित्याग पद का अर्थ है बिना तर्क संगत कारण के और बिना आवेदक की सहमति या उसकी इच्छा के विरुद्ध प्रतिपक्षी द्वारा आवेदक का अभित्याग उसमें शामिल है । प्रतिपक्षी द्वारा आवेदक की दृढ़पूर्वक उपेक्षा ( Wilful neglect ) और उसके व्याकरण सम्बन्धी अन्वय और समान पदों की व्याख्या तद्नुसार की जायेगी ।
( 4 ) कोढ़ ( Leprosy ) – जब दूसरा पक्ष याचिका दायर करने के एक वर्ष पहले घोर कोढ़ से पीड़ित रहा हो ( धारा 10 स ) ।
( 5 ) रतिजन्य रोग ( Venereal disease ) – जब दूसरा पक्ष याचिका दायर करने के समय के पूर्व से ऐसे रतिजन्य रोग से पीड़ित रहा हो जो सम्पर्क से दूसरे को भी हो सकता
( 6 ) मानसिक विकृतता ( Unsound mind ) – जब प्रत्युत्तरदाता उपचार से ठीक न होने योग्य मस्तिष्क विकृतता से पीड़ित हो अथवा इस प्रकार की मानसिक अव्यवस्था है लगातार अथवा बार – बार पीड़ित रहा है और जब इस सीमा तक पीड़ित रहा है कि याची प्रत्युत्तरदाता के साथ युक्तियुक्त ढंग से नहीं रह सकता –
( क ) व्याख्या- ‘ मानसिक अव्यवस्था ‘ पद से मानसिक बीमारी , मस्तिष्क का अपूर्ण अथवा प्रभावित विकास मनोवैज्ञानिक विकृति या व्याधियाँ अथवा इसी प्रकार को मानसिक निर्योग्यता तथा विकृति का बोध होता है । इसके अन्तर्गत सभी मानसिक रोग सम्मिलित हैं ।
( ख ) ‘ मनोवैज्ञानिक विकृति ‘ का तात्पर्य लगातार होने वाली एक ऐसी मानसिक अव्यवस्था अथवा मानसिक निर्योग्यता से है जिससे प्रत्युत्तरदाता का असामान्य रूप से उग्र अथवा गम्भीर रूप से अनुत्तरदायित्वपूर्ण आचरण का बोध होता है । चाहे वह उपचार के योग्य हो अथवा न हो
( 7 ) धर्म परिवर्तन ( Conversion of religion ) – यदि प्रत्युत्तरदाता धर्म परिवर्तन द्वारा हिन्दू नहीं रह गया तो याची इस आधार पर न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त सकता है ।
( 8 ) संसार परित्याग ( Renouncing the world ) – विवाह का कोई पक्षकार संसार का परित्याग करके संन्यास धारण कर लेता है तो दूसरा पक्षकार न्यायिक पृथक्करण डिक्री प्राप्त कर सकता है
( 9 ) प्रकल्पित मृत्यु – यदि विवाह के किसी पक्षकार के बारे में सात वर्ष या इससे अधिक समय से उन लोगों के द्वारा जीवित होना नहीं सुना गया है । जो उसके विशेष सम्बन्धी हैं और जिन्हें , यदि वह व्यक्ति जीवित होता , तो उसके जीवित होने का ज्ञान होता , तो विवाह के दूसरे पक्षकार को न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त करने का आधार प्राप्त हो जाता है ।
पत्नी के लिए अतिरिक्त आधार – न्यायिक पृथक्करण की याचिका दायर करने के लिए पत्नी को निम्न अतिरिक्त आधार प्राप्त हैं .
( 1 ) पति द्वारा बहुविवाह – पत्नी न्यायिक पृथक्करण की याचिका इस आधार पर भी प्रस्तुत कर सकती है कि पति ने अधिनियम के प्रारम्भ के होने के पूर्व पुनः विवाह कर लिया था अथवा विवाह के पूर्व पति द्वारा विवाह की गई कोई पत्नी पर यह आधार तथा लागू होगा जबकि दूसरी पत्नी याचिका प्रस्तुत करने के समय जीवित हो ।
( 2 ) पति द्वारा बलात्कार , गुदा मैथुन अथवा पशुगमन – यदि पति विवाह सम्पन्न होने के बाद बलात्कार ( Rape ) गुदा मैथुन ( Sodomy ) या पशुगमन ( Bestiability ) का दोषी रहा हो तो इन आधारों पर न्यायिक पृथक्करण • डिक्री पारित की जा सकती है ।
( 3 ) जहाँ हिन्दू दत्तक ग्रहण तथा भरण – पोषण अधिनियम , 1956 की धारा 18 के अधीन अथवा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 की कार्यवाही के अन्तर्गत पति के विरुद्ध पत्नी के पक्ष में भरण – पोषण की आज्ञप्ति ( Decree ) अथवा आदेश पारित कर दिया गया है और इस प्रकार की आज्ञाप्तियाँ आदेश पारित हो जाने के बाद विवाह के पक्षकारों में सहवास एक वर्ष अथवा अधिक वर्षों से नहीं हुआ है ।
( 4 ) यदि उसका विवाह 15 वर्ष की आयु पूरा होने के पूर्व सम्पन्न हुआ है और उसकी 15 वर्ष की आयु प्राप्त करने के पश्चात् किन्तु 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने के पूर्व विवाह को समाप्त कर दिया है ।
व्याख्या— यह नियम उस हालत में भी लागू होगा चाहे विवाह विधियाँ ( संशोधन ) अधिनियम , 1976 के लागू होने के पहले या बाद में विवाह सम्पन्न हुआ हो ।
न्यायिक पृथक्करण के परिणाम – न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त कर लेने के निम्नलिखित परिणाम होते हैं—
- विवाह सम्बन्ध का विच्छेद नहीं होता है ।
- पति – पत्नी एक – दूसरे के साथ सहवास करने के दायित्व से मुक्त हो जाते हैं किन्तु न्यायालय धारा 10 ( 2 ) के अधीन ऐसी डिक्री को विखण्डित भी कर सकता है यदि उस डिक्री का आवेदनकर्ता अथवा प्रत्याशी उसे विखण्डित करने का आवेदन करता है और न्यायालय . प्रार्थना पत्र में किए गए कथनों की सत्यता के बारे में अपना समाधान करता है और डिक्री को विखण्डित करना न्यायोचित और युक्तियुक्त समझता है ।
- पति – पत्नी एक – दूसरे के साथ तथा सहवास आदि करने के लिए बाध्य नहीं रह जाते ।
- यदि स्त्री याची है तो उसे पति से एक प्रकार का निर्वाह भत्ता प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है । यदि वह पति हैं तो धारा 25 के अन्तर्गत पत्नी से भरण – पोषण का दावा कर सकता है ।
- पत्नी डिक्री की तिथि से लेकर जब तक पृथक्करण रहता है अपनी हर प्रकार की सम्पत्ति के सम्बन्ध में स्वतन्त्र समझी जाती है ।
जीतसिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिमत व्यक्त किया है कि न्यायिक पृथक्करण की डिक्री अनेक अधिकार और दायित्वों को जन्म देती है इससे पति – पत्नी को अलग रहने का न्यायिक अनुमति प्राप्त हो जाती है तथा किसी पक्षकार को एक – दूसरे के सहवास का अधिकार नहीं रहता है । विवाह से उत्पन्न सभी अधिकार स्थगित हो जाते हैं । किन्तु न्यायिक पृथक्करण की डिक्री विवाह को समाप्त नहीं कर देती । इसके द्वारा पारस्परिक समन्वय तथा सम्मिलन का अवसर प्राप्त हो जाता है तथा पक्षकार यदि चाहें तो अपने जीवनपर्यन्त पति – पत्नी जैसा जीवन व्यतीत कर सकते हैं ।