प्रकृति अथवा नैसर्गिक संरक्षक की शक्तियाँ ?
प्रकृति अथवा नैसर्गिक संरक्षक की शक्तियाँ ( Powers of a natural guardian )
प्रकृति अथवा नैसर्गिक संरक्षक – अधिनियम की धारा 8 में अवयस्क के शरीर तथा सम्पत्ति के सम्बन्ध में प्राकृतिक संरक्षक की शक्तियों की विवेचना की गई है । धारा 8 इस प्रकार है
( 1 ) हिन्दू अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक इस धारा के प्रावधानों के अधीन रहते हुए • ऐसे समस्त कार्यों को कर सकता है जो उस अवयस्क के लाभ के लिए अथवा उसकी सम्पदा के उगाहने , संरक्षण या फायदे के लिए आवश्यक या युक्तियुक्त और उचित हो , किन्तु संरक्षक किसी भी दशा में अवयस्क को व्यक्तिगत संविदा के द्वारा बाध्य नहीं कर सकता ।
( 2 ) प्राकृतिक संरक्षक न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना –
( क ) अवयस्क की अचल सम्पत्ति के किसी भाग को बन्धक या भारित ( Charge ) या विक्रय , दान , विनिमय या अन्य किसी प्रकार से हस्तान्तरित नहीं करेगा , या
( ख ) ऐसी सम्पत्ति के किसी भाग को पाँच से अधिक होने वाली अवधि के लिए तथा जिस तारीख को अवयस्क वयस्कता प्राप्त करेगा , उस तारीख से एक वर्ष से अधिक होने वाली अवधि के लिए पट्टे पर नहीं देगा ।
( 3 ) प्राकृतिक संरक्षक के उपधारा ( 1 ) या उपधारा ( 2 ) के उपबन्धों के विरुद्ध सम्पत्ति का जो कोई हस्तान्तरण किया है , वह उस अवयस्क की या उसके दावा करने वाली किसी व्यक्ति की प्रेरणा पर शून्यकरणीय होगा ।
( 4 ) कोई भी न्यायालय प्राकृतिक संरक्षक की उपधारा ( 2 ) में वर्णित कार्यों में किसी को भी करने की अनुज्ञा नहीं देगा सिवाय उस दशा में जब कि वह आवश्यक हो या अवयस्क की स्पष्ट भलाई के लिए हो ।
( 5 ) संरक्षक तथा वार्डस अधिनियम , 1890 की उपधारा ( 2 ) के अधीन न्यायालय की अनुज्ञा प्राप्त करने के लिए आवेदन तथा उसके सम्बन्ध में सभी बातों में इस प्रकार लागू होगा , जैसे कि वह उस अधिनियम को धारा 29 के अधीन न्यायालय की अनुज्ञा प्राप्त करने के लिए आवेदन हो तथा विशिष्ट रूप में –
( क ) आवेदन से सम्बन्धित कार्यवाहियाँ उस अधिनियम के अधीन उसकी धारा 4 के के अर्थ के भीतर कार्यवाहियाँ समझी जायेंगी ।
( ख ) न्यायालय उस प्रक्रिया का अनुपालन करेगा और उसे शक्तियाँ प्राप्त होंगी जो उस अधिनियम की धारा 3 की उपधाराओं ( 2 ) , ( 3 ) और ( 4 ) में विनिर्दिष्ट हैं , तथा
( ग ) न्यायालय के ऐसे आदेश- अपील , जो नैसर्गिक संरक्षक को इस धारा की उपधारा ( 2 ) में वर्णित कार्यों में से किसी भी कार्य को करने की अनुज्ञा देने से इन्कार करे , उस न्यायालय में होगी जिसमें उस न्यायालय के विनिश्चयों की अपील मामूली तौर पर होती हैं ।
( 6 ) इस धारा में न्यायालय से तात्पर्य जिला न्यायालय अथवा संरक्षक तथा वार्डस अधिनियम , 1890 की धारा 4 – क के अधीन सशक्त न्यायालय से है जिसके क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाओं के अन्तर्गत वह अचल सम्पत्ति है , जिसके बारे में आवेदन किया गया है और जहाँ अचल सम्पत्ति किसी ऐसे एक से अधिक न्यायालय के क्षेत्राधिकार में स्थित है , न्यायालय से तात्पर्य है जिसकी स्थानीय सीमाओं के क्षेत्राधिकार में उस सम्पत्ति का कोई प्रभाग स्थित है ।
” इस प्रकार अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम की धारा 8 के अनुसार प्राकृतिक संरक्षक ऐसे समस्त कार्यों को करने की शक्ति रहता है जो अवयस्क के लाभ के लिए अथवा इस अवयस्क की सम्पदा के भावना , संरक्षण या फायदे के लिए आवश्यक , युक्तियुक्त और उचित हो । अवयस्क के फायदे के लिए कार्यों को करने का अधिकार संरक्षक को अवयस्क के उचित शरीर के संरक्षक के रूप में होता है । उस रूप में उसे अवयस्क के पालन – पोषण , शिक्षा , स्वास्थ्य आदि बातों की देख – भाल करनी पड़ती है और अवयस्क के धार्मिक संस्कारों को सम्पादित करना पड़ता है । संरक्षक अवयस्क की सम्पदा की समस्त आय इन कार्यों पर व्यय कर सकता है । आवश्यकता पड़ने पर वह अवयस्क की सम्पदा का हस्तान्तरण कर सकता है और इस प्रकार का हस्तान्तरण विधि मान्य होगा । पूर्व हिन्दू विधि के अन्तर्गत प्राकृतिक संरक्षक को विस्तृत अधिकार दिये गये थे । प्राकृतिक संरक्षक के अवयस्क के सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार के विषय में प्रिवी कौंसिल ने हनुमान प्रसाद बनाम मु . बुबई के वाद में स्पष्ट रूप से यह निर्धारित किया है कि “ आवश्यकता की दशा में प्राकृतिक संरक्षक अवयस्क की सम्पत्ति का बन्धकरण कर सकता है , बेच सकता है , उस पर प्रभार ( Charge ) निर्मित कर सकता है तथा अन्य प्रकार से उसका व्यय कर सकता है ।
” विधिक आवश्यकता का निर्माण प्रत्येक दशा में अलग – अलग परिस्थितियों के अनुसर किया जायेगा । अवयस्क का भरण – पोषण , उसकी सम्पत्ति की देखभाल , उसके पिता की अन्त्येष्टि क्रिया तथा पिता के ऋणों को चुकाना आदि विधिक आवश्यकता के अन्तर्गत आता है जिसके लिए संरक्षक अवयस्क की सम्पत्ति का अन्य व्ययन कर सकता है । है अभी हाल में उच्चतम न्यायालय ने धारा 8 के क्षेत्र की व्याख्या करते हुए यह कहा कि यह धारा नैसर्गिक संरक्षक द्वारा अचल सम्पत्ति के अन्य संक्रमण करने के अधिकार की सीमा की विवेचना करता है । जहाँ अवयस्क की माता बिना किसी विधिक आवश्यकता के अथवा सम्पदा के प्रलाभ के बिना उसकी सम्पत्ति को बेच देती है तथा इस आशय की अनुमति न्यायालय से प्राप्त नहीं की गई है वहाँ भले ही अवयस्क के पिता ने ऐसे विक्रय को प्रमाणित कर दिया हो वहाँ ऐसे विक्रयनामा को नैसर्गिक संरक्षक द्वारा विक्रयनामा नहीं माना जायेगा और वह अन्य संक्रामण ( विक्रय ) इस धारा की सीमा के अन्तर्गत शून्य माना जायेगा न कि शून्यकरणीय |
सुमन बनाम श्रीनिवास के बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि “ अवयस्क के संरक्षक द्वारा की गई संविदा का अवयस्क द्वारा तथा अवयस्क के विरुद्ध विनिर्दिष्ट रूप से पालन भुलाया जा सकता है । हिन्दू विधि के अन्तर्गत नैसर्गिक संरक्षक को यह शक्ति प्रदान की गई है कि अवयस्क की ओर से संविदा करे और इस प्रकार की संविदा , यदि अवयस्क के हित में है , तो उसके ऊपर बाध्यकारी होगा और वह लागू किया जायेगा । ” ‘ इसी प्रकार जहाँ किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिए माता द्वारा अपने अवयस्क पुत्र की • ओर से दावा दायर किया जाता है जब कि पिता जीवित है और माता तथा पिता के बीच सम्बन्ध ठीक नहीं हैं , वहाँ न्यायालय द्वारा यह अधिनिर्धारित किया गया कि यदि माता और उसकी सन्तान के हितों में विरोध नहीं है तो इस प्रकार दावा करने का माता को अधिकार प्राप्त है ।
हनुमान प्रसाद बनाम बुबई वाले वाद में प्रिवी कौंसिल ने यह स्पष्ट रूप से निरूपित किया था कि आवश्यकता की दशा में अथवा सम्पदा के लाभ की दशा में अवयस्क की सम्पत्ति के प्रबन्ध कर्ता को सीमित तथा सापेक्ष अधिकार प्राप्त है । यहाँ आवश्यकता की दशा से तात्पर्य विधिक आवश्यकता से है ।