राजराज प्रथम की सफलताएं -Achievements of Rajaraja I 

 राजराज प्रथम की मुख्य विशेषताओं 

राजराज प्रथम चोल वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली तथा महान् शासक था । उसने 985 ई ० से 1014 ई ० तक शासन किया । उसके पिता का नाम सुन्दर चोल तथा माता का नाम वानवन महादेवी था । उसका आरम्भिक नाम अरुमोलिवर्मन था । सिंहासन पर बैठने के पश्चात् उसने राजराज की उपाधि धारण की तथा इसी नाम से लोकप्रिय हुआ । राजराज एक महान् विजेता , साम्राज्य निर्माता , कुशल शासन प्रबन्धक , उदार एवं सहिष्णु तथा कला एवं साहित्य का महान् संरक्षक था । अतः उसके शासनकाल में चोल राज्य की अभूतपूर्व उन्नति हुई । डॉक्टर एस ० एन ० सेन का यह कहना बिल्कुल ठीक है , ” राजराज के सिंहासन पर बैठने के साथ ही चोल वंश के लिए एक शानदार एवं गौरवमयी शताब्दी का आरम्भ हुआ । 

राजराज प्रथम की सफलताएं

I. राजराज के सम्मुख समस्याएं-Difficulties before Rajaraja

985 ई ० में राजराज सिंहासन पर बैठा तो उसके सम्मुख पहाड़ जैसे समस्याएं थीं । चोल राज्य अभी अच्छी प्रकार संगठित नहीं था । परान्तक प्रथम के शासनकाल में राष्ट्रकूटों द्वारा चोल राज्य पर किया गया आक्रमण इसके लिए घातक सिद्ध हुआ । इसके पश्चात् लगभग 30 वर्षों तक चोल राज्य में अराजकता का वातावरण रहा । चेर एवं पाण्ड्य शासक किसी समय भी चोल शासक के लिए संकट उत्पन्न कर सकते थे । श्रीलंका के शासक महिन्द पंचम इन शासकों के साथ गठबन्धन कर लिया था । पश्चिमी तथा पूर्वी चालुक्य शासकों की गिद्ध दृष्टि चोल राज्य । इन समस्याओं के बावजूद राजराज ने अपना धैर्य न छोड़ा । उसने इन समस्याओं पर नियन्त्रण ने पर लगी हुई पाने के लिए अपने शासन के प्रथम 10 वर्ष अपने राज्य की स्थिति को सुदृढ़ एवं संगठित करने में व्यतीत किए ।

 राजराज की सफलताएं-Achievements of Rajaraja 

1. विजयें-Conquests — राजराज अपने समय का एक महापराक्रमी राजा था । उसे चोल राज्य को साम्राज्य में परिवर्तित करने का श्रेय प्राप्त है । उसकी प्रमुख विजयों का संक्षिप्त विवरण निम्न अनुसार है

  1.  चेरों पर विजय-Conquest of Cheras — राजराज ने अपने विजय अभियान का आरम्भ केरल राज्य पर आक्रमण से किया । उस समय केरल में चेर शासक भास्कर रविवर्मन का शासन था । राजराज ने त्रिवेन्द्रम के निकट कंडलूर में चेर नौसेना को नष्ट कर दिया । इससे चेरों की सैनिक शक्ति को गहरा आघात लगा । तत्पश्चात राजराज ने चेर राज्य के दो सर्वाधिक प्रसिद्ध दुर्गों कोलम तथा उदगई को अपने अधिकार में ले लिया ।

 2. पाण्ड्यों पर विजय-Conquest of Pandyas – चेर शासक को पराजित करने के पश्चात् राजराज ने अपना ध्यान पाण्ड्य राज्य की ओर किया । उस समय पाण्ड्य राज्य पर अमर भुजंग का शासन था । राजराज की सेना ने अमर भुजंग को पराजित करके उसे बन्दी बना लिया । इसके पश्चात् पाण्ड्यों की राजधानी मदुरा पर अधिकार कर लिया गया । इस महत्त्वपूर्ण विजय के उपलक्ष्य में राजराज ने मदुरईकोण्ड की उपाधि धारण की ।

 3. श्रीलंका पर आक्रमण-Invasion on Sri Lanka — श्रीलंका ( सिंहल ) में उस समय महिन्द पंचम का शासन था । उसने राजराज के विरुद्ध चेर शासक की सहायता थी । अत : चोल सम्राट् उसका घोर शत्रु बन गया था । इस समय के दौरान श्रीलंका में सैनिकों के विद्रोह के कारण अराजकता फैल गई । इस स्वर्ण अवसर का लाभ उठाकर राजराज ने उत्तरी श्रीलंका पर आक्रमण कर दिया । इस आक्रमण में महिन्द पंचम पराजित हुआ तथा उसे दक्षिण श्रीलंका में शरण लेने के लिए बाध्य होना पड़ा । राजराज ने श्रीलंका की राजधानी अनुराधापुर को नष्ट कर दिया तथा पोलोन्नरुवा नामक एक नई राजधानी की स्थापना की । राजराज ने समस्त उत्तरी श्रीलंका को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया । इसका नाम बदल कर मुमदई चोलमण्डलम् रखा गया । राजराज ने यहां पर एक सुन्दर शिव मन्दिर का निर्माण करवाया । श्रीलंका की इस महत्त्वपूर्ण विजय में चोल नौसेना ने विशेष भूमिका निभाई थी । इस विजय के परिणामस्वरूप तमिल संस्कृति का श्रीलंका में प्रसार हुआ ।

4. मैसूर की विजय-Conquest of Mysore– मैसूर पर गंग वंश के शासकों का शासन था । राजराज ने 991 ई ० में एक विशाल सेना के साथ गंग राज्य पर आक्रमण कर दिया तथा सुगमता से गंगवाड़ी , नोलम्बवाड़ी तथा तडिगैवाड़ी पर अधिकार कर लिया ।

5. पश्चिमी चालुक्यों से युद्ध-War with Western Chalukyas  – 1007 ई ० में राजराज ने एक विशाल सेना के साथ पश्चिमी चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर दिया । उस समय इस राज्य पर सत्याश्रय का शासन था । वह चोलों की विशाल सेना देख कर भयभीत हो गया तथा युद्ध स्थल से भाग गया । चोल सेना ने चालुक्यों की राजधानी पहुंच कर कल्याणी में भयंकर लूटमार की । यहां तक कि बच्चों , स्त्रियों तथा ब्राह्मणों की भी निर्मम हत्या की गई । शीघ्र ही सत्याश्रय ने अपनी शक्ति को संगठित कर चोल सेना को पीछे खदेड़ दिया । इसके बावजूद चोलों का चालुक्यों के कुछ प्रदेशों पर अधिकार बना रहा ।

6. पूर्वी चालुक्यों के साथ मैत्री -Friendship with Eastern Chalukyas — राजराज ने पूर्वी चालुक्यों जिनकी राजधानी वेंगी थी के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाए । उसके सहयोग से शक्तिवर्मन वेंगी के सिंहासन पर बैठा । शक्तिवर्मन के भाई भीम प्रथम ने कल्याणी के चालुक्य शासक सत्याश्रय की सहायता शक्तिवर्मन को अपदस्थ कर दिया । राजराज ने उनकी सेना को पराजित कर पुनः शक्तिवर्मन को राज सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया । वेंगी के चालुक्यों के साथ अपने सम्बन्धों को स्थाई एवं सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से राजराज शक्तिवर्मन के भाई विमलादित्य के साथ अपनी पुत्री कुन्दवा का विवाह कर दिया । 1011 ई ० में विमलादित्य सिंहासन पर बैठा । इस प्रकार राजराज का वेंगी पर प्रभाव बहुत बढ़ गया । से ने

7. मालदीव द्वीप समूह की विजय-Conquest of Maldive Islands  — राजराज ने अपनी शक्तिशाली नौसेना के सहयोग से मालदीव द्वीप समूह पर आक्रमण करके इस पर सुगमता से विजय प्राप्त कर ली । यह राजराज की अन्तिम महान् विजय थी ।

8. साम्राज्य का विस्तार ( Extent of the Empire ) — राजराज ने अपनी विजयों द्वारा एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर ली थी । इसमें तुंगभद्रा तक सम्पूर्ण दक्षिण भारत , मालदीव द्वीप समूह तथा श्रीलंका का उत्तरी भाग सम्मिलित थे ।

2. कुशल शासन प्रबन्धक-Efficient Administrator— राजराज न केवल एक महान् विजेता था अपितु एक उच्चकोटि का शासन प्रबन्धक भी था । उसके प्रशासन का मुख्य उद्देश्य प्रजा का कल्याण करना था । इसलिए राजराज ने बहुत योग्य तथा ईमानदार कर्मचारियों को प्रशासन के उच्च पदों पर नियुक्त किया । स्थानीय स्वशासन को प्रोत्साहित किया गया । क्योंकि राज्य की आय का मुख्य साधन भू – राजस्व था इसलिए राजराज ने कृषि की ओर विशेष ध्यान दिया । उसने समस्त कृषि योग्य भूमि पर सर्वेक्षण कराया तथा सिंचाई के लिए समुचित व्यवस्था की । भू – राजस्व भूमि की उपजाऊ शक्ति के आधार पर निर्धारित किया गया । साम्राज्य की सुरक्षा एवं विस्तार के लिए शक्तिशाली सेना की स्थापना की गई । नौसेना को अधिक दृढ़ बनाया गया । इस सेना के सहयोग से राजराज का विस्तृत साम्राज्य स्थापित करने का स्वप्न साकार हो पाया । राजराज ने उत्तराधिकार के युद्धों की सम्भावना को समाप्त करने के उद्देश्य से अपने जीवन काल में ही अपने पुत्र राजेन्द्र को युवराज घोषित किया । संक्षेप में राजराज की शासन व्यवस्था इतनी अच्छी थी कि यह उसके उत्तराधिकारियों के समय में भी लगभग उसी प्रकार लागू रही ।

3. कला तथा साहित्य का प्रेमी ( Lover of Art and Literature ) — राजराज कला एवं साहित्य का महान् प्रेमी था । उसके काल में कला के क्षेत्र में अद्वितीय प्रगति हुई । उसने अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया । इसमें तन्जौर में निर्मित राजराजेश्वर नामक शिव मन्दिर अपनी श्रेष्ठतम कला के कारण आज भी विख्यात है । यह मन्दिर 500 फीट लम्बा , 250 फीट चौड़ा तथा 200 फीट ऊंचा है । इस मन्दिर में भव्य मूर्तियों का निर्माण किया गया है । इस मन्दिर का सबसे महत्त्वपूर्ण आकर्षण इसका विमान ( शिखर ) है जो 190 फीट ऊंचा है । यह 13 मंजिलों में बंटा हुआ है । इस मन्दिर का पूर्वी गोपुरम् ( प्रवेश द्वार ) भी अति सुन्दर है । निस्सन्देह यह मन्दिर द्रविड़ शिल्पकला का सर्वोत्कृष्ट नमूना है । राजराज ने अपनी राजधानी तन्जौर को अनेक सुन्दर बागों और फव्वारों से सुसिज्जत किया । उसने कई प्रकार के सोने , चांदी तथा तांबे के सिक्के चलाए । उसने उत्तरी श्रीलंका में पोलोन्नरुवा नामक एक नई राजधानी बनवाई । यहां पर एक शिव मन्दिर का निर्माण भी करवाया गया । उसने अपने दरबार में अनेक विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया था ।

4. धार्मिक सहिष्णुता की नीति ( Policy of Religious Tolerance ) — राजराज हिन्दू धर्म में विश्वास रखता था । यह उसकी महानता का एक और प्रमाण था कि उसने अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता की नीति अपनाई । उसने केवल योग्यता के आधार पर विभिन्न धर्मों के लोगों को राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त किया । उसने श्रीविजय राज्य के शासक को नागपट्टम में एक बौद्ध विहार के निर्माण की अनुमति प्रदान की । 5. मूल्यांकन ( Estimate ) — राजराज की गणना दक्षिण भारत के महान् सम्राटों में की जाती है । उसने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर चोलों की शक्ति एवं प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया । उसमें एक आदर्श सम्राट् के सभी गुण मौजूद थे । उसने प्रशासन एवं जन कल्याण की ओर विशेष ध्यान दिया । अतः उसके शासनकाल में प्रजा बहुत समृद्ध थी । उसने सभी धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति अपनाई । उसके शासनकाल में कला के क्षेत्र में अद्वितीय प्रगति हुई । उसने कृषि एवं व्यापार को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से विशेष पग उठाए । उसे सेना विशेष रूप से नौसेना को शक्तिशाली बनाने का भी श्रेय प्राप्त है । उसने उत्तरी श्रीलंका एवं मालदीव को जीत कर वहां अपनी प्रभुसत्ता एवं भारतीय संस्कृति को प्रतिष्ठित किया । उसने अपने पुत्र राजेन्द्र को युवराज नियुक्त कर उसे युद्धों में लड़ने तथा शासन प्रबन्ध में भाग लेने की व्यावहारिक शिक्षा दी । उसके इस कार्य से चोल साम्राज्य की नींव न केवल दृढ़ हुई अपितु उसने उन्नति की नई शिखरों को भी छुआ । प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर अरुण भट्टाचार्जी के  अनुसार , ” इसमें कोई सन्देह नहीं कि राजराज अपने राजवंश में सबसे महान् था तथा उसका स्थान समकालीन सभी शासकों से ऊंचा था ।

Ads Blocker Image Powered by Code Help Pro

Ads Blocker Detected!!!

We have detected that you are using extensions to block ads. Please support us by disabling these ads blocker.

Powered By
100% Free SEO Tools - Tool Kits PRO