समुद्रगुप्त की विजय
समुद्रगुप्त की विजय -Samudragupta’s Conquest
समुद्रगुप्त की विजय- चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त 335 ई ० में सिंहासनारूढ़ हुआ । उसने 375 ई ० तक शासन किया । वह गुप्त वंश में ही नहीं अपित ु सम्पूर्ण प्राचीन भारत के महानतम् शासकों में गिना जाता है । उसकी माता का नाम कुमार देवी था , जो एक लिच्छवी राजकुमारी थी । समुद्रगुप्त के शासनकाल से सम्बन्धित घटनाओं की जानकारी हमें हरिसेन द्वारा रचित इलाहाबाद के स्तम्भ अभिलेख , ऐरण शिलालेख तथा प्राप्त सिक्कों से मिलती है । इलाहाबाद स्तम्भ लेख से हमें पता चलता है कि चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने जीवन काल में ही समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था । क्योंकि वह सबसे बड़ा पुत्र नहीं था अतैव शेष भाइयों ने काचगुप्त के नेतृत्व में उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया । परन्तु समुद्रगुप्त सिंहासन पर अपना अधिकार बनाए रखने में सफल रहा । उत्तराधिकार युद्ध से निपटने के बाद समुद्रगुप्त ने दिग्विजय का बीड़ा उठाया । उसने उत्तर तथा दक्षिण भारत के कई राजाओं को परास्त किया । उसका लक्ष्य भारत का राजनीतिक एकीकरण था । इलाहाबाद स्तम्भ लेख में समुद्रगुप्त की सैंकड़ों युद्धों में भाग लेने में दक्ष कह कर प्रशंसा की गई है ।
डॉ ० आर ० के ० मुखर्जी के अनुसार , ” सौ युद्धों के विजेता समुद्रगुप्त ने अपनी लगातार विजय यात्रा से सम्पूर्ण भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया ।
I. समुद्रगुप्त की विजयें -Conquests of Samudragupta समुद्रगुप्त की यह प्रबल इच्छा थी कि वह तत्कालीन छोटे – छोटे राज्यों का अन्त करके एक संगठित राज्य कायम करे । अतः वह दृढ़ संकल्प के साथ दिग्विजय पर निकल पड़ा । हर पग पर विजय ने उसके कदम चूमे । शीघ्र ही उसने उत्तरी भारत के अनेक राजाओं को पराजित किया तथा दक्षिण भारत के राजाओं से अधीनता स्वीकार करवाई । कुषाणों के पश्चात् भारत की जो राजनीतिक एकता लुप्त हो चुकी थी , वह एक बार फिर उभर आई । वह आजीवन अजेय रहा । समुद्रगुप्त के विजय अभियान का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
1. आर्यावर्त अथवा उत्तरी भारत की विजय -Conquest of Aryavarta or Northern India — इसमें शामिल है
i -आर्यावर्त की प्रथम लड़ाई -First Battle of Aryavarta — इलाहाबाद प्रशस्ति की 13 वीं पंक्ति से पता चलता है कि सर्वप्रथम समुद्रगुप्त को आर्यावर्त के तीन राजाओं से युद्ध करना पड़ा । ये राजा थे- अच्युत , नागसेन तथा कोट वंश का शासक कोतकुलज । इस युद्ध में तीनों राजा पराजित हुए । इनमें अच्युत का शासन अहच्छत्र में , नागसेन का पद्मावती तथा कोतकुलज का दिल्ली तथा पूर्वी पंजाब में था । निस्सन्देह यह समुद्रगुप्त की एक महान् सफलता थी । इससे उसकी प्रतिष्ठा में बहुत वृद्धि हुई ।
ii – आर्यावर्त की दूसरी लड़ाई -Second Battle of Aryavarta — आर्यावर्त की दूसरी लड़ाई दक्षिणी अभियान के पश्चात् आरम्भ हुई । इलाहाबाद प्रशस्ति की 21 वीं पंक्ति से आर्यावर्त के दूसरे युद्ध का पता चलता है । ज्यों ही समुद्रगुप्त दक्षिण विजय के लिए गया त्यों ही अपनी पराजय का बदला लेने के लिए अच्युत तथा नागसेन ने नागवंश के 7 शासकों के साथ मिलकर समुद्रगुप्त के विरुद्ध एक संघ बना लिया । ये शासक थे रुद्रदेव , मतिल , चन्द्रवर्मा , नागदत्त , गणपतिनाग , बलवर्मा तथा नन्दि । अतः दक्षिणी भारत की विजय के पश्चात् समुद्रगुप्त को इन नौ राजाओं से कौशाम्बी के स्थान पर युद्ध करना पड़ा था । समुद्रगुप्त ने इस संघ के सभी राजाओं जित किया । इन सभी शासकों का वध कर दिया गया तथा उनके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया । इस महत्त्वपूर्ण विजय से समुद्रगुप्त की स्थिति बहुत दृढ़ हो गई ।
iii -विलीनीकरण की नीति -Policy of Merger — समुद्रगुप्त ने उत्तरी भारत के सभी विजित प्रदेश पुनः उनके राजाओं को नहीं लौटाए । इसकी बजाए उसने उन राजाओं को मरवा डाला और उनके प्रदेश अपने साम्राज्य में विलीन कर लिये । इलाहाबाद प्रशस्ति से यही बात झलकती है । हरिसेन ने उत्तरी भारत के केवल नामी राजाओं के नाम दिए हुए हैं , राज्यों के नहीं । इससे स्पष्ट है कि उनके राज्य समुद्रगुप्त ने अपने राज्य में मिला लिए थे ।
2. दक्षिणी भारत की विजय -Conquest of Southern India- समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत की विजय का अभियान आर्यावर्त की प्रथम लड़ाई के पश्चात् आरम्भ किया । इलाहाबाद प्रशस्ति की 19 वीं तथा 20 वीं पंक्ति समुद्रगुप्त के दक्षिणी अभियान पर प्रकाश डालती है । दक्षिणी भारत की विजय के लिए समुद्रगुप्त सर्वप्रथम दक्षिणी कौशल पहुंचा । तब कौशल राज्य आधुनिक रायपुर , सम्भलपुर तथा बिलासपुर के जिलों तक विस्तृत था । यहां राजा महेन्द्र ने उसका डटकर सामना किया , परन्तु पराजित हुआ । कौशल के राजा को पराजित करके समुद्रगुप्त उड़ीसा की ओर बढ़ा । यहां उसने महाकान्तार में व्याघ्रराज को पराजित किया । तत्पश्चात् उसने मण्टाराज का सामना किया । मण्टाराज मध्य प्रदेश के सीनपुर जिले में शासन करता था । मण्टाराज को परास्त करने के पश्चात् समुद्रगुप्त षिष्टपुर की ओर मुड़ा । षिष्टपुर आन्ध्र प्रदेश के गोदावरी जिले में स्थित है ।
यहां का राजा महेन्द्रगिरी था , उसने बिना किसी शर्त के समुद्रगुप्त के सामने आत्म – समर्पण कर दिया । गोदावरी तथा महानदी के मध्य में प्रदेश जीतने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने दक्षिण के पूर्वी भाग की ओर प्रस्थान किया । यहां समुद्रगुप्त के हाथों पराजित होने वाले राजा थे – आन्ध्र प्रदेश के गंजम जिले में स्थित कोट्टर का राजा स्वामीदत्त , एरंडपल्ल का राजा दमन , कांची का राजा विष्णुगोप , अवमुक्त का राजा नीलराज , कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के मध्य स्थित वेंगी का राजा हस्तिवर्मन , पाल्लक का राजा उग्रसेन , विशाखापट्टनम जिले में स्थित देवराष्ट्र का राजा कुबेर तथा कुस्थलपुर का राजा धनंजय । इस प्रकार समुद्रगुप्त ने कुल मिलाकर दक्षिण भारत के 12 राजाओं को परास्त किया । समुद्रगुप्त ने उत्तरी तथा दक्षिणी भारत में भिन्न – भिन्न नीतियों को अपनाया । उसने उत्तरी भारत के राजाओं को पराजित करके उनके राज्य छीन लिए थे ।
इसके विपरीत दक्षिणी राजाओं को पराजित तो किया गया , परन्तु उनके राज्यों को साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया गया । यह बात इलाहाबाद प्रशस्ति से भी स्पष्ट हो जाती है । हरिसेन ने दक्षिण के राजाओं के साथ उनके प्रदेशों का नाम भी दिया है । इससे स्पष्ट है कि दक्षिण के राजाओं का अस्तित्व बना रहा । इसका प्रमुख कारण यह था कि यातायात के साधनों के अभाव के कारण उन प्रदेशों को अधीन रखना कोई सरल कार्य नहीं था । अतः इस नीति को अपना कर उसने एक अच्छा राजनीतिज्ञ होने का प्रमाण दिया ।
3. आटविक राज्यों की विजय -Conquests of Atavika Kingdoms – इलाहाबाद प्रशस्ति से पता चलता है कि समुद्रगुप्त ने आटविक राज्य अथवा जंगली जातियों के राज्यों को भी पराजित किया । ये जातियां मध्य भारत तथा उड़ीसा के बीच निवास करती थीं । सम्भवतः दक्षिण अभियान आरम्भ करने से पहले ही इनको हराया होगा । ऐसा करना उसके लिए अनिवार्य था क्योंकि ये जातियां उत्तर दक्षिण के मार्ग के बीच एक बाधा थीं । आटविक राज्यों की संख्या 18 थी ।
4. सीमान्त प्रदेशों की अधीनता -Submission of Frontier States – समुद्रगुप्त की विजयों से उसके साम्राज्य के पूर्वी तथा पश्चिमी सीमान्त के राज्यों ने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली । उसकी अधीनता स्वीकार करने वाले पूर्वी सीमा पर स्थित राज्य थे –
- समतट – पूर्वी बंगाल के समुद्र तट के निकट का भाग
- कामरूप वर्तमान आसाम ।
- दवाक – ढाका ।
- नेपाल – आधुनिक नेपाल राज्य ।
- कर्तृपुर – जालन्धर जिले का करतारपुर अथवा उत्तर प्रदेश के कुमायुं , गढ़वाल तथा रूहेलखंड के ज़िले । समुद्रगुप्त के साम्राज्य की पश्चिमी सीमा पर स्थित राज्य थे
- मालव – इसमें राजस्थान के प्रदेश सम्मिलित थे ।
- अर्जुनायन — इसमें आगरा , अलवर तथा भरतपुर के प्रदेश सम्मिलित थे ।
- यौद्धेय – इसमें पूर्वी पंजाब तथा उत्तर प्रदेश के प्रदेश सम्मिलित थे ।
- मद्रक इसमें रावी तथा चिनाब नदियों के मध्य स्थित प्रदेश सम्मिलित थे । इनकी राजधानी ( स्यालकोट ) थी ।
- आभीर– इसमें पश्चिमी राजपूताना , भीलसा तथा झांसी के प्रदेश सम्मिलित थे ।
- प्रार्जुन – इसमें मध्य प्रदेश का नरसिंहपुर प्रदेश सम्मिलित था ।
- सनकानिक – इसमें मध्य प्रदेश का उदयगिरी प्रदेश सम्मिलित था ।
- काक – इसमें सांची के निकट के प्रदेश सम्मिलित थे ।
- खरपरक इसमें मध्य प्रदेश का दमोह जिला सम्मिलित था । इन सबके विषय में यह कहा जाता है कि ये समुद्रगुप्त को प्रकार के कर देते थे , उसकी आज्ञा का पालन करते थे तथा उसे प्रणाम करने के लिए उपस्थित होते थे ।
5. विदेशी राज्यों से सम्बन्ध -Relations with Foreign Countries — समुद्रगुप्त ने विजय अभियानों के साथ – साथ अपने पड़ोसी राज्यों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए । लंका के राजा मेघवर्मन के साथ उसके सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण थे । उसने समुद्रगुप्त से बौद्ध गया में विहार बनवाने की आज्ञा मांगी जिसे उसने स्वीकार किया । समुद्रगुप्त ने कुषाण , शक , जावा , सुमात्रा तथा मलाया के शासकों के साथ भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए ।
6. अश्वमेध यज्ञ -Ashvamedha Yajna – भारतीय परम्परा के अनुसार स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट् घोषित करने के लिए समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ रचाया । इस अवसर पर उसने ‘ महाराजाधिराज ‘ की उपाधि धारण की । एक विशेष मुद्रा भी चलाई गई जिसके एक ओर अश्वमेध यज्ञ पराक्रम की गाथा तथा दूसरी ओर यज्ञ के अश्व का चित्र अंकित था । इस यज्ञ का इलाहाबाद स्तम्भ लेख में कोई वर्णन नहीं किया गया है ।
7. साम्राज्य का विस्तार -Extent of the Empire – समुद्रगुप्त ने एक बहुत विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी । उसका राज्य पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी से लेकर पश्चिम में चम्बल नदी तक , उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में नर्मदा नदी तक फैला हुआ था । इस प्रकार समस्त भारत के शासक उसकी वीरता तथा महानता को स्वीकार करते थे ।