निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए ( 1 ) अव्यावहारिक ऋण , ( 2 ) पूर्ववर्ती ऋण , ( 3 ) दादूपत का नियम । Write short notes on the following( 1 ) Avygavharik debt , ( 2 ) Antecedent debt , ( 3 ) Rule of Damdupat

( 1 ) अव्यावहारिक ऋण ( Avyavharik debt ) –

अव्यावहारिक ऋण से हमारा अभिप्राय उस ऋण से है जो विधि विरुद्ध तथा अनैतिक कार्यों के लिए लिया जाता है । मनु के अनुसार , “ प्रतिभू होने से दिया जाने वाला वृथा दान ( व्यंग्य विनोद में किसी को देने के लिए कहा गया ) , जुआ खेलने के लिए , मद्यपान के लिए देय , राजदण्ड और कर अथवा भाड़ा आदि का बकाया अदा करने का दायित्व पुत्र पर नहीं है । मिताक्षरा विधि के अनुसार यदि पिता ने जुआ खेलने , मदिरा पीने अथवा अनैतिक कार्य के लिए ऋण लिया हो तो उसे चुकाने के लिए पुत्र उत्तरदायी नहीं है ।

वृहस्पति का कथन है कि “ पुत्रों को अपने पिता के उन ऋणों को अदा करने के लिए , जो मदिरा , जुए में हारने के कारण , प्रतिज्ञाओं के लिए जो बिना प्रतिफल के हों अथवा कायरता अथवा क्रोध की मनःस्थिति में की गई हो अथवा वह जमानतदार हों अथवा कोई अर्थदण्ड अथवा उनके किसी शेष भाग के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता । याज्ञवल्क्य का कथन है कि “ यदि पिता की मृत्यु हो गई हो अथवा वह कहीं सुदूर चला गया है अथवा किसी असाध्य रोग में पड़ गया हो तो उसके पुत्र तथा पौत्र उसका ऋण अदा करेंगे , परन्तु मदिरा के लिए , कामुकता व क्रोध अथवा जुए अथवा अर्थदण्ड अथवा कर के न …. अदा किये गये भाग की तथा निष्कार्य प्रतिभा हेतु लिये गये ऋण की अदायगी पुत्र न करेगा । ”

नारद का कथन है कि “ प्रतिभू पर बकाया’रकम वधू के माता – पिता से प्राप्त शुल्क , मंदिरा • अथवा जुए के लिए लिया गया ऋण तथा दण्ड की रकम के लिए ऋणकर्ता का पुत्र उत्तरदायी नहीं होगा । ” कौन – सा ऋण अव्यावहारिक है जिनको देने के लिए पुत्र उत्तरदायी नहीं है और कौन – सा ऋण अव्यावहारिक है जिनको पुत्र देने के लिए उत्तरदायी है , इस सम्बन्ध में न्यायालयों द्वारा अनेक निर्णय दिये गये हैं । महत्वपूर्ण वाद हेमराज बनाम खेमचन्द के बाद में अव्यावहारिक ऋण के सम्बन्धं में प्रिवी कौंसिल के माननीय न्यायाधीशों ने यह निरूपित किया है ” हिन्दू विधि में अपने पिता के ऋण को न अदा करने के निर्मित भविष्य में दण्ड से बचाने के लिए पुत्र का यह पवित्र दायित्व होता है कि वह अपने पिता के ऋण को अदा करे जैसा कि बोर्ड ने गिरधारीलाल बनाम कल्लूलाल के बाद में बताया है ।

अव्यावहारिक ऋण, पूर्ववर्ती ऋण, दादूपत का नियम

“ पुत्र का यह पवित्र दायित्व है कि वह अपने पिता के ऋण को अदा कर दे । पैतृक सम्पत्ति जिसमें पुत्र का हित अपने पिता दायद होने के नाते जन्म से ही हो जाता है जिससे वह उसे अपने पिता के लिए उत्तरदायी बनाता है । न्यायाधीशों के मत में उपर्युक्त दायित्व अनर्ह नहीं हैं क्योंकि पिता के अव्यावहारिक ऋणों को चुकता करना आवश्यक नहीं है । ” माननीय न्यायाधीश ने यह निर्दिष्ट किया है कि “ अव्यावहारिक ऋण वह है कि जिनका कि समावेश अवैध अथवा अनैतिक ऋणों में किया जा सके / और इसलिए यदि ऋण इस प्रकार हो तो पुत्र पर उसके अदा करने का कोई दायित्व नहीं होता है ।

इसके विपरीत यदि ऋण अवैधता तथा अनैतिकता से प्रभावित न हो तो उसका दायित्व पुत्र पर होता है । ” जहाँ एक पिता का गबन के लिए अभियोजन किया गया । उसने गबन की गई धनराशि की क्षतिपूर्ति के लिए सम्पत्ति बेच डाली और इस प्रकार कारावास से बचने के लिए बम्बई उच्च न्यायालय ने यह विनिश्चय किया कि पुत्र का अंश उत्तरदायी नहीं है , क्योंकि गबन हुआ था जिसके परिणामस्वरूप सम्पत्ति का विक्रय हुआ था और सम्पत्ति के बेचने का परिणाम कारावास से बचना था । यह निःसन्देह ‘ अव्यावहारिक ‘ है क्योंकि सम्पूर्ण संव्यवहार अनैतिकता से कलुषित है अथवा यह ऐसे मामले के लिए था जो सदाचार के विपरीत मामला था ।

 निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए लिये गये ऋण को हम कानूनी या अवैध ऋण कह सकते हैं

( 1 ) मदिरा के लिए लिया गया ऋण | ( 2 ) कामवासना की तृप्ति के लिए लिया गया ऋण | ( 3 ) अर्थदण्ड का अवशिष्ट भाग । ( 4 ) टालटैक्स जो कि न चुकता किया हो । ( 5 ) व्यर्थ उपहार तथा प्रतिफल रहित प्रतिज्ञाएँ । ( 6 ) व्यापारिक ऋण ( व्यापार सम्बन्धी ऋण से तात्पर्य व्यापार के लिए लिये गये ऋण के लिए नहीं बल्कि सट्टेबाजी के ढंग के लेन – देन से है ) । ( 7 ) काम अथवा क्रोध में की गई प्रतिज्ञाएँ । ( 8 ) प्रतिभू होने के लिए देय धन । ( 9 ) वे ऋण जो व्यापारिक न हों । ( 10 ) प्रतिभूत ऋण ।

इस प्रकार अव्यावहारिक ऋण वे हैं जो अवैध तथा अवैधानिक हैं तथा उसके सिद्ध करने के भार कि पिता द्वारा लिया गया ऋण अव्यावहारिक है , पुत्र पर होता है ।

( 2 ) पूर्ववर्ती ऋण ( Antecedent debt )

पूर्ववर्ती ऋण का तात्पर्य उस ऋण से है जो तथ्य तथा समय दोनों की दृष्टि से पूर्ववर्ती हो अर्थात् ” वह पिता द्वारा उसके निबटाने के लिए किये गये सम्पदा के अन्य संक्रमण से है ( चाहे वह विक्रय द्वारा हो अथवा बन्धक द्वारा अथवा अन्य प्रकार से ) जो पूर्व का हो तथा स्वतन्त्र हो । ” उदाहरण के लिए , बाद में भूमि बन्धक रखने का वचन देता है तथा बाद में ऐसा करता भी है तो प्रनोट पर लिया हुआ ऋण पूर्ववर्ती नहीं होगा । किन्तु यदि पिता कोई ऋण लेता है और बाद में उसे चुकाने के लिए अविभाजित सम्पत्ति बन्धक रखता है अथवा बेच देता है और यदि ऋण अनैतिक नहीं है तो पिता द्वारा सम्पत्ति का बन्धक रखना पुत्रों पर बाध्यकर होगा ।

पूर्ववर्ती ऋण व्यवस्था एवं समय दोनों दृष्टिकोणों से पूर्ववर्ती होता है । उसको अदा करने के लिए जब अन्य संक्रमण ( चाहे वह विक्रय द्वारा हों अथवा बन्धक अथवा अन्य प्रकार से हों ) होता है तो इस प्रकार के अन्य संक्रामण से पूर्व का ऋण पूर्ववर्ती ऋण कहलाता है । उच्चतम न्यायालय ने प्रसाद तथा अन्य बनाम गोविन्द स्वामी मुदालियर में यह मत व्यक्त किया कि पूर्ववर्ती ऋण का अर्थ उस ऋण से हो जो घटनाक्रम में तथा समय में दृष्टिकोण से पूर्ववर्ती है अर्थात् ऋण वस्तुतः एक स्वतन्त्र संविदा हो और उस संव्यवहार का भाग ‘ ब ‘ हो जिसमें चुनौती दी गई हो । ।

अतः पूर्ववर्ती ऋण से तात्पर्य उस ऋण से है जो न केवल काल की दृष्टि से ही पूर्ववर्ती है बल्कि तथ्य की दृष्टि से भी पूर्ववर्ती हो । पहले वाला ऋण बाद वाले ऋण से पूर्णतया स्वतन्त्र हो और दोनों लेन – देन के मामले में अलग – अलग हो ।

( 3 ) दादूपत का नियम ( Rulc of Damdupat ) 

दादूपत का नियम हिन्दू ऋण विधि की एक शाखा है । इस नियम के अनुसार , ” किसी भी समय ब्याज की रकम मूल से अधिक नहीं हो सकती । यदि ऋण का कोई भाग अदा कर दिया जाता है तो इस नियम हेतु मूल रकम अदा की हुई रकम में घटाकर शेष रकम होगी । ” यदि ऋण कानूनी है तो इसकी वसूली के लिए कोई मियाद नहीं होती है । इसके लिए कर्जदार अपने कर्ज के लिए हमेशा उत्तरदायी होता है चाहे कितना ही समय क्यों न बीत गया हो । मुल्ला ने दाम्दूपत की परिभाषा निम्नलिखित शब्दों में दी है

“ The rule of Damduput is a branch of the Hindu Law of debts according to this rule the amount of interest recoverable at any one time cannot exceed the principal . “

स्मृतिकारों के अनुसार , दाम्दूपत का नियम अप्रतिभूति तथा प्रतिभूत दोनों भाँति के ऋणों पर लागू होता है ।

इस नियम के अन्तर्गत किसी भी समय ब्याज के ( चाहे रोकड़ या अन्य रूप में ) मूलधन से अधिक होने पर वसूल नहीं किया जा सकता । उदाहरण के लिए मोहन राम से 20 रु . प्रति सैकड़ा की दर से 6,000 रुपया उधार लेता है । ब्याज की राशि इकट्ठी हो जाती है और मोहन के ऊपर ब्याज 7,000 रु . हो जाता है । राम मोहन पर दावा करता है । अधिक से अधिक 12,000 रुपया वसूल कर सकता है | 6,000 ऋण के तथा 6,000 ब्याज के इनसे ज्यादा एक समय में वह वसूल नहीं कर सकेगा । वास्तव में दाम्दूपत का नियम न्याय , साम्या तथा अन्तरण का नियम है । •

उच्चतम न्यायालय ने हुकमचन्द्र बनाम फूलचन्द ‘ के बाद में कहा है कि ” दाम्पत का नियम दो कारणों से विकसित हुआ है , पहला ऋणकर्ता के लिए मूल्य और ब्याज को प्रेरणा की शीघ्रताशीघ्र अदा करने की प्रेरणा बनी रहे तथा दूसरा यह है कि ऋणदाता अपने ऋण की वसूली में सदैव जागरूक बना रहे और उचित समय के भीतर ही अपने ऋण को ब्याज सहित वसूल ले जिससे ब्याज अत्यधिक न बढ़ने पाये जो कि उसे प्राप्त न हो सके । ” व्यक्ति जिन पर यह नियम लागू होता है . कलकत्ता उच्च न्यायालय के अनुसार , यह नियम वहाँ लागू होता है जहाँ संविदा करने वाले दोनों व्यक्ति हिन्दू हों परन्तु बम्बई न्यायालय के अनुसार केवल मूल ऋणकर्ता का होना आवश्यक है । दाम्दूपत का नियम बम्बई राज्य , कलकत्ते के शहर तथा संथाल परगना में लागू होता है

निम्नलिखित व्यवहारों पर यह नियम लागू होता है-

( 1 ) रक्षित तथा अरक्षित कर्ज पर ,

( 2 ) परन्तु किसी कब्जाधारी बन्धक पर यह नियम लागू नहीं होता यदि बन्धकों पर बन्धक सम्पत्ति के किराये तथा लाभ का लेख देने का दायित्व हो ।

( 3 ) दाम्दूपत का नियम बिक्री के निष्पादन की कार्यवाही पर लागू नहीं होगा ।

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