चन्द्रगुप्त द्वितीय का आरम्भिक जीवन तथा सफलताओं
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की सफलताएं | Chandragupt Dviteey Vikramaadity Kee Saphalataen-
चन्द्रगुप्त द्वितीय के आरम्भिक जीवन तथा सफलताओं का वर्णन –
1. आरम्भिक जीवन | Early Career
चन्द्रगुप्त द्वितीय के आरम्भिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार से है गुप्त शासक समुद्रगुप्त तथा रानी दत्तदेवी से उत्पन्न चन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्त वंश का महान् तथा शक्तिशाली राजा था । एरण अभिलेख में समुद्रगुप्त को पुत्र – पौत्रों वाला व्यक्ति बताया गया है । परन्तु हमें केवल उसके दो पुत्रों के विषय में ही ज्ञान है । ये थे रामगुप्त तथा चन्द्रगुप्त | इन्हें ‘ देवराज ‘ के नाम से भी सम्बोधित किया गया है । माना जाता है कि रामगुप्त ने शक राजा रुद्रसिंह तृतीय से पराजित होकर अपमानजनक सन्धि स्वीकार की थी । यह बात गुप्त परम्पराओं के विरुद्ध थी । अतः चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पहले शक राजा को हराया तदुपरान्त अपने भाई का वध किया और सिंहासन पर अधिकार कर लिया । चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन काल 380 ई ० से 414 ई ० तक रहा ।
अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए चन्द्रगुप्त ने नाग वंश तथा वाकाटक वंश से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए । सर्वप्रथम उसने नाग वंश की कन्या कुबेरनाग से विवाह किया । नाग वंश उस समय का प्रतिष्ठित वंश था । उत्तरी भारत में वे अवश्य समुद्रगुप्त के हाथों पिट गए थे , परन्तु पश्चिमी तथा दक्षिणी भारत में उनका दबदबा बना हुआ था । इस वैवाहिक सम्बन्ध से नाग वंश की गुप्त वंश से मित्रता हो गई । नाग वंश की भान्ति वाकाटक वंश भी उस समय एक महत्त्वपूर्ण वंश था । इसने दक्षिण – पश्चिम में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना कर ली थी ।
चन्द्रगुप्त ने अपनी बेटी प्रभावती गुप्त जो कुबेरनाग से उत्पन्न हुई थी , के विवाह का प्रस्ताव वाकाटक नरेश पृथ्वीसेन प्रथम के सम्मुख रखा । उसने यह रिश्ता अपने पुत्र रुद्रसेन द्वितीय के लिए स्वीकार कर लिया । इसके अतिरिक्त चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कुन्तल नरेश की पुत्री के साथ किया इन विवाह सम्बन्धों मे चन्द्रगुप्त द्वितीय को अत्यधिक लाभ हुआ । प्रसिद्ध इतिहासकार एच ० सी ० रे चौधरी के शब्दों में , ” गुप्तों के वैवाहिक सम्बन्ध उनकी विदेश नीति में विशिष्ट स्थान रखते हैं । ” ”
2. विजयें | Conquests
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने राजसिंहासन पर बैठते ही राज्य विस्तार की नीति अपनाई । उसने अपने पिता की भान्ति अपनी सैन्य शक्ति से साम्राज्य का विस्तार किया । उसकी मुख्य विजयें इस प्रकार से थीं
1. गुजरात तथा काठियावाड़ से युद्ध ( War against Gujarat and Kathiawar ) – चन्द्रगुप्त द्वितीय के राज्यकाल की सबसे उल्लेखनीय घटना गुजरात तथा काठियावाड़ की विजय थी । इन राज्यों में शक वंश का शासन था । उन्होंने अपनी स्थिति काफ़ी सुदृढ़ कर ली थी । समुद्रगुप्त ने उत्तरी तथा दक्षिणी भारत के अनेक राजाओं का दमन किया था , परन्तु उसने पश्चिमी भारत के शकों के प्रति कोई कार्यवाही नहीं की थी । अतः समुद्रगुप्त का अधूरा कार्य उसके पुत्र को करना पड़ा । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने 388 ई ० में शकों पर आक्रमण कर दिया । यह युद्ध 410 ई ० तक जारी रहा । निःसन्देह यह एक भयानक युद्ध था । इस युद्ध के अन्त में शक राजा रुद्र सिंह तृतीय बुरी तरह पराजित हुआ और मारा गया । इस प्रकार गुजरात तथा काठियावाड़ को गुप्त साम्राज्य में मिला लिया गया । कहा जाता है कि इस विजय के पश्चात् ही चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ‘ विक्रमादित्य ‘ ( वीरता का सूर्य ) तथा ‘ शकारि ‘ ( शकों का वध करने वाला ) आदि उपाधियां धारण कीं । इस विजय का महत्त्व इस प्रकार से है-
- इस विजय के परिणामस्वरूप गुप्त साम्राज्य की ख्याति में वृद्धि हुई ।
- इस विजय के परिणामस्वरूप गुप्त साम्राज्य की सीमा अरब सागर को छूने लगी ।
- इससे पूर्व तथा पश्चिमी भारत के लोगों में आपसी व्यापार में अब कोई बाधा न रही ।
- इससे पश्चिमी देशों से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हो गए । इसका कारण यह था कि भड़ौच नामक प्रसिद्ध बन्दरगाह पर गुप्तों का नियन्त्रण हो गया था ।
- शकों की पराजय के साथ देश में विदेशी सत्ता का अन्त हो गया ।
- इस विजय से उज्जैन जैसा विशाल नगर चन्द्रगुप्त द्वितीय के भाग्य से आ जुड़ा । इसकी विशालता और समृद्धि को ध्यान में रखते हुए चन्द्रगुप्त ने इसे अपनी दूसरी राजधानी बना लिया ।
2. वंग विजय -Conquest of Vanga – प्राचीनकाल में बंगाल को बंग के नाम से जाना जाता था । चन्द्रगुप्त ने इस प्रदेश को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया था । उसकी इस विजय का प्रमाण हमें महरौली के लौह स्तम्भ से मिलता है । उसमें स्पष्ट लिखा है कि चन्द्र नामक राजा ने बंग राज्य के विरुद्ध सफल अभियान किया । इतिहासकारों का विचार है कि यह राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय ही था ।
3. वाहलीक की पराजय -Defeat of Vahlikas — महरौली के लौह स्तम्भ से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने सिन्धु नदी के मुहाने की सातों शाखाओं को पार करके बाहूलीक जाति को पराजित किया । वाहूलीक लोगों की जाति के विषय में कुछ मतभेद हैं । कुछ विद्वानों के अनुसार तो यह बलख तथा बैक्ट्रिया में रहने वाली जाति थी । परन्तु डॉ ० एन ० एन ० घोष ने इन्हें पंजाब के ही किसी भाग में रहने वाली अर्द्ध – विदेशी जाति माना है । डॉ ० घोष का विचार अधिक मान्य समझा जाता है ।
4. राज्य विस्तार -Extent of the Empire – चन्द्रगुप्त जब सिंहासन पर बैठा तो उसका राज्य काफ़ी विस्तृत था । उसने अपने शौर्य और साहस से अपने साम्राज्य को और भी विशालता प्रदान की । यह साम्राज्य पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी से लेकर पश्चिम में पंजाब तक तथा उत्तर में हिमालय पर्वत से लेकर पश्चिम में अरब सागर तक फैला हुआ था । इस प्रकार समस्त भारतवर्ष में गुप्त वंश की धाक जम गई । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने साम्राज्य की विशालता को देखते हुए अपनी दो राजधानियां बनाईं – पाटलिपुत्र तथा उज्जैन । इस सम्बन्ध में डॉ ० ए ० एस ० अल्तेकर ठीक ही कहते हैं , 4 ‘ गुप्त वस्तुतः चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल के अन्त तक अखिल भारतीय शक्ति बन चुकी थी
3. शासन प्रबन्ध | Administration
चन्द्रगुप्त द्वितीय वीर योद्धा तथा सफल विजेता होने के साथ – साथ सुलझा हुआ शासन प्रबन्धक भी था । संक्षेप में , उसके शासन प्रबन्ध की रूपरेखा इस प्रकार से है
1. केन्द्रीय शासन -Central Administration – सम्राट् केन्द्रीय शासन की धुरी था । राज्य की सभी शक्तियां उसी के हाथ में थीं । वह ‘ महाराजाधिराज ‘ , ‘ सम्राट् ‘ , ‘ परमेश्वर ‘ तथा ‘ पृथ्वीपाल ‘ आदि उपाधियां धारण • किया करता था । वह ही सर्वोच्च सैनिक अधिकारी था । वह अपने नाम पर सिक्के चलाता था । वह न्याय का सर्वोच्च अधिकारी भी होता था । उसे शासन कार्यों में सलाह देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होती थी । मन्त्रिपरिषद् की सलाह मानना या न मानना राजा की इच्छा पर निर्भर करता था । मन्त्रियों की नियुक्ति सम्राट् स्वयं करता था । मन्त्रियों के पास न्याय , सेना , पुलिस , विदेशी मामले , व्यापार , राजमहल सम्बन्धी विभाग होते थे ।
2. प्रान्तीय शासन -Provincial Administration – राज्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए सारा साम्राज्य चार प्रान्तों में विभक्त किया हुआ था । प्रान्त को ‘ भुक्ति ‘ अथवा ‘ देश ‘ के नाम से पुकारा जाता था । प्रत्येक देश अथवा भुक्ति का मुखिया एक गवर्नर होता था जो ‘ उपारिक महाराज ‘ कहलाता था । प्रान्तों में उपारिक एक राजा से कम नहीं होता था । प्रान्तों को आगे जिलों में विभक्त किया गया था । इन्हें ‘ विष्य ‘ अथवा ‘ प्रदेश ‘ कहा जाता था । विष्य का मुखिया ‘ विष्यपति ‘ के नाम से पुकारा जाता था । उसे उपारिक महाराज नियुक्त करता था । शासन की सबसे छोटी इकाई ‘ ग्राम ‘ थी । प्रत्येक गांव एक ‘ ग्रामाध्यक्ष ‘ या ‘ ग्रामियक ‘ के अधीन था । उसका कार्य गांव में शान्ति स्थापित करना तथा गांव के लोगों की आवश्यकताओं का ध्यान रखना था । उसकी सलाह तथा सहायता के लिए पंचायत होती थी ।
4. न्याय व्यवस्था | Judicial System
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने न्याय की उचित व्यवस्था की हुई थी । राजा न्याय का मुख्य स्रोत होता था । वही सब बड़े बड़े मुकद्दमों का निर्णय करता था । इसके अतिरिक्त केन्द्र , नगर तथा ग्रामों में अलग – अलग न्यायालय स्थापित किए गए थे । न्याय निष्पक्ष होता था । दण्ड अधिक कठोर नहीं थे । मृत्युदण्ड तो बिल्कुल ही नहीं था । देश – द्रोही को भी अंग – भंग का दण्ड ही दिया जाता था । साधारण अपराधों पर जुर्माना किया जाता था । तब भी राज्य के सभी मार्ग सुरक्षित थे । इतने बड़े साम्राज्य के लिए यह बात गौरव का विषय है ।
5. कला और साहित्य | Art and Literature
1. ललित कलाओं की उन्नति -Development of Fine Arts — अपने पिता समुद्रगुप्त की भान्ति चन्द्रगुप्त द्वितीय कला – प्रेमी था । उसके शासनकाल में शिल्पकला , चित्रकला , धातुकला तथा भवन निर्माण कला का काफ़ी रूप निखरा । उसके काल में बनी महात्मा बुद्ध तथा अन्य हिन्दू देवी – देवताओं की सुन्दर मूर्तियों ने साधारण जनता का मन मोह लिया । पूरा देश अनेक सुन्दर मन्दिरों से अलंकृत हुआ । चित्रकला भी अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई । मुद्राकला में सोने , चांदी तथा तांबे के नाना प्रकार के सिक्के जारी किए गए । अतः कला के क्षेत्र में यह काल अति महत्त्वपूर्ण था ।
2. साहित्यिक प्रगति -Development in Literature — चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल में साहित्य का बड़ा विकास हुआ । कहा जाता है कि संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् तथा महाकवि कालिदास उसी के दरबार का आभूषण था । उसने हमें ‘ मेघदूत ‘ , ‘ रघुवंश ‘ तथा ‘ शकुन्तला ‘ आदि अनेक अमूल्य रचनाएं प्रदान कीं । ये रचनाएं आज भी संस्कृत साहित्य का गौरव हैं । कालिदास के अतिरिक्त इस काल में कई अन्य विद्वान् भी हुए जिनकी रचनाएं साहित्यिक दृष्टि से बड़ी महत्त्वपूर्ण थीं ।
6. धार्मिक नीति -Religious Policy
चन्द्रगुप्त द्वितीय की सफलता इस बात में भी थी कि जहां इसके काल में हिन्दू धर्म में पर्याप्त प्रगति हुई वहीं अन्य धर्मों का भी विकास हुआ । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने सभी धर्मों के प्रति एक समान दृष्टिकोण की नीति अपनाई । इसके अतिरिक्त उसने प्रशासन में प्रत्येक धर्म के लोगों को बिना किसी भेदभाव के उच्च पदों पर नियुक्त किया । उदाहरणस्वरूप उसका सेनापति अमरकोंडदेव बौद्ध धर्म का अनुयायी था । अन्त में हम ओ ० पी ० सिंह भाटिया के इन शब्दों से सहमत हैं , ” उसका ( चन्द्रगुप्त द्वितीय ) शासनकाल गुप्त काल में सबसे अच ्छा था । इसे भारतीय इतिहास में स्वर्ण युग के नाम से जाना जाता है ।