वस्तुतः संरक्षक और तदर्श संरक्षक
वस्तुतः संरक्षक और तदर्श संरक्षक De – facto Guardian , and Ad hoc Guardian
वस्तुतः संरक्षक ( De – facto Guardian ) – वस्तुतः संरक्षक स्वयं द्वारा नियुक्त रक्षक होता है । जब कोई व्यक्ति बिना किसी विधि की आवश्यकता के अवयस्क के शरीर या सम्पत्ति की देखभाल करता है और यह देखभाल कुछ दिन की अस्थायी देखभाल होकर स्थायी देखभाल है तो हिन्दू विधि ऐसे व्यक्ति की स्थिति को स्वीकार करती है । इस प्रकार ” अवयस्क का वस्तुतः संरक्षक न कोई विधिक संरक्षक है न कोई वसीयती संरक्षक तथा न किसी न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक है वरन् वह इस प्रकार का व्यक्ति होता है , जिसने स्वयं अवयस्क की सम्पदा तथा मामलों की देखभाल का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया है तथा प्राकृतिक संरक्षक की तरह आचरण करने लगा है । “
वस्तुत : संरक्षक का नाम हिन्दू धर्मशास्त्रों में कहीं उल्लिखित नहीं है परन्तु उसके अस्तित्व को कहीं भी नकारा नहीं गया । श्री मूलू के वाद में न्यायाधीश ने कहा है कि “ हिन्दू विधि शास्त्र ने दो विपरीत और कठिन परिस्थितियों में समाधान ढूँढ़ने का प्रयास किया है — एक जब अवयस्क को कोई वैध संरक्षक नहीं है तो फिर उसकी सम्पत्ति का कोई प्रबन्ध न होने के उसे ( अवयस्क को ) अपने भरण – पोषण , अन्य व्ययों के लिए कोई धनराशि प्राप्त नहीं हो सकेगी , दूसरा , बिना विधिक अधिकार के किसी भी व्यक्ति को दूसरे की सम्पत्ति में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है । हिन्दू विधि ने कठिन स्थिति का समाधान किया है वस्तुतः संरक्षक में विधिक मान्यता देकर ।
” इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वस्तुतः संरक्षक वह व्यक्ति है जिसने स्वयं अवयस्क की सम्पदा तथा मामलों की देखरेख का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया है ।
वस्तुतः संरक्षक की शक्तियाँ – संरक्षकता की विधि के संहिताबद्ध होने के पूर्व मान्य नियम यह था कि वस्तुतः संरक्षक निम्नलिखित दो अवस्थाओं में अवयस्क की सम्पत्ति हस्तान्तरण कर सकता था
( 1 ) वैध आवश्यकता ,( 2 ) सम्पत्ति की असुविधा ।
वस्तुतः संरक्षक की अन्य शक्तियों के बारे में श्री मूलू के निर्णय में फेडरल कोर्ट ने कहा है कि विधित : और वस्तुतः संरक्षकों को अपने ऋण , साधारण अनुबन्ध , पराक्रम्य , लिखित पर ऋण द्वारा अवयस्क की सम्पत्ति को दायित्व के भार से लादने का अधिकार है बशर्ते कि ( क ) ऋण अनुबन्ध , पराक्रम्य लिखित वैध आवश्यकता या सम्पत्ति के प्रलाभ ( benefit ) के लिए लिया गया है एवं संरक्षक के उन ऋण अनुबन्ध और पराक्रम्य लिखित के अन्तर्गत अपने को दायित्व से अवर्जित नहीं किया है । परन्तु यह सुस्थापित मत है कि वस्तुतः संरक्षक न तो अवयस्क की है ओर से दायित्व अभिस्वीकृति कर सकता है न ही वह विवाद को पंच फैसले के सुपुर्द कर सकता है और न ही वह अवयस्क की सम्पत्ति का दान कर सकता है ।
वस्तुतः संरक्षक अब इस अधिनियम के लागू होने की तिथि से किसी अवयस्क हिन्दू की सम्पत्ति के सम्बन्ध में अपने अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता । किन्तु कोई कार्य , जो वस्तुत : संरक्षक ने अधिनियम के पूर्व किया है , इसकी वैधता पूर्व विधि के अनुसार निर्णीत की जायेगी ।
जब कोई व्यक्ति किसी अवयस्क की सम्पत्ति को संरक्षक के रूप में धारण करता है किन्तु वह न तो कोई नैसर्गिक संरक्षक अथवा वसीयती संरक्षक अथवा न किसी न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक होता है तो वह वस्तुतः संरक्षक माना जायेगा और इस अधिनियम में दी गई धारा के प्रावधान उसके सम्बन्ध में लागू किये जायेंगे । एक वस्तुतः संरक्षक अवयस्क के लिए उसके अनन्य मित्र के रूप में किसी ओर से की वाद में आ सकता है । कोई ऐसा व्यक्ति जो अवयस्क की सम्पत्ति की देखभाल करता है किन्तु वह न तो प्राकृतिक संरक्षक या वसीयती संरक्षक है और न न्यायालय द्वारा निर्धारित संरक्षक है तो ऐसी स्थिति में वह वस्तुतः संरक्षक माना जायेगा , किन्तु उसके ऊपर वे समस्त नियन्त्रण आरोपित किये जायेंगे जो धारा 11 में उल्लेखित है ।
( 2 ) तदर्थ संरक्षक ( Adhoc Guardian ) – तदर्थ संरक्षक वह व्यक्ति होता है जो केवल कुछ निश्चित या विशेष उद्देश्य के लिए संरक्षक का रूप धारण करता है । इस प्रकार के संरक्षक द्वारा अवयस्क की सम्पत्ति का हस्तांतरण शून्य होता है । वर्तमान अधिनियम में तदर्थ संरक्षक को कोई स्थान प्रदान नहीं किया गया है । श्री अरविन्दो सोसाइटी पांडिचेरी बनाम रामोदास नायडू ‘ के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने यह कहा कि भले ही कोई तदर्थ संरक्षक जैसा कार्य करे किन्तु उसके द्वारा अवयस्क के लिये किया गया समस्त कार्य अकृत एवं शून्य होगा और वह अवयस्क को बाधित करेगा भले ही उसके द्वारा किया गया कार्य अवयस्क के हित में प्रतीत हो । तदर्थ संरक्षक न तो विधिक संरक्षक है और न वस्तुतः संरक्षक ।